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भारत बंदः आखिर मध्य प्रदेश में ही क्यों हुई बड़ी हिंसा?

मध्य प्रदेश मौजूदा सरकार के फैसलों के खिलाफ हिंसा का केंद्र क्यों बन गया है?

Debobrat Ghose

मध्य प्रदेश मौजूदा सरकार के फैसलों के खिलाफ हिंसा का केंद्र क्यों बन गया है? जिस तरह से 2017 में राज्य के मंदसौर में हुई पुलिस फायरिंग में 6 लोग मारे गए थे, उसी तरह से एक बार फिर बीते सोमवार को भारत बंद के दौरान हुई हिंसा में मध्य प्रदेश से ही सबसे ज्यादा लोग हताहत हुए. दलित संगठनों ने इस बंद का आह्वान किया था.

राज्य के ग्वालियर, भिंड और मुरैना में भीड़ द्वारा की गई हिंसा में 6 लोगों के मारे जाने और कई अन्य के जख्मी होने की खबर है. सोमवार सुबह को मेरठ, आगरा समेत उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों, बिहार और राजस्थान से हिंसा और रेल जाम करने को लेकर खबरें आईं. हालांकि, दिन गुजरने के साथ ही मध्य प्रदेश हिंसा का अहम केंद्र हो गया. दलितों द्वारा की जा रही रैली और प्रदर्शन हिंसात्मक हो गए और हथियारों से लैस हमले सुर्खियां बने.


प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, दलित आंदोलन का मामला उस वक्त और बिगड़ गया, जब ग्वालियर और मुरैना में दो समूहों- दलितों और दक्षिणपंथी संगठन भिड़ पड़े. दोनों संगठनों ने हथियार निकाल लिया और इसके जरिये एक-दूसरी इकाइयों से जुड़े लोगों पर हमले करने लगे और मामला बड़ी हिंसा में तब्दील हो गया. पुलिस ने लाठीचार्ज भी किया, लेकिन धीरे-धीरे हालात और खराब हो गए.

मध्यप्रदेश में प्रदर्शन के दौरान की तस्वीर

इस हिंसा की आग चंबल इलाके (ग्वालियर, भिंड और मुरैना जिले) से फैलते हुए राज्य के बाकी जिलों मसलन रेवा, भोपाल तक पहुंच गई. हालांकि, इन जिलों में स्थिति उतनी भयंकर नहीं हुई. सुरक्षा बलों ने फ्लैग मार्च किया, कर्फ्यू लागू किया गया. अफवाहों पर लगाम कसने और सोशल मीडिया पर हिंसा को रोकने के लिए प्रशासन ने चंबल के तीन जिलों में इंटरनेट सेवाएं रोक दीं.

मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश का चंबल इलाका ऐतिहासिक रूप से डकैतों या बागियों (जैसा वे खुद को बताते हैं) के लिए कुख्यात रहा है. यह इलाका भीड़ से जुड़ी हिंसा, दंगा और पुलिसिया जुल्म संबंधी गतिविधियों का मुख्य केंद्र बन गया. इस आंदोलन को इस इलाके के व्यापक जनांकिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में देखना चाहिए.

अनुसूचित जाति और दलितों का सबसे बड़ा जमावड़ा

मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी 15.2 फीसदी आबादी है और राज्य में सबसे ज्यादा दलित चंबल इलाके में ही हैं. यह बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का गढ़ है और पार्टी ने यहां पर हमेशा से लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान बीजेपी और कांग्रेस के लिए कड़ी चुनौती पेश की है.

बीएसपी के बैनर तले दलितों को एकजुट करने का श्रेय राज्य के पूर्व पार्टी अध्यक्ष फूल सिंह बरैया को जाता है. बीएसपी सुप्रीमो मायावती से विवाद होने के कारण बरैया ने 2008 में पार्टी छोड़ दी थी. उसके बाद उन्होंने बहुजन संघर्ष दल नाम की पार्टी बनाई. अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार रोकथाम) कानून 1989 को नरम बनाने से दलितों को सरकार के खिलाफ जोरदार विरोध प्रदर्शन और एकजुट होने का मौका मिला और भारत बंद होने के दौरान उन्होंने साथ मिलकर प्रदर्शन किया.

चंबल- डकैतों का गढ़

चंबल का इलाका ऐतिहासिक तौर पर 'डकैतों' या बागियों के लिए कुख्यात है, जिनका बीहड़ों में दबदबा था. शुरू के दौर में जहां मान सिंह, मल्खान सिंह, पान सिंह तोमर आदि डकैत 'ठाकुर' थे, वहीं बाद में ज्यादातर डाकू, मसलन फूलन देवी, रामबाबू और दयाराम गड़रिया आदि दलित थे. साल 2000 के बाद इस समुदाय ने डकैत बनने के लिए बंदूक उठाने के बजाय राजनीति में आने को तवज्जो दी.

मध्य प्रदेश के सागर इलाके के दलित राजनीतिक कार्यकर्ता और डॉ. भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी से सामाजिक दर्शन में डॉक्टरेट कर चुके विक्रम चौधरी कहते हैं, 'डकैतों का वह दौर अब तकरीबन खत्म हो चुका है. इसके बजाय लोग अब नेता, उद्योगपति, विधायक और सांसद बनना चाहते हैं. दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाली दस्यु फूलन देवी सांसद तक बन गईं. अब इस इलाके के दलित राजनीतिक रूप से काफी जागरूक हो चुके हैं और किसी तरह के शोषण-दमन को बर्दाश्त नहीं करना चाहते. ऐसे माहौल में जाहिर तौर पर दलितों को भारत बंद के दौरान एकजुट होने में मदद मिली और जब दक्षिणपंथी संगठनों ने ग्वालियर, भिंड और मुरैना में उन पर हमला किया, तो उन्होंने (दलितों ने) आक्रामक तरीके से उन संगठनों का मुकाबला किया. '

दमन और शोषण

देश की आजादी से पहले ही चंबल इलाके के दलित सवर्ण जातियों की तरफ से शोषण और दमन का शिकार होते रहे हैं. हालांकि, पिछले कुछ दशकों में स्थिति बदली है, लेकिन शोषण का सिलसिला अब भी कायम है. यहां तक कि सामाजिक स्तर पर आगे बढ़ चुके दलित समुदाय के लोगों ने आर्थिक रूप से कमजोर दलितों का शोषण किया.

दलितों पर अत्याचार के सबसे ज्यादा मामले

मुरैना के रहने वाले और सीपीएम के राज्य सचिव व पार्टी की सेंट्रल कमेटी के मेंबर बादल सरोज ने बताया, 'मध्य प्रदेश में दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं सबसे ज्यादा रही हैं. ज्यादातर मामलों में दलितों को न्याय नहीं मिलता है. उनके खिलाफ शोषण और अत्याचार की वजह से नाराजगी और आक्रोश है. भारत बंद के दौरान आरएसएस और बीजेपी के गुंडों ने पुलिस के साथ मिलकर दलितों पर हमला किया और उनके द्वारा जवाबी कार्रवाई के कारण हिंसा बढ़ गई.'

किसानों का 2017 का आंदोलन

दलितों के बंद के आह्वान के दौरान हुई हिंसा से पहले यानी पिछले साल मध्य प्रदेश में किसानों के आंदोलन के दौरान भीड़ ने हिंसा की थी और इसके बाद मंदसौर में पुलिस फायरिंग में 6 किसान मारे गए थे. सरकार द्वारा 2014 में किए गए वादों को पूरा नहीं किए जाने के कारण किसानों ने यह आंदोलन किया था. मध्य प्रदेश के दलितों ने इससे सबक लिया और उनसे संबंधित कानून को नरम बनाने संबंधी मामले में जोरदार तैयारी की. यहां तक कि वे विरोध-प्रदर्शन की तैयारी में हथियारों से भी लैस थे. राज्य में दलित खेतिहर मजदूरों की बड़ी संख्या है और इन लोगों ने भी इस बंद से जुड़े विरोध-प्रदर्शनों में हिस्सा लिया.

सरकार का ढीला रवैया

बंद के दौरान राज्य में कानून-व्यवस्था बनाए रखने में नाकाम रहने के लिए विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी सरकार को जिम्मेदार ठहराया है. कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी पार्टी की एक बैठक के सिलसिले में सोमवार को भोपाल में थीं. उन्होंने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने दलितों के अंदर के गुस्से को नजरअंदाज किया. मोदी सरकार कम से कम संसद में अध्यादेश लाकर यह सुनिश्चित कर सकती थी कि इस कानून को नरम नहीं बनाया जाएगा, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. इस बात की जानकारी होने के बावजूद कि चंबल संवेदनशील इलाका है, मध्य प्रदेश सरकार कानून व्यवस्था बनाए रखने में नाकाम रही. यह घटना मंदसौर की याद दिलाती है. चौहान का एकमात्र फोकस मध्य प्रदेश का आगामी चुनाव है. '

वाकई में क्या हुआ?

प्रतीकात्मक तस्वीर

बंद के दौरान रैलियों और प्रदर्शन में राज्यभर में दलित संगठनों के अलावा लोगों ने भी बड़ी संख्या में हिस्सा लिया. घटना के गवाह रहे कई लोगों और विरोध-प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वालों ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि 'दक्षिणपंथी' संगठनों ने कथित तौर पर दलित रैलियों पर हथियारों से हमला किया और प्रतिक्रिया के तौर पर दलित संगठनों ने भी कार्रवाई की और धीरे-धारे हालात बेकाबू हो गए.

न्यूज चैनलों ने एक चश्माधारी शख्स को अपनी पिस्टल से दलितों पर फायरिंग करते दिखाया. इससे जुड़ी तस्वीर सोशल मीडिया पर भी वायरल हो गई. ग्वालियर के सूत्रों के मुताबिक, इस घटना ने दलितों को भड़का दिया और उन्होंने भी जवाबी कार्रवाई की.

ट्विटर पर खुद को संविधान का पालन करने वाला, धर्मनिरपेक्ष, कार्यकर्ता, ब्लॉगर और बीएसपी का सदस्य बताने वाले देवाशीष जरारिया ने इस माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट पर हिंदी में पोस्ट किए मेसेज में लिखा, 'जो शख्स अपनी पिस्टल से फायरिंग कर रहा है, वह ग्वालियर का राजा चौहान है. उसने भारत बंद को जातीय हिंसा में बदल दिया और तीन दलितों की हत्या कर दी.'

यह ट्वीट सोशल मीडिया पर तुरंत वायरल हो गया और खबरिया चैनलों ने इसे दिखाना शुरू कर दिया, लेकिन फ़र्स्टपोस्ट स्वतंत्र तौर पर इन दावों की पुष्टि नहीं कर पाया है.

दलित शोषित मोर्चा से जुड़े और मुरैना निवासी जुगल किशोर पीप्ल ने आरोप लगाया, 'यह आंदोलन अनुसूचित जाति/जनजाति कानून को कमजोर करने के खिलाफ दलितों के उपजे गुस्से का नतीजा था. हालांकि, जब बीजेपी और इससे जुड़े संगठनों ने पुलिस की मौजूदगी में दलितों की रैलियों पर हमला शुरू किया, तो मामला हिंसात्मक हो गया. पुलिस मूक दर्शक बनी रही और दलितों को पीटा भी गया. कई जगहों पर उनके घर जला दिए गए.'

सीपीएम के राज्य सदस्य अशोक तिवारी का कहना था, 'पुलिस ने भी दलितों को जान-बूझकर परेशान किया और इस समुदाय के लोगों को दमन का शिकार बनाया. रैलियों और विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला पिछले तीन दिनों से चल रहा है, लेकिन सोमवार को पुलिस ने ग्वालियर के अंबेडकर पार्क में बैठक के लिए शांतिपूर्ण ढंग से इकट्ठा हुए दलित प्रदर्शनकारियों को निर्ममता से पीटा. हमने दलितों के मुद्दे का समर्थन किया है. हम राज्य प्रायोजित इस अपराध के खिलाफ सबूत इकट्ठा कर रहे हैं और इसे उच्च स्तर पर उठाएंगे.'