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सुप्रीम कोर्ट में 'विद्रोह' के एक महीने बाद, न कुछ बदला...न बदलेगा

12 जनवरी 2018 वो खास दिन था जब देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी

BV Rao

हर बड़े लम्हे की ये खास बात होती है कि हम जब उसको जी रहे होते हैं, तो यूं लगता है कि ये पल सबसे खास है. ऐतिहासिक है. लेकिन वो दौर जब बीत जाता है, तो कई बार लगता है कि हमारी सोच गलत थी.

12 जनवरी 2018 की तारीख ऐसी ही थी. ये भारत के सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में एकदम अलग ही दिन था. सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में ये वो दिन था, जब सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर जजों ने पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपनी शिकायत मीडिया के सामने रखी थी. उन्हें शिकायत किसी और से नहीं बल्कि मुख्य न्यायधीश से ही थी. इस खबर ने न्याय व्यवस्था में आम जनता के भरोसे को जबरदस्त झटका दिया था.


जनता जिसका भारत की कानून व्यवस्था पर अटूट विश्वास है, उसे लगा कि क्या हमारी न्याय व्यवस्था भी भ्रष्टाचार की गंदगी में लिप्त है. हर आदमी तरह-तरह के सवाल कर रहा था. उस समय मी लॉर्ड्स की प्रेस कांफ्रेंस के बाद ऐसा लगा कि ये जलजला देश को बदल देगा. लेकिन सोमवार को उस ऐतिहासिक दिन के एक महीने पूरे हो गए. एक महीने बाद उस लम्हे पर फिर से गौर करें, तो दिखता है कि कुछ भी नहीं बदला. देश उसी तरह से चल रहा है. बदला कुछ भी नहीं.

सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे सीनियर जजों की शिकायत कोर्ट के रोस्टर को लेकर थी. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा से उन्हें खास शिकायत थी. इन जजों का कहना था कि सीनियर होने के बावजूद उन्हें बड़े केस की सुनवाई का मौका नहीं दिया जाता. इस हंगामे के बाद रोस्टर सार्वजनिक करने की बात कह दी गई. इसी के साथ ये मामला ठंडा पड़ गया. मीडिया भी पद्मावत, शूर्पनखा और राष्ट्रीय स्वयं सैनिकों की खबरें दिखाने में मसरूफ हो गया.

सुप्रीम कोर्ट के जजों की ये प्रेस कॉन्फ्रेंस भारत के इतिहास में पहली बार हुई थी. लेकिन इसका नतीजा क्या रहा ? लोगों ने बहुत से सुझाव दिए. इनमें चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग जैसे बेतुके सुझाव भी आए. मगर हुआ कुछ नहीं. जजों की बगावत के बाद ठोस नतीजा कुछ भी नहीं निकला. सिवाय इसके कि रोस्टर सार्वजनिक करने की बात कह दी गई. क्या इतने भर से ही बागी हुए जजों को शांति मिल गई ? क्या उनका विद्रोह सिर्फ एक रोस्टर को सार्वजनिक कराने के लिए था ?

सवाल उठता है कि इतने बड़े कदम के बावजूद कुछ भी बदला क्यों नहीं ? या यूं कहें कि जब कुछ बदलना था ही नहीं, तो फिर इतना हंगामा क्यों हुआ ? हकीकत तो ये है कि कुछ बदलाव होना ही नहीं था. यूं लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर जजों की बगावत का मकसद सिर्फ उनके इगो पर मरहम लगाने के लिए था. अफसोस की बात ये है कि आखिरी बात ज्यादा सही लगती है.

इन चार जजों ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि देश जानना चाहता है कि आखिर सर्वोच्च न्यायाल में क्या हो रहा है. सारे हालात देश के सामने लाए जाएं और फिर देश खुद तय करे कि हालात से कैसे निपटना है. इसका मतलब ये हुआ कि ये जज दबे-ढंके शब्दों में बता रहे थे कि देश की न्याय व्यवस्था में जो गड़बड़ है उसे आम लोगों का जानना जरूरी है. अगर वो मकसद हल ही नहीं हुआ, तो प्रेस कॉन्फ्रेंस करने का मकसद ही खत्म हो गया.

जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस रंजन गोगई और जस्टिस कुरियन जोसेफ की प्रेस कॉन्फ्रेंस अर्नब गोस्वामी की टीवी पर लगने वाली अदालत जैसी लगती थी. देश को जानना चाहिए. देश तय करे. देश का अधिकार है. जबकि बेहद तजुर्बेकार इन माननीय जजों को पता था कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के झगड़े में देश महज दर्शक है. वो और क्या कर सकता है, खास तौर से उस सुप्रीम कोर्ट के मामले में जो किसी और को अपने अंदरूनी मसलों में ताक-झांक तक का हक नहीं देता.

ऐसे में जब इन 4 जजों ने प्रेस कांफ्रेंस की, तो यूं लगा कि ये कोई बहुत बड़ा राज देश के सामने रखेंगे. अफसोस की बात ये है कि ऐसा कुछ नहीं था.

इन जजों की शिकायत ये थी कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा निरंकुश तानाशाह की तरह काम कर रहे हैं. वो खुद को सबसे ऊपर समझते हैं. ये एक गंभीर आरोप था. इनका कहना था कि भारत की न्यायिक परंपरा में सुप्रीम कोर्ट के सभी जज बराबर हैं. चीफ जस्टिस को कोई स्पेशल स्टेटस नहीं हासिल है. चीफ जस्टिस संवैधानिक परंपरा के हिसाब से महज 'फर्स्ट एमंग इक्वल्स' यानी बराबरी के लोगों में पहले नंबर पर हैं. वो बाकी जजों से एक पायदान ऊपर नहीं हैं. भारत के मुख्य न्यायाधीश का सिर्फ एक पद है. कोर्ट के दीगर 25 जजों की तरह ही चीफ जस्टिस हैं. वो विशिष्ट नहीं हैं.

ये सामान्य ज्ञान और सोच की बात है कि किसी भी संस्था में कोई एक प्रमुख होता है. उसके कुछ अधिकार होते हैं. कुछ जिम्मेदारियां होती हैं. उसकी जवाबदेही तय होती है. इसीलिए उसके पास ज्यादा फैसले लेने की ताकत होती है. इन चार जजों की कहना था कि मुख्य न्यायाधीश महज जजों के रोस्टर के इंचार्ज हैं. वो इकतरफा फैसले लेने के अधिकारी नहीं हैं.

सवाल ये है कि अगर सुप्रीम कोर्ट के सभी जज बराबर हैं, तो रोस्टर बनाने का अधिकार किसी और सीनियर जज के पास क्यों नहीं है ? हरेक संस्था में सभी काम करने वालों का मकसद एक होता है. उस मकसद को हासिल करने के लिए सब मिलकर काम करते हैं. लेकिन इसके बावजूद टीम में एक शख्स ऐसा होता है जो टीम के हरेक मेम्बर को उसकी क्षमता के अनुसार उसे काम देता है. अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए कुछ फैसले लेने की हरेक को आजादी होती है. लेकिन बड़े फैसले टीम लीडर ही लेता है.

विराट कोहली टीम इंडिया के दूसरे खिलाड़ियों की तरह है. लेकिन फिर भी उन्हें टीम का कैप्टन कहा जाता है. क्योंकि सिस्टम ने उनकी खूबियों और काबिलियत को देखते हुए उन्हें टीम का कैप्टन बनाया है. मैदान में कौन खिलाड़ी पहले उतरेगा, कौन कब बॉलिंग करेगा, फील्ड में कौन कहां खड़ा होगा ये फैसला सिर्फ कप्तान ही ले सकता है. खिलाड़ियों को ग्रेड के मुताबिक पैसे जरूर मिलते हैं. मगर ग्रेड से उनके अधिकार नहीं तय होते. मसलन, टीम इंडिया में विराट कोहली जैसे कई खिलाड़ी ग्रेड ए के होंगे. उन्हें पैसे भी कोहली के बराबर मिलते हैं. मगर कप्तान कोहली हैं. मैदान में उनकी ही चलती है. अगर सभी खिलाड़ियों को अपनी मर्जी की करने को मिल गई. तो फिर टीम के अगुवा या कप्तान होने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा.

इसी तरह राज्यों में डीजीपी स्तर के कई आईपीएस हैं. लेकिन डीजीपी तो एक ही होता है. डीजीपी ग्रेड के अनुसार दूसरे अफसरों को पैसे और सुविधाएं तो मिलती हैं. मगर फैसले लेने का हक सिर्फ डीजीपी के पास होता है. डीजीपी जेल या होमगार्ड सिर्फ खुद को खुश रखने को डीजीपी मानते रहें.

चार बागी जजों का कहना था कि चीफ जस्टिस, बराबरी के जजों में अव्वल भर हैं. उनका कोई विशेषाधिकार नहीं. लेकिन ये थ्योरी संवैधानिक परंपरा की है. परंपराएं संविधान के हिसाब से ही चलती हैं. उनका संवैधानिक और कानूनी पहलू होना जरूरी है. चलिए देखते हैं कि आखिर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को लेकर संविधान में क्या लिखा है.

भारत के संविधान में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ताकतों का साफ तौर पर जिक्र है. संविधान की धारा 124 से 147 तक जहां भी सुप्रीम कोर्ट का जिक्र है, वहां चीफ जस्टिस को बाकी जजों से अलग दर्जा दिया गया है.

संविधान के भाग चार की शुरुआत में ही लिखा है, 'भारत का एक सुप्रीम कोर्ट होगा, जिसमें राष्ट्रपति एक चीफ जस्टिस नियुक्त करेंगे. और उसमें 7 और जज होंगे. संविधान संशोधन करके ये संख्या घटाई या बढ़ाई जा सकती है' (धारा 124 (1))

यानी संविधान में ही चीफ जस्टिस और कोर्ट के दूसरे जजों की शक्तियों और जिम्मेदारियों के अंतर को साफ तौर पर बयान कर दिया गया है. इसमें साफ लिखा है कि मुख्य न्यायाधीश की स्थिति अपने साथ काम करने वाले दूसरों से जजों से ऊपर है.

संविधान की धारा 124 (2) में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया का जिक्र है. इसके मुताबिक, 'भारत के राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों से मशविरा करके हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त करेंगे. राष्ट्रपति जब जरूरी समझेंगे तब वो बाकी जजों से मशविरा करेंगे. लेकिन राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति के लिए चीफ जस्टिस से जरूर सलाह लेंगे'.

संविधान का संदेश साफ है. राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति में बाकी जजों से चाहे तो सलाह ले, न चाहे तो मशविरा न करे. लेकिन उसे जजों की नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश से सलाह-मशविरा करना ही होगा.

अगर चीफ जस्टिस बराबरी के लोगों मे महज अव्वल हैं, तो फिर उनके पास ये विशेष अधिकार क्यों है ? क्यों राष्ट्रपति को उनसे सलाह लेना जरूरी बताया गया है. अगर सभी जज बराबर हैं तो राष्ट्रपति किसी भी जज से सलाह ले सकते हैं. सिर्फ चीफ जस्टिस से ही नहीं. लेकिन संविधान ने चीफ जस्टिस को साफ तौर पर अलग दर्जे में रखा है.

इसी तरह संविधान की धारा 128 से भी चीफ जस्टिस बाकी जजों से एक पायदान ऊपर रखे गए नजर आते हैं. चीफ जस्टिस, जरूरत पड़ने पर किसी भी योग्य व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट में जज के तौर पर बैठ कर काम करने का अधिकार दे सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट दिल्ली से काम करता है. लेकिन संविधान के आर्टिकल 130 में लिखा है कि चीफ जस्टिस इस अदालत को देश के किसी और हिस्से में भी लगाने का आदेश दे सकते हैं.

संविधान की धारा 146 (1) के मुताबिक भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास ये अधिकार है कि वो देश के किसी भी योग्य अधिकारी या जज को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त कर सकते हैं. काम निपटाने के लिए चीफ जस्टिस किसी भी ऐसे शख्स की मदद ले सकते हैं, जो जज बनने के तमाम तकाजे पूरे करता हो. ये तकाजा कोई कम सीनियर जज भी पूरा कर सकता है. या किसी रिटायर्ड जज की सेवा भी ली जा सकती है. उसके फ़ैसलों की वही मान्यता होगी जो किसी और जज के फैसले की होगी. सुप्रीम कोर्ट के दीगर ऑफिसर की नियुक्तियों का अधिकार भी चीफ जस्टिस के पास ही होता है ना कि किसी सीनियर जज के पास.

संविधान में ऐसी कई मिसालें मिल जाएंगी, जो चीफ जस्टिस के विशेषाधिकारों और शक्तियों को बताती हैं. आर्टिकल 126 में कहा गया है कि अगर किसी वजह से मुख्य न्यायाधीश अपनी जिम्मेदारियां निभाने की स्थिति में नहीं है या वो गैरहाजिर है तो भी फैसले लेने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जजों को नहीं दिया गया है. ऐसी स्थिति में सिर्फ राष्ट्रपति ही फैसला ले सकता है कि ये काम सुप्रीम कोर्ट के किस जज को सौंपा जाए.

मुख्य न्यायाधीश की गैरहाजिरी में उसके अधिकार किसी सीनियर जज को नहीं मिल सकते. इसी तरह अगर देश का राष्ट्रपति या उप-राष्ट्रपति का पद खाली है या वो किसी वजह से अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभा पा रहे हैं तो ऐसी स्थिति में उनके पद की जिम्मेदारियां सिर्फ मुख्य न्यायाधीश निभा सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट के किसी और सीनियर जज के पास ये अधिकार नहीं होता.

ऐसे में प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले चारों जजों का ये तर्क फेल हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के सभी बराबर हैं और चीफ जस्टिस बराबरी के लोगों में अव्वल भर हैं. ये बात उन्हें समझनी होगी कि चीफ जस्टिस ग्रेड में भले बराबर हों. मगर संवैधानिक रूप से उनका ओहदा एक पायदान ऊपर का है. उनके अधिकार बाकी सीनियर जजों से ज्यादा हैं. कुल मिलाकर मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के बॉस हैं.

अगर सुप्रीम कोर्ट के सभी 25 जज बराबर ही होते, तो फिर कॉलेजियम में सिर्फ चार सबसे सीनियर जजों को ही क्यों शामिल किया जाता ? अगर प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले ये चारों जज खुद को चीफ जस्टिस के बराबर ही मानते हैं, तो आवाज क्यों नहीं उठाते कि हाल ही में जो जज नियुक्त हुए हैं, उन्हें भी कॉलेजियम का हिस्सा बनाया जाए.

इन जजों की शिकायत है कि सीनियर होने के नाते बड़े केस सुनने का मौका उन्हें ही मिलना चाहिए. अगर सभी जज बराबर हैं तो चीफ जस्टिस जिसे जो चाहे केस दें, इन्हें शिकायत नहीं होनी चाहिए. लेकिन वो ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि ऐसे में इनके अपने हित नहीं सधेंगे.

'फर्स्ट एमंग इक्वल' का कॉन्सेप्ट अच्छा है. सुप्रीम कोर्ट का कोई भी जज बने उसकी काबिलियत में कोई कमी नहीं होनी चाहिए. लेकिन बराबरी के लोगों में अव्वल का विचार, संवैधानिक नहीं है. ये एक परंपरा भर है. चार सीनियर जजों का ये तर्क संवैधानिक नहीं है कि चीफ जस्टिस के पास कोई विशेषाधिकार नहीं हैं. किसी भी परंपरा की बुनियाद कानून होता है. बुनियाद पर ही परंपरा की इमारत तामीर होती है.

चार जजों का ये कहना कि चीफ जस्टिस का ऊंचा दर्जा महज एक परंपरा है, कोई विशेषाधिकार नहीं. साफ है कि इन चारों जजों ने जो तर्क अपने हक में दिए हैं वो परंपरा के हवाले से दिए हैं. परंपरा का कोई कानूनी पहलू नहीं है, तो वो परंपरा वाजिब नहीं ठहराई जा सकती. कानून और संविधान सर्वोपरि हैं.

कानूनी और संवैधानिक नजरिए से देखें तो चीफ जस्टिस बाकी जजों से एक पायदान ऊपर हैं. जबकि प्रधानमंत्री के बारे में संविधान इतना खुलकर नहीं कहता. संविधान की धारा 74 (1) के मुताबिक, 'राष्ट्रपति की सलाह के लिए एक कैबिनेट होगी. इसका प्रमुख प्रधानमंत्री होगा'.

बहरहाल 12 जनवरी की प्रेस कॉन्फ्रेंस चाहे जितनी नाटकीय रही हो उससे सुप्रीम कोर्ट के कामकाज में कोई बड़ा बदलाव नहीं होने वाला है. ये बात शायद प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले भी जानते थे. तभी तो वो भी 12 जनवरी के बाद से खामोश हैं. लेकिन 12 जनवरी को जो प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई वो एक बड़ी त्रासदी थी. उसके लिए जस्टिस मिश्रा किसी भी तरह जिम्मेदार नहीं हैं.

असल में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह पिछले तीस सालों से अपने काम की पर्देदारी की है. खुद को जवाबदेही से बचाया है, उससे ये हालात पैदा हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने परंपराओं का हवाला देकर खुद को देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे ऊपर रखने का काम किया है. पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी ने जजों को अहंकारी बना दिया है. ये बात इस शिकायत से ज्यादा गंभीर है कि कौन सा जज किस केस की सुनवाई करे. मगर वो बात फिर कभी.