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क्या बीजेपी के लिए दलितों के घर खाना खाने की राजनीति उलटी पड़ती जा रही है?

दलितों की रसोई तक पहुंचने की राजनीति कारगर साबित नहीं हो रही है. शायद कुछ और करने की जरूरत है.

Vivek Anand

कुल मिलाकर कहानी ये है कि सामाजिक समरसता जैसे भारीभरकम शब्द के जरिए जितनी भी गोलमोल बातें बना ली जाएं हकीकत ये है कि कोई भी दलितों के घर खाना नहीं चाहता. बीजेपी नेतृत्व ने जिस सोच के साथ दलित के घर एक रात रुकने और उनके यहां खाना खाने के रिवाज की शुरुआत की थी, उनके नेताओं ने इस सोच को पलीता लगा दिया है. दलित के घर खाना खाने की बीजेपी की राजनीति उलटी पड़ती जा रही है.

सोमवार को योगी आदित्यनाथ के कैबिनेट मंत्री सुरेश राणा अलीगढ़ के एक दलित रजनीश कुमार के घर पहुंचे. रात के ग्यारह बजे थे. बेचारे रजनीश को पता भी नहीं था कि मंत्रीजी उसके घर पधारने वाले हैं. आते ही बोले कि हमें आपके घर डिनर करना है. रजनीश कुमार कुछ बोल पाता उसके पहले ही मंत्री जी ने उसकी शंका का निवारण भी कर दिया. बोले कि आपको कुछ नहीं करना है. हम सारा सामान अपने साथ लाए हैं. आपको सिर्फ अपने घर के भीतर रहना है.


इसके बाद दलित के घर भोजन करने का स्वांग यूं पूरा हुआ कि मंत्रीजी के हलवाइयों ने छप्पन पकवान बनाए. झटपट दाल मखनी, मटर पनीर, पुलाव, तंदूरी रोटी और मीठे में गुलाब जामुन तैयार हुए. मिनरल वाटर तक बाहर से मंगाए गए. फिर मंत्रीजी ने अपने चेले चपाटों के साथ छक कर भोजन किया और इस तरह एक दलित के घर में खाना खाकर सामाजिक समरसता की मिसाल बनाने की कहानी पूरी हुई.

अलीगढ़ के लौहगढ़ गांव के रहने वाले रजनीश कुमार अब तक हैरानी में कहते हैं कि उन्हें तो मंत्रीजी के आने की जानकारी तक नहीं थी. वो उन्हें खाना क्या खिलाते मंत्रीजी तो समूची व्यवस्था के साथ पहुंचे थे. इस पर विवाद तो होना ही था. अब मंत्री सुरेश राणा सफाई दे रहे हैं कि उनके साथ करीब 100 लोग गए थे, इसलिए खाना हलवाई के पास से मंगवाया गया.

सुरेश राणा कह रहे हैं कि मैंने उनके ड्राइंग रूम में खाना खाया. भोजन परिवार के सदस्यों के अलावा हलवाई ने भी तैयार किया था. लेकिन उनकी कौन सुने जब रजनीश खुद कह रहे हैं कि मंत्रीजी का कार्यक्रम खुद उनके द्वारा प्रायोजित था. थाली, चम्मच और प्लेट तक मंत्रीजी ने बाहर से मंगवाए थे.

अब इस पर विवाद खड़ा हो गया है. लेकिन विवाद सिर्फ यही नहीं है. दलित के घर खाना खाने की बीजेपी की समूची राजनीति विवादों में है. यूपी के ही एक और मंत्री हैं राजेन्द्र प्रताप. मंगलवार को वो झांसी के एक दलित के घर खाना खाने गए. बाहर आए तो बोलने लगे कि रामायण में जैसे राम और शबरी का संवाद है उन्हें बिल्कुल ठीक वैसा ही प्रतीत हुआ. झांसी के गढ़मऊ गांव में ज्ञान नाम के दलित युवक के घर खाना खाकर बोले, ‘आज जब ज्ञान जी की मां ने मुझे रोटी परोसी तो उन्होंने कहा कि ‘मेरा उद्धार हो गया.’ मंत्रीजी ने कहा कि किसी राजा के यहां भी भोजन किया होता तो शायद उनकी मां ये ना कहा होता. उनकी बात का अर्थ ये निकाला गया कि रामायण के राम और शबरी के प्रसंग को याद करके दरअसल उन्होंने खुद को राम के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की है. बीजेपी नेता का ये बयान भी उलटा ही पड़ा.

पिछले दिनों यूपी बीजेपी अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय भी दलितों के घर खाना खाने के रवायत को पूरा करने निकले थे. फैजाबाद के एक प्राइमरी स्कूल में चौपाल लगाकर व्यवस्था का आयोजन हुआ था. लेकिन बताया गया कि दलित मसले के बजाय वहां इस बात की चर्चा हो रही थी कि इलाके में ठाकुर और ब्राह्मणों के बीच किस तरह समन्वय लाया जाए. योगी आदित्यनाथ की सरकार आने के बाद इलाके के ठाकुरों और ब्राह्मणों के रिश्ते ठीक नहीं चल रहे. यूपी बीजेपी अध्यक्ष ने पूरी चर्चा इस बात पर केंद्रित रखी की इनदोनों समुदायों के बीच की समरसता बनी रहे. अगली सुबह महेंद्र नाथ पांडेय ने एक स्थानीय ठाकुर नेता के घर पधारे. वहीं पूजा अर्चना की. अन्न जल भी वहीं ग्रहण किया. जाते वक्त घर की मालिकन ने ये कहते हुए उनका आभार व्यक्त किया कि वो अपने घर में ब्राह्मण के आने और उनके अन्न जल ग्रहण करने से अनुग्रहित हुईं.

दलित के घर खाना खाने की हर रस्मी घटना विवादों में घिरती जा रही है. सवाल है कि इससे हासिल क्या हो रहा है. जेएनयू के एसोसिएट प्रोफेसर दलित मसलों को करीब से जानने वाले डॉ. गंगा सहाय मीणा कहते हैं कि चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस सभी तथाकथित रूप से सवर्णों की पार्टियां हैं. राहुल गांधी भी दलितों के घर जाकर खाना खाने का स्वांग करते हैं. दलित इन्हें अपनी पार्टियां नहीं मानते हैं. ये लोग बीच-बीच में दिखावा करते हैं कि वो समाज के सभी वर्गों के लोगों को साथ लेकर चलना चाहते हैं. ये वास्तव में एक प्रदर्शन मात्र हैं. इनका दलितों के लिए नजरिया नहीं बदला है.

वो कहते हैं कि दलितों के घर में खाना इस बात का सूचक है कि वो ऊंची जातियों के हैं और इसलिए बराबरी प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहे हैं. ये पूरी कवायद ही इस बात को प्रदर्शित करती है कि वो खुद को ऊंचा मानते हैं. ये लोग मानते हैं कि वो कुछ अलग हैं. गंगा सहाय मीना कहते हैं कि घर जाकर खाना खाने से क्या मिल जाएगा? अगर उनके हितों की चिंता है तो उनके साथ वैसे ही सहज रहना चाहिए. पार्टी में भी दलितों को बड़े पदों पर होना चाहिए. जबकि ऐसा है नहीं. इसलिए बात को दबाने के लिए, ये प्रदर्शित करने के लिए कि हम दलितों के करीब हैं, इस तरह का ढोंग बड़ी पार्टियां करती रही हैं. उससे दलितों को कोई सहानुभूति नहीं है. दलित जानते हैं कि ये लोग तुष्टिकरण के लिए ऐसा करते रहते हैं. इससे कुछ बदलने वाला नहीं है.

गंगा सहाय मीणा कहते हैं कि बाबा साहेब अंबेडकर मानते थे कि अगर जाति व्यवस्था को खत्म करना है तो अंतरजातीय विवाह करने की पहल करनी चाहिए. इनमें से जो लोग दलितों के घर खाना खाते हैं, उनमें से कितनों ने दलितों के घर में शादियां की हैं या फिर अपने बेटियों की शादियां दलितों के घर में की हैं. दूसरी बात ये है कि ये दलितों के अधिकार के लिए कितने मजबूती से खड़े हैं. जिस पार्टी ने दलित एक्ट को कमजोर करने का खतरा मोल लिया वो दलितों के घर में खाना खाने का ढोंग करती है. उन्होंने दलित एक्ट को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की.

दलितों के घर खाना खाने की रवायत पर खुद बीजेपी की केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने भी सवाल उठाए हैं. उन्होंने कहा है कि हम भगवान राम नहीं हैं कि दलितों के साथ भोजन करेंगे, तो वो पवित्र हो जाएंगे. जब दलित हमारे घर आकर साथ बैठकर भोजन करेंगे, तब हम पवित्र हो पाएंगे. मध्यप्रदेश के छतरपुर के नौगांव के ददरी गांव मे पहुंची उमा भारती से कुछ ऐसा ही सवाल पूछा गया था.

उनसे कहा गया था कि वो दलितों के घर में खाना खाने क्यों नहीं पहुंची. इसके जवाब में उन्होंने ये जवाब दिया. फिलहाल 5 तारीख तक बीजेपी का ग्राम स्वराज अभियान चलना है. कुछ मंत्री और नेता दलितों के घर खाना खाने पहुंचेंगे. अभी इस रस्मी मौके की कुछ और खबरें आएंगी. दलितों की रसोई तक पहुंचने की राजनीति कारगर साबित नहीं हो रही है. शायद कुछ और करने की जरूरत है.