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जम्मू-कश्मीर में निकाय चुनाव ने राज्य की राजनीति को पटरी पर लाने का एक मौका दिया

कश्मीर के घावों को भरने की राजनीति के लिए इस क्षेत्र के लोगों को खुद के साथ और भारत के साथ अपने संबंधों को आगे ले जाने के लिए नए तरीकों को अवश्य आजमाना चाहिए.

Praveen Swami

उनका सिगरेट-लाइटर देख कर लगता है मानो कोई चीनी प्रोडक्ट है, जिसे सोना चढ़ा लुक दिया गया है. दर्जनों कल्पनातीत रंगों की रोशनी फेंकने वाले इस लाइटर को जलाते ही कोई पुरानी फिल्मी धुन बजने लगती है. पुलिस कॉन्स्टेबल से जिहादी बनने के बाद भारत समर्थक संगठन के कमांडर और अब संभावित संसद सदस्य जावेद शाह लाइटर को आदतन हल्के से नचाते हैं. उनके दूसरे हाथ में तसबीह (धार्मिक माला) है. शरीर पर दुबई के मॉल के ब्रांड सजे हैं. यह शाह का अपना अंदाज है.

वह 1996 का वक्त था और रक्तरंजित नौ सालों के बाद जम्मू-कश्मीर में लोकसभा चुनाव हो रहे थे. हिंसा अपने चरम पर थी. कश्मीर में पिछले साल 967 नागरिक, 785 आतंकवादी और 164 सुरक्षाबल जवानों को मार दिया गया था. हालात आज के मुकाबले कहीं ज्यादा खराब थे. जम्मू-कश्मीर की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था.


बीते सोमवार को कर्फ्यू के चलते सूनी पड़ी सड़कों और खाली मतदान केंद्रों के बीच कश्मीर की नगर पालिकाओं और नगर परिषदों के लिए वोट डाले गए. यह एक बदनुमा अक्स है जो दर्शाता है कि एक दशक से भी ज्यादा समय के लोकतंत्र में कश्मीर ने क्या हासिल किया है?

लेकिन यह चुनाव कश्मीर में नई दिल्ली के लंबे खेल का हिस्सा हैं और इसके फलदायी नतीजे हो सकते हैं. अगर वह खेल कामयाब रहता है, तो इसे कश्मीर की खंडित राजनीति के पुनर्निर्माण के मोड़ के रूप में याद किया जाएगा.

1996 में बहुत कम लोगों को लगता था कि चुनाव से कुछ हासिल होगा. कुछ जगहों पर, सुरक्षा बलों को जिहादी हिंसा के डर को मात देने के लिए भयभीत मतदाताओं को धकिया कर कर मतदान केंद्रों तक लाना पड़ा था. हालांकि, खासकर अनंतनाग और सोपोर जैसे कुछ क्षेत्रों में मतदान कम हुआ था, जहां बहुत ज्यादा दबाव डालने का आरोप लगाया गया था. इसके उलट, दूसरे इलाकों में जहां सरकार की तरफ से दबाव डालने के संकेत नहीं थे, वहां मतदान प्रतिशत ऊंचा था.

प्रतीकात्मक तस्वीर

राजनेता संकेतों को सही ढंग से पकड़ने में माहिर होते हैं. वर्षों के प्रत्यक्ष केंद्रीय शासन के बाद, जम्मू-कश्मीर की जनता का एक बड़ा हिस्सा अपनी रोजमर्रा की चिंताओं के प्रति संवेदनशील राजनीतिक व्यवस्था चाहता था. उस वर्ष बाद में हुए, जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव में फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने सरकार बनाई. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपनी लड़ी सीटों पर 37.98 प्रतिशत वोट हासिल किए और 81 में से 57 सीटें जीतीं.

नई दिल्ली ने तत्काल अपने कठोर आतंकविरोधी अभियान की जावेद शाह जैसी निशानियों से किनारा कर लिया और पुराने राजनीतिक प्रतिष्ठान का समर्थन किया. पूर्व खुफिया अधिकारी अमरजीत दुलत 1999 से राजनीतिक व्यवस्था को बहाल करने में जुटे हुए थे. उनकी सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की पैदाइश थी. विपक्षी मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का एक नया अवतार, जिसमें एक समय अब्दुल गनी लोन और जमात-ए-इस्लामी जैसे अलगाववादी भी शामिल थे. रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) की मदद से, पीडीपी खासकर जेहादी निर्वाचन क्षेत्रों में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरी.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने यासीन मलिक और सज्जाद लोन जैसे अलगाववादी नेताओं के साथ गुप्त बैठकों की श्रृंखला भी आयोजित की. उनका मकसद उस खाली राजनीतिक जगह को भरना था जहां वो 1987 तक खुद थे. अलगाववादियों को वापस खींच लाने की उम्मीद में, इन कोशिशों के साथ तालमेल बिठाते हुए, राजनयिक सतिंदर लांबा और तारिक अजीज कश्मीर पर फाइनल डील के मकसद से एक गुप्त बातचीत में भी शामिल थे.

अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारूक ने अप्रैल 2007 में कहा था, 'मुझे लगता है कि एजेंडा काफी ज्यादा हद तक तय हो चुका है.' उन्होंने कहा था, “यह सितंबर 2007 है, भारत और पाकिस्तान कश्मीर पर कुछ घोषणा करने की तैयारी में हैं.'

जम्मू-कश्मीर वहां वापस आ गया था, जहां 1987 में था. नई दिल्ली को उम्मीद थी नई व्यवस्था 1988-1989 के दौर से पहले की राज्य की मुख्यधारा की राजनीति का पुनर्निर्माण करने और कायम रखने में सक्षम होगी.

कश्मीर के राजनीतिक पटल में उभरे कई नेता पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती से लेकर सज्जाद लोन या मीरवाइज तक राजनीति में इसलिए थे, क्योंकि ये लोग 1987 से पूर्व की नामी हस्तियों की संतानें थे. वक्त गुजरने के साथ इनमें से कुछ ने एक स्वतंत्र राजनीतिक पहचान या समर्थक बनाए.

यह देखना महत्वपूर्ण है कि राजनीतिक नेतृत्व ने सरकारी ठेकों और नौकरियों को अपने वफादार लोगों को सौंपने से परे शायद ही कुछ करने की दक्षता का प्रदर्शन किया. हिंसा और निराशा के बीच बड़े हुए युवाओं को 1987 से पूर्व की इस राजनीति ने कुछ नहीं दिया.

भारत के कई हिस्सों के लोगों की तरह कश्मीर के युवाओं ने पाया कि लोकतंत्र का मतलब उद्यमिता के लिए आवश्यक नेटवर्क तक पहुंच नहीं था; शिक्षा पर परिवार की आमदनी का बड़ा हिस्सा खर्च करने के बावजूद जिस उम्र में उनके माता-पिता ने परिवार बसा लिया था, उस उम्र में उनके लिए आय की गारंटी नहीं थी.

2006 से, इस्लामी नेताओं की एक नई पीढ़ी गुस्से की फसल काटने में कामयाब रहे. इन नेताओं में मसरत आलम भट्ट, उनकी सहयोगी आसिया अंदराबी और उनके जेल में कैद सरपरस्त आशिक हुसैन फकतू जैसे लोग शामिल थे. नए इस्लामी चरमपंथियों ने राजनीतिक व्यवस्था को एक घातक कारक के रूप में पेश किया, ऐसी हिंदू-अंधराष्ट्रवादी इकाई जो कश्मीर की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने के लिए कृतसंकल्प थी. इसकी जगह, उन्होंने इस्लाम की बुनियाद पर चलने वाली एक जन्नत का वादा किया.

जिहादी नेता बुरहान वानी की हत्या के बाद गुस्से से उबलते लोगों ने व्यापक संपर्कों वाले कारोबारी खुर्रम मीर के घर और कारों के साथ उनके एक अत्याधुनिक सेब बागान को जला दिया. ये निशाने हमें उन सामाजिक तनावों के बारे में बताते हैं, जो कश्मीर के युवाओं में गुस्सा बनकर फूट रहा है.

अपनी धार्मिक पहचान को तेवर देने के लिए नए इस्लामी कट्टरपंथियों ने राजनीतिक सत्ता की निगरानी में इस गुस्से को आवाज दी.

साल 2008 में, सरकार द्वारा अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि-उपयोग के अधिकार दिए जाने के बाद तनाव ने विस्फोट रूप ले लिया. यह एक ऐसा संकट था जिसने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी कांग्रेस सरकार का गठबंधन तोड़ दिया, और साथ ही तोड़ दिया एक व्यवस्थित राजनीतिक व्यवस्था के पुनर्निर्माण के प्रयास की उम्मीदों को. तब से हिंसा जारी रही है, और नेशनल कॉन्फ्रेंस व पीडीपी इस पर काबू पाने में नाकाम रहे हैं.

कश्मीर के घावों को भरने की राजनीति के लिए इस क्षेत्र के लोगों को खुद के साथ और भारत के साथ अपने संबंधों को आगे ले जाने के लिए नए तरीकों को अवश्य आजमाना चाहिए. हालांकि, इसके लिए एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जिसने नागरिकों के जिंदगी में बदलाव लाकर उनके बीच वैधता हासिल की हो. सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया से उभरने वाले गांव और शहरों के स्तर के राजनेता इस नई राजनीतिक व्यवस्था के लिए उचित माध्यम हो सकते हैं.