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मिस्त्री की विदाई का सबक: सामंती जागीर जैसे हैं भारतीय कॉरपोरेट

टाटा की वेबसाइट से मिस्त्री से जुड़े सभी निशान मिटा दिए गए हैं...

FP Staff , FIRSTPOST.COM

राजेश पंदाथिल, सुलेखा नायर 

टाटा संस से साइरस मिस्त्री की छुट्टी हो गई है. इससे फिर साबित हुआ है कि भारतीय कॉरपोरेट अभी भी पेशेवर संस्था के बजाय सामंती जागीरों की तरह चल रहे हैं. मिस्त्री नवंबर 2011 में टाटा संस के चेयरमैन बने थे. उनको 14 महीने की चयन प्रक्रिया के बाद चुना गया था. सोमवार को बाजार बंद होने के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनके जाने की घोषणा कर दी गई.


रतन टाटा अंतरिम चेयरमैन बनाए गए हैं. वह वेनु श्रीनिवासन, अमित चंद्रा, रोनेन सेन और लॉर्ड कुमार भट्टाचार्य के साथ मिलकर अगले चेयरमैन की तलाश करेंगे. उनके पास 4 महीने हैं.

टाटा की वेबसाइट से मिस्त्री से जुड़े सभी निशान मिटा दिए गए हैं. 48 साल के मिस्त्री के लिए यह बेहद गरिमाविहीन विदाई थी. संकेत हैं कि टाटा और मिस्त्री के पिता शपूरजी पलोनजी मिस्त्री के बीच बोर्डरूम में जंग छिड़ने वाली है. शपूरजी ग्रुप के सबसे बड़े व्यक्तिगत शेयरहोल्डर हैं.

मिस्त्री को हटाए जाने की खबर ने इंडिया इंक और विशेषज्ञों को चौंका दिया. टाटा संस के बोर्ड और मिस्त्री के बीच तनाव के कोई संकेत नहीं थे. ऐेसे में मिस्त्री के जाने की उम्मीद किसी को नहीं थी.

इकोनॉमिक टाइम्स के कंसल्टिंग एडिटर स्वामीनाथन अय्यर ने कहा, ‘यह आश्चर्यजनक और चिंताजनक है.’

चिंता की बात इसलिए है, क्योंकि उदारीकरण के 25 साल बाद भी भारतीय कॉरपोरेट उसके पहले के दौर में ही हैं. उनके काम का तरीका अभी भी पेशेवर नहीं है.

टाटा संस में पर्दे के पीछे का खेल

फ़र्स्टपोस्ट को मिली जानकारी के मुताबिक बोर्ड और चेयरमैन के बीच काम के तरीके सहित कई मुद्दों को लेकर मतभेद थे. सूत्र बताते हैं कि मिस्त्री का माइक्रो-मैनेजमेंट का तरीका रतन टाटा से अलग था. हाल में कुछ ऐसे फैसले लिए गए, जिनमें चेयरमैन को अनदेखा किया गया. इन फैसलों से कंपनी पर टाटा की पकड़ मजबूत हुई. हालांकि ये सब पर्दे के पीछे हुआ और किसी को इसकी जानकारी नहीं थी.

मिस्त्री को हटाए जाने को उनके साक्षात्कार (जो अब टाटा की वेबसाइट से हटा दिए गए हैं) में बताई गई उनकी गवर्नेंस फिलॉसफी के संदर्भ में देखा जा रहा है.

मिस्त्री ने कहा था कि ‘चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों’ की मांग है कि कुछ कड़े फैसले लिए जाएं और पोर्टफोलियो में कटौती की जाए. माना जा रहा है कि मिस्त्री के कड़े फैसले लेने के कदम ने बोर्ड के साथ उनके रिश्ते और बिगाड़ दिए.

अगर मिस्त्री को हटाए जाने का कारण यही है, तो यह गरिमा, कॉरपोरेट गवर्नेंस और पेशेवर प्रबंधन के सभी लिखित और अलिखित नियमों के खिलाफ है.

रतन टाटा और टाटा ट्रस्ट की छाया बोर्डरूम में हमेशा रहती है. रतन टाटा, टाटा ग्रुप में अलग ही हैसियत रखते हैं. गैरमौजूदगी में भी उनकी नजर बॉम्बे हाउस पर बनी रहती है. उनका असर बोर्ड में टाटा ट्रस्ट के प्रतिनिधियों पर भी है.

इकोनॉमिक टाइम्स में सीपीआर के राजीव कुमार कहते हैं, ‘मिस्त्री एक ओर से क्षत्रपों और दूसरी ओर ट्रस्ट से घिरे थे. संभव है कि उन्होंने यह अल्टीमेटम दे दिया हो कि या तो चीजें उनके तरीके से चलेंगी या फिर नहीं.’

टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार, नौ सदस्यीय बोर्ड में 6 ने मिस्त्री के खिलाफ वोट दिया और दो गैरहाजिर रहे. जाहिर है ट्रस्ट की चली.

जरूरत है कि समय के साथ भारतीय उद्योग घराने अपने कामकाज का तरीका बदलें. टाटा की छवि गवर्नेंस की मशाल बुलंद करने वालों की रही है. लेकिन अगर वे अपने मौजूदा तरीके नहीं बदलाव नहीं करते हैं तो सामंती जागीरदार ही बने रह जाएंगे.