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संसद में अपराधी नेताओं पर कार्रवाई से होगा 'स्वच्छ भारत'

स्टडी के मुताबिक एक तिहाई सांसदों के खिलाफ गंभीर अपराधिक मामले चल रहे हैं

Virag Gupta

संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त कराने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की खिंचाई की है. वर्तमान व्यवस्था के अनुसार 2 साल या उससे अधिक की सजा वाले अपराधी व्यक्ति जेल से छूटने के 6 साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते. सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल में यह मांग की गई है, कि 2 साल से अधिक सजा पाने वाले नेताओं को चुनाव लड़ने से आजीवन प्रतिबंधित किया जाए.

एक तिहाई सांसदों के खिलाफ गंभीर अपराधिक मामले चल रहे हैं तो फिर संसद अपने ही सदस्यों के खिलाफ तो कानून बनाए कि नहीं! परंतु सरकार, चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट संसद को अपराधियों से मुक्त कराने में विफल क्यों हो रहे हैं?


सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार की अर्जी क्यों ठुकराई

तीन साल पहले चुनावों के दौरान और प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने घोषणा की थी कि सभी दागी सांसदों का फास्ट ट्रैक ट्रैक करके एक साल के भीतर लोकतंत्र के मंदिर को अपराधियों से मुक्त कराया जाएगा. इस संदर्भ में मोदी सरकार ने प्रस्ताव भी भेजा जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने इस तकनीकी आधार पर अस्वीकृत कर दिया कि संविधान में सभी को बराबरी का दर्जा मिला है, फिर दागी सांसदों हेतु ट्रैक का विशेष ग्रुप कैसे बनाया जा सकता है?

सर्वोच्च न्यायालय ने ‘लिली थॉमस’ और ‘लोक प्रहरी’ मामले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा- 8(4) को असंवैधानिक करार देकर राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ साल 2013 में ऐतिहासिक फैसला दिया था. उसके बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार की मुहिम को खारिज करके चुनाव सुधारों के समन्वित अभियान का मौका क्यों गंवाया?

चुनाव आयोग की विफलता

सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग द्वारा राजनीति को अपराधियों से मुक्त करने की मांग के समर्थन के बावजूद सजायाफ्ता नेताओं को आजीवन प्रतिबंध की मांग पर रुख स्पष्ट नहीं था. जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग की खिंचाई की और उन्हें नया हलफनामा दायर करने का आदेश दे दिया. सरकारी और न्यायिक अधिकारी सजा के बाद अपने पद पर नहीं रह सकते तो फिर जेल से छूटने के 6 साल बाद कोई अपराधी चुनाव लड़कर सांसद कैसे बन सकता है. फिर इस बारे में चुनाव आयोग ने सरकार को स्पष्ट अनुशंसा और कानूनी सुधार का प्रस्ताव क्यों नहीं भेजा?

अपराधियों के विरुद्ध सरकार ने क्यों नहीं बनाया कानून

देर रात नोटबंदी और आधी रात जीएसटी के लिए संसद में बैठक करने वाली पूर्ण बहुमत की सरकार अपराधियों के विरुद्ध कानून बनाने में क्यों विफल रही है? विधि आयोग द्वारा 244 वीं और 255 वीं रिपोर्टों में चुनाव सुधार हेतु कानूनों में बदलाव का मसौदा सरकार के ठण्डे बस्ते में क्यों पड़ा है? राजनीति को अपराधियों से मुक्ति, वोटरों को घूसखोरी, पेड न्यूज और चुनावों के 48 घंटे पहले प्रचार को संज्ञेय अपराध हेतु चुनाव आयोग द्वारा की गई विस्तृत अनुशंसा के बावजूद सरकार इन पर कानून बनाने में क्यों विफल रही है? दागी सांसदों के फास्ट ट्रैक ट्रायल का मामला भी सरकार के अधूरे प्रयासों की वजह से सफल नहीं हो सका.

सत्तारूढ़ बीजेपी यदि अपने दागी सांसदों-विधायकों की सहमति के हलफनामों के साथ सर्वोच्च न्यायालय के पास फास्ट ट्रैक ट्रायल का प्रस्ताव भेजती तो यह संभव क्यों नहीं होता? मध्य प्रदेश के मंत्री पेड न्यूज मामले में चुनाव आयोग द्वारा दोषी और अयोग्य करार दिए गए हैं, जिसके बावजूद वे पद छोड़ने के लिए राजी नहीं हैं. सत्तारूढ़ दल के मंत्री ही यदि चुनाव आयोग के आदेशों का सम्मान नहीं करेंगे तो फिर नए कानून बनने से राजनीति का अपराधीकरण कैसे रुकेगा?

अपराधिक सांसदों से जनता के संवैधानिक हक का हनन

सभी पार्टियों के नेता कानून और अदालत के सम्मान का दावा खोखला है जो इस बात से स्पष्ट है कि संसद और विधानसभा में अपराधी सदस्यों की संख्या जस की तस है. रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान लोकसभा में 186 सांसद और केंद्रीय मंत्रिमण्डल में 24 मंत्रियों के खिलाफ अपराधिक मामले चल रहे हैं.

हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश के चुनावों में जीते 36 फीसदी विधायक अपराधिक पृष्ठभूमि में हैं और यह हाल कमोवेश देश के अधिकांश राज्यों में है. अधिकांश उम्मीदवार क्षेत्र की पूरी आबादी में से सिर्फ 15-25 फीसदी वोट लेकर जीत जाते हैं परंतु सांसद बनने के बाद वे पूरे इलाके और पूरी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं.

अपराधी और सजायाफ्ता लोग सरकार में चपरासी भी नहीं बन सकते तो फिर उन्हें जनता का प्रतिनिधि बनकर विधानसभा और संसद में बैठने का अधिकार क्यों हो? संसद को अपराधियों से मुक्त करने का समन्वित अभियान चुनाव आयोग, सरकार और अदालतों को चलाना ही होगा तभी सही मायनों में ‘स्वच्छ भारत’ बनेगा.