तिब्बत के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा को अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ तवांग मठ में यात्रा करने की अनुमति देना किसी सांड़ के सामने लाल कपड़े लहराने जैसा है.
माना जाता है कि इस समय भारत-चीन के बीच का रिश्ता खुरदुरे दौर से गुजर रहा है, ऐसे में दलाई लामा की यह यात्रा दोनों देशों के बीच तनाव को और बढ़ाएगी.
शक की नजरों से देखने वालों का मानना है कि इस समय की जा रही इस यात्रा का परिणाम थोड़े समय के लिए ही सही मगर सीमा के आर-पार होने वाली झड़प को फिर बढ़ा सकता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि दलाई लामा अरुणाचल प्रदेश की पहली बार यात्रा कर रहे हों.
नवंबर 2009 में भी मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान दलाई लामा को इस तरह की यात्रा की अनुमति दी गई थी. तवांग यात्रा के ठीक पहले चीन का जबरदस्त विरोध सामान्य रूप से बाद में भी जारी रहा है.
चीन का यह दावा रहा है कि अरुणाचल प्रदेश पूरी तरह उसका अपना क्षेत्र है और मठ नगर तवांग दक्षिण तिब्बत का हिस्सा है. 1959 से ही भारत को अपना ठिकाना बनाने वाले दलाई लामा ने युवावस्था में चीन का विरोध किया था.
हालांकि, उनके विद्रोह को तेजी से कम करने की कोशिश की गयी और दलाई लामा को भारत में शरण लेना पड़ा और यहीं निर्वासित रहकर उन्होंने अपनी सरकार बना ली.
चीन ने निरंतर एकल चीनी नीति को ही अपनाया हुआ है, लेकिन दिल्ली ने इस तिब्बती संन्यासी का स्वागत किया और यह हिदायत देते हुए धर्मशाला में उन्हें शरण दे दी थी कि वो किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे.
अलगाववाद
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने दलाई लामा को हमेशा ही सशंकित नजरों से देखा है. हालांकि, इस अाध्यात्मिक नेता ने हमेशा से तिब्बत की आजादी की ही नहीं बल्कि उसके लिए अधिक स्वायत्ता की भी मांग करते आए हैं.
इसके बावजूद कम्युनिस्ट पार्टी इन्हें घृणा की दृष्टि से देखती रही है. चीन का मानना है कि पश्चिमी देश दलाई लामा का इस्तेमाल चीन को उलझाए रखने
में करते हैं.
उन्हें लगता है कि दलाई लामा एक 'अलगाववादी' हैं और उनके जरिए एकल चीनी नीति को विभाजित करने की कोशिश की जा रही है. यही कारण है कि चीन दलाई लामा की किसी भी पश्चिमी देश की यात्रा की कड़ी निंदा करता रहा है.
चीन इस बात को लेकर हमेशा चिंतित रहता है कि दलाई लामा तवांग से
किसी भिक्षु को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते हैं. दलाई लामा हमेशा ही यह कहते रहे हैं कि वो आखिरी दलाई लामा हो सकते हैं और उनके साथ ही यह शानदार परंपरा दम तोड़ सकती है.
लेकिन दलाई लामा की इस आशंका को भी चीन शक की नजरों से देखता है. उसे लगता है कि इस बौद्ध संन्यासी का यह कथन चीन को निरस्त्र करने का
ही एक प्रयास है. यही कारण है कि चीन अपने ही मुख्य भू-भाग से किसी दलाई लामा को घोषित करने की फिराक में है.
लिहाजा शंका में रह रहा बीजिंग हमेशा ही इस तिब्बती धर्मगुरु की तवांग यात्रा पर कड़ी निगरानी रखता रहा है.
दलाई लामा के कार्यालय से जारी कार्यक्रमों की जो रूपरेखा बनायी गई है, उसके मुताबिक दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा 4 अप्रैल से शुरू होगी. तवांग में उनका सत्संग 5 से 7 अप्रैल तक चलेगा.
उनका अगला पड़ाव 10 अप्रैल को दिरांग होगा और इसके अगले दिन वो बोमडिला में होंगे. अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर में दलाई लामा 12 अप्रैल को होंगे, जहां इस यात्रा का समापन एक उपदेश कार्यक्रम के साथ होगा.
तवांग पर नवीनतम गतिरोध
इस समय भारत-चीन के बीच नाज़ुक रिश्ते को देखते हुए यह यात्रा सही अर्थों में कबूतरों के बीच बिल्ली की कहावतों को ही चरितार्थ करती है.
लंबे समय से रिसती सीमाई समस्या के बावजूद दोनों बड़े एशियाई देशों ने इस विषय से निपटने के लिए अपने-अपने विशेष प्रतिनिधि को लगाया है. ताकि आर्थिक क्षेत्र और दोनों देशों के लोगों के बीच संपर्क को लेकर आगे बढ़ा जा सके.
अब तक 16 दौर की वार्ताएं संपन्न हो चुकी हैं, लेकिन परिणाम बहुत ज्यादा नहीं निकला है. दोनों देशों के बीच की सीमा रेखा पर जो गतिरोध है, उसे दूर करने के मकसद से सीमा वार्ता के लिए एक पूर्व सभासद तथा चीन के एक विशेष प्रतिनिधि को लगाया गया था.
लेकिन इस वार्ता को तब जोरदार झटका लगा, जब चीन की तरफ से यह बयान आया कि दोनों देशों के बीच की समस्या को खत्म करने को लेकर तभी किसी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है, जब भारत अपना तवांग क्षेत्र चीन को दे दे और बदले में वह पश्चिमी सीमा का कोई भूखंड ले ले.
दिल्ली को यह शर्त किसी भी सूरत में मंजूर नहीं है. यूपीए के शासनकाल में भी तवांग को लेकर दबाव बनाया गया था. ऐसा उस स्थिति में था, जबकि एक समझौता पहले से ही इस बात को लेकर दोनों देशों के बीच है कि आबादी वाले
क्षेत्रों की अदला-बदली नहीं होगी.
मोदी-झी के बीच खट्टा-मीठा रिश्ता
ठीक तीन साल पहले के भारत-चीन समझौते से ऐसा लगता था कि दोनों देश अपने बीच आये गतिरोध को दूर करने के लिए तैयार हैं. राष्ट्रपति झी जिंग्पिंग भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्तारूढ़ होने के कुछ ही महीनों बाद नवंबर 2014 में भारत आये. झी ने सीधे दिल्ली आने की बजाय प्रधानमंत्री के गृह राज्य गुजरात का रुख किया.
इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी जब 2015 में चीन की यात्रा पर गये, तो उन्होंने भी झी के गृह प्रांत की यात्रा की. हालात तब बिगड़े, जब चीन ने 46 बिलियन डॉलर की लागत से पाक अधिकृत कश्मीर में एक आधारभूत संरचना के निर्माण किये जाने का निर्णय लिया. इसे चीन और पाकिस्तान ने आर्थिक गलियारे के एक अभिन्न हिस्से के रूप में बताया गया.
भारत ने इसे अपना भू-भाग बताते हुए अपना विरोध दर्ज किया. दूसरी तरफ चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) से चीन-पाकिस्तान के रिश्ते में और भी बेहतरी आयी है. शुरू से ही चीन ने भारत को नियंत्रित करने के लिए पाकिस्तान को अपने एक सामरिक सिद्धांत के तौर पर इस्तेमाल किया है. अब इस सामरिक सिद्धांत से अपने आर्थिक हितों को भी जोड़ दिया है और इसकी रक्षा करने के लिए चीन ने इस क्षेत्र में अपने सैनिक और कमांडो भी उतार दिये हैं.
नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में पाकिस्तान की तरफदारी करते हुए चीन ने भारत की सदस्यता की इच्छा पर पानी फेरने में अपने वीटो का इस्तेमाल किया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में भी चीन ने जैश-ए-मोहम्मद के
नेता मसूद अज़हर पर यूएनएससी प्रतिबंधों के अधीन लाने पर लगातार असहमति जतायी है.
हालांकि, अज़हर के संगठन जैश-ए-मोहम्मद को पहले ही एक आतंकी गिरोह के रूप में कुबूल कर लिया गया है. इन दोनों मुद्दों के कारण पिछले दो सालों के दरम्यान भारत-चीन के बीच का रिश्ते में तनाव आया है और भारत के लिए ये मुद्दे भड़काने वाले रहे हैं.
हालांकि, इन दोनों मुद्दों से कोई बड़ा अंतर तो नहीं आया है, क्योंकि भारत पहले ही परमाणु प्रतिबंध को झेल चुका है. जिसे अमेरिकी मदद से 2008 में उठा लिया गया था. अब तो भारत परमाणु व्यापार को लेकर आगे बढ़ने के लिए
स्वतंत्र है और खारिज होने का खतरा भी नहीं है.
जैश-ए-मोहम्मद का इस्तेमाल पाकिस्तान बड़े स्तर पर कर सकता है, इससे पाकिस्तान को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसे एक आतंकी की तरह देखा जाता है या नहीं. ऐसे में इस हलचल का मतलब रह नहीं जाता है. पूर्व विदेश सचिव श्याम शरण कहते हैं, मैं मानता हूं कि भारत इन मुद्दों को लगातार उठाते हुए बिल्कुल सही कर रहा है, लेकिन इसे रणनीतिक रूप से बारीकी के साथ इस्तेमाल करना होगा.
शरण इन दोनों पड़ोसी देशों के बीच चल रहे खट्टे-मीठे रिश्ते को लेकर उपर्युक्त घटना को एक बड़े झटके के रूप में देखते हैं. शरण आगे कहते हैं, ‘2009 में दोनों देशों के बीच नत्थी वीजा को लेकर तनाव था, फिर लद्दाख के भारतीय
क्षेत्र में काफी दूर तक पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की घुसपैठ ने इस तनाव को और बढ़ा दिया.
ठीक है कि भारत और चीन के नेताओं के बीच निरंतर होती सहज बैठकों के बावजूद कोई विशिष्ट परिणाम नहीं निकल सकता, लेकिन सकारात्मक माहौल ने सीमा से नीचे नहीं जाने दिया और गोता खाते जहाज को फिर से सतह पर ला दिया गया है.
वह स्वीकार करते हुए शरण कहते हैं कि, 'अब एक खास अंतर है. माहौल दोनों तरफ से दांव लगाने के हिसाब से स्पष्ट रूप से चिंतनीय नहीं है. बुनियादी समस्या यही है कि चीन लंबे समय तक इस वास्तविकता को छुपाए नहीं रख सकता है कि चीन भारत से कहीं आगे है, यह विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है और यह लगातार उस रास्ते पर चल रहा है, जो इसे विश्व का सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी बनाता है.'
चीन को अपनी आकांक्षाओं को लेकर बहुत दिनों तक सचेत रहने की आवश्यकता नहीं है. फिर भी चीन अपनी शक्ति के प्रदर्शन को लेकर हमेशा सचेत रहता है. यह चीन को किस हद तक ले जायेगा, यह सुननिश्चित तो नहीं है लेकिन राजदूत शरण मानते हैं कि भारत को अपने रक्षा संबंधित पहलुओं की
कमी को दूर करने की जरूरत है.
2016 के प्रारंभिक महीनों तक चीन में भारत के राजदूत रहे अशोक कांत मानते हैं कि दलाई लामा की तवांग यात्रा से भारत और चीन के बीच के रिश्तों को चोट नहीं पहुंचेगी.
चीन के खिलाफ अमेरिका के साथ भारत की लगातार बढ़ती नजदीकी पर पूर्व राजदूत अशोक कांत कहते हैं, 'हमारी रक्षा के लिए अन्य देशों पर निर्भर रहने के लिहाज से भारत एक बहुत बड़ा देश है. निर्भरता के बजाय हमें अपने सीमाई इलाकों की कमी को दूर करने की जरूरत है. साथ ही अपने रक्षा संबंधित घटकों को मजबूत करने की आवश्यकता है.
उनका कहना है कि चीन के साथ हमारे संबंध बेहद जटिल हैं, ऐसे में दोनों देश अभी तक वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति बनाये हुए हैं. यह एक बड़ी बात है. घुसपैठ तो होती रही है, लेकिन उसे लेकर सीमा पर एक भी गोली नहीं चली है. यह उन दोनों देशों के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है जो 1962 में थोड़े समय के लिए ही सही मगर सीमा रेखा के आर-पार युद्ध लड़ चुके हैं.
हालांकि, श्याम शरण इस बात को स्वीकार करते हैं कि दोनों देशों के बीच इस समय बहुत सारे लय-ताल बेसुरे हो चुके हैं.
आर्थिक रिश्ते की लहर
पूर्व राजदूत कांत इस बात पर जोर देते हैं कि भले ही रिश्ते में खुरदुरापन हो, लेकिन सच है कि चीनी निवेश लगातार बढ़ रहा है. आर्थिक संलग्नता के साथ-साथ दोनों देशों के दरम्यान लोगों के बीच संपर्क भी तेजी से बढ़ रहा है.
उनका कहना है कि लगभग 70 बिलियन डॉलर की परियोजना अभी प्रक्रियाधीन है, जिसमें से 32 बिलियन डॉलर का निवेश चीन से जुड़ी योजनाओं में किया जाना है. अशोक कांत मानते हैं कि इन तमाम परियोजनाओं को शायद अंतिम रूप से एक रोशनी की तरह नहीं देखा जा सके, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि अब चीनी निवेश आप्रवाह के लिए तैयार है.
फिल्म निर्माण
2014 में चीनी राष्ट्रपति झी जिन्पिंग के भारत दौरे के दौरान यह निर्णय लिया गया था कि दोनों देश आपसी सहयोग से फिल्म निर्माण करेंगे. अब तक तीन बड़ी फिल्मों का निर्माण भी किया गया है, इनमें से दो फिल्में हैं : कुंगफू योगा और बडीज. ये दोनों फिल्में भारत की उन चार फिल्मों में से हैं, जिन्होंने नव वर्ष की शुरुआत में ही जबरदस्त कारोबार किये थे.
इस तरह से भारत और चीन दोनों ही देश अपने रिश्तों को परिपक्व तरीके से आगे ले जाने में सक्षम हैं. यह बदलाव किसी भी तरह के अनुमानों को खत्म करता है.