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CPI के कार्यक्रम में मनमोहन सिंह के भाषण के गहरे राजनीतिक मायने हैं

देश के राजनीतिक माहौल में 2019 के लोकसभा चुनावों की दस्तक साफ तौर पर सुनाई पड़ने लगी है.

Debobrat Ghose

देश के राजनीतिक माहौल में 2019 के लोकसभा चुनावों की दस्तक साफ तौर पर सुनाई पड़ने लगी है. कभी एक-दूसरे की राजनीतिक विरोधी रहीं पार्टियां अपने सैद्धांतिक मतभेदों को भुलाकर दोस्त बनने की तैयारी में हैं. इस तरह की ताजा मिसाल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने पेश की है. सीपीआई ने नई दिल्ली में आयोजित अपने एक कार्यक्रम में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बुलाया. मनमोहन सिंह सीपीआई के कार्यक्रम- 'ए बी बर्द्धन स्मृति व्याख्यान' में भाषण देने के लिए आए भी. उन्होंने 'धर्मनिरपेक्षता और संविधान की रक्षा की जरूरत' विषय पर अपने विचार व्यक्त किए. उनका कहना था कि अलग राजनीतिक पार्टी से होने के बावजूद सीपीआई के दिग्गज नेता ए.बी. बर्द्धन ने यूपीए सरकार के शासनकाल में ग्रोथ और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई.

लोकसभा चुनाव से जुड़ा है मनमोहन सिंह का भाषण


मनमोहन सिंह का भाषण सुनने की सीपीआई की इच्छा कुछ और नहीं बल्कि अगले लोकसभा चुनावों से जुड़े घटनाक्रम का मामला है. यहां इस बात का जिक्र करना भी जरूरी है कि मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री थे, तो सीपीआई इस सरकार की अहम नीतियों के सबसे मुखर आलोचकों में से एक थी. सीपीआई मनमोहन सिंह द्वारा अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की दिशा में आगे बढ़ने के सख्त खिलाफ थी.

गौरतलब है कि 2008 में भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर हस्ताक्षर करने के यूपीए सरकार के फैसले के खिलाफ सीपीआई समेत तमाम लेफ्ट पार्टियों ने कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और उस सरकार को गिराने की हरमुमकिन कोशिश की थी. उस वक्त लोकसभा में लेफ्ट फ्रंट के 59 सांसद थे. यूपीए सरकार का समर्थन कर रहे इन सांसदों ने जुलाई 2008 में सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. इन पार्टियों द्वारा समर्थन वापस लिया जाना मनमोहन सिंह सरकार के लिए बड़ा झटका था.

11 अगस्त 2007 को अंग्रेजी अखबार 'द टेलीग्राफ' को दिए इंटरव्यू में मनमोहन सिंह (तत्कालीन प्रधानमंत्री) ने कहा था, 'हम परमाणु समझौते पर पीछे नहीं हट सकते. मैंने उनसे (लेफ्ट पार्टियां) कहा कि उनकी जैसी मर्जी है, वैसा करें...अगर वे सरकार से समर्थन वापस लेना चाहते हैं तो ले सकते हैं.'

सीताराम येचुरी

हालांकि, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बीते मंगलवार को सीपीआई के कार्यक्रम के दौरान अपने भाषण में सीपीआई के राज्यसभा सदस्य डी राजा और सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी का जिक्र किया. मनमोहन सिंह ने कहा, 'राजा, येचुरी मेरे लिए काफी मददगार रहे...इन दोनों नेताओं ने यह सुनिश्चित किया कि यूपीए सरकार न्यूनतम साझा कार्यक्रम को लागू करने में पीछे नहीं रह जाए.'

सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में एकजुटता का हवाला

इस बात में कोई शक नहीं है कि राजनीति में अलग-अलग विचारों के लोग अक्सर एक साथ नजर आने लगते हैं. बहरहाल, सैद्धांतिक तौर पर एक-दूसरे की विरोधी रहने वाली वामपंथी पार्टियां और कांग्रेस अपनी विचारधारा की लड़ाई के मामले को लेकर काफी सतर्क हैं. सीपीआई के महासचिव सुधाकर रेड्डी से एक अखबार के संवाददाता ने जब इस कार्यक्रम के लिए मनमोहन सिंह को अतिथि वक्ता चुनने का कारण पूछा तो उनका कहना था, 'क्यों नहीं, इसमें गलत क्या है? सांप्रदायिकता के खिलाफ इस लड़ाई में हम एकसाथ हैं.'

इस मौके पर मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में धर्मनिरपेक्षता पर जोर देते हुए पूर्व प्रधानमंत्री का जवाहर लाल नेहरू का संदर्भ पेश किया. उन्होंने कहा कि नेहरू सांप्रदायिकता को नापसंद करते थे. सिंह ने बताया, 'नेहरू ने कहा था कि कोई भी बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यक को कुचल नहीं सकता. भारत हिंदू राष्ट्र नहीं बनेगा.'

इसलिए सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई ने दोनों पार्टियों को केंद्र में एकजुट किया है, जबकि केरल के राजनीतिक और संसदीय समीकरणों के कारण कांग्रेस वाम इकाई-फॉरवर्ड ब्लॉक के साथ युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) में है. युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट अभी केरल में सत्ता में नहीं है. इसके अलावा पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों के बीच राजनीतिक विरोध की बात भी जगजाहिर है. पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट ने लगातार 7 कार्यकाल तक शासन किया.

वामपंथी पार्टियां इस राज्य में 1977 से 2011 तक लगातार सत्ता में बनी रहीं. इस राज्य में कांग्रेस के खिलाफ विभिन्न लेफ्ट पार्टियां के सामूहिक विरोध के मद्देनजर लेफ्ट फ्रंट का गठन हुआ था. यहां तक कि आज भी पश्चिम बंगाल में लेफ्ट पार्टियां कांग्रेस के साथ गठबंधन करने को इच्छुक नहीं हैं. लिहाजा, क्या सीपीआई के व्याख्यान में मनमोहन सिंह की मौजूदगी किसी तरह का संदेश है, जिसे राजनीतिक टीकाकार पढ़ने-समझने की कोशिश कर सकते हैं?

यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने को बड़ी भूल मानता है लेफ्ट!

सीपीएम की केंद्रीय समिति के एक सदस्य ने नाम जाहिर नहीं किए जाने की शर्त पर फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'लेफ्ट फ्रंट ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेकर बड़ी भूल की थी. इसके कारण हमने अपने एक बेहतरीन सांसद और दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी को भी गंवा दिया. अगर हम उनके साथ रहते, तो यूपीए सरकार और हमारे लिए सांप्रदायिकता का मुकाबला करना आसान होता, जो फिलहाल देश में चरम पर पहुंच गई है. आज हमारी केरल के अलावा कहीं अन्य जगह नहीं के बराबर मौजूदगी है.'

अमेरिका के साथ परमाणु करार के मुद्दे पर पार्टी की लाइन पर नहीं चलने और लोकसभा अध्यक्ष पद से हटने से मना करने के कारण सीपीएम ने लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निष्कासित कर दिया था.

इन घटनाक्रमों के साथ ही कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के बीच बढ़ रहे मतभेद भी सामने आने लगे थे. चाहे सीपीएम हो या सीपीआई, धीरे-धीरे इन लेफ्ट पार्टियों का आधार केंद्र और राज्यों में सिमटने लगा. 16वीं लोकसभा में सीपीआई के पास महज एक सांसद है. सी एन जयदेवन केरल की त्रिसूर लोकसभा सीट से पार्टी के सांसद हैं. राज्यसभा में भी पार्टी का एक ही सांसद है. डी. राजा उच्च सदन में सीपीआई के एकमात्र प्रतिनिधि हैं. ऐसे में साफ है कि चुनावी राजनीति के खेल में सीपीआई का वजूद हाशिए पर पहुंच गया है. क्या पार्टी अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने और अस्तित्व बचाए रखने के लिए कांग्रेस के साथ जुड़ने की कोशिश कर रही है?