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चीन का आतंकः 1962 जैसे युद्ध से तो नहीं लेकिन मानसिक दबाव से निपटना होगा

चीन इस मानसिक युद्ध में भारत पर हावी होने की कोशिश कर रहा है.

Sreemoy Talukdar

जैसा कि इस कॉलम में हाल में तर्क दिया गया था, अरुणाचल प्रदेश की छह जगहों के नए नाम रखने का चीन का कदम बच्चों वाली हरकत जैसा लगता है.

इसके बावजूद चीन की इस करतूत पर भारत आंखें बंद करके बैठा नहीं रह सकता है.


चीन के नाम बदलने को बचकानी हरकत समझने की गलती नहीं करनी चाहिए और भारत को इसका विरोध करना चाहिए. चीन के इस कदम को हल्के में नहीं लिया जा सकता है. इस कदम के पीछे एक सोची-समझी योजना है.

यह 14वें दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा को भारत के मंजूरी देने की प्रतिक्रिया मात्र नहीं है. हम यह सोचकर पूरी तरह से गलती कर रहे हैं कि अगर दलाई लामा ने पूर्वोत्तर के इस राज्य का दौरा नहीं किया होता तो शायद चीन इस तरह का कदम नहीं उठाता.

1950 में तिब्बत पर चीन के हमले ने सबकुछ बदल दिया

इतिहास पर अगर नजर डालें तो यह भ्रम टूट जाता है. अरुणाचल प्रदेश को चीन ‘साउथ तिब्बत’ कहता है. अरुणाचल प्रदेश पर चीन की पोजिशन 1914 से लगातार बदलती रही है. 1914 में ब्रिटिश इंडिया (ग्रेट ब्रिटेन के अंग के तौर पर), तिब्बत और चीन के बीच में त्रिपक्षीय समझौता हुआ था जिसमें मैकमोहन लाइन की वैधता को कायम रखा गया था. यहां तक कि भारत की अपनी स्वतंत्रता के वक्त तक चीन के साथ कोई साझा सीमा नहीं थी. लेकिन, 1950 में चीनी सेना के तिब्बत पर हमला करने के साथ हालात पूरी तरह से बदल गए.

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चार साल बाद, जवाहरलाल नेहरू ने चीन के तिब्बत पर कब्जे को वैधता दे दी. उन्होंने 'एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड इंटरकोर्स बिटविन तिब्बत रीजन ऑफ चाइना एंड इंडिया' पर दस्तखत कर इस कब्जे को स्वीकार कर लिया. इस समझौते को ही पंचशील समझौता कहा जाता है.

दलाई लामा के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु.

इतिहासकार और तिब्बतोलॉजिस्ट क्लाउड अर्पी 'तिब्बत-द लॉस्ट फ्रंटियर' में लिखते हैं, यह एक ऐतिहासिक भारी गलती थी जिसमें तिब्बतियों की इच्छाओं को नकार दिया गया, इससे शिमला कॉन्फ्रेंस के जरिए इंडिया को मिला रणनीतिक फायदा खत्म हो गया और चीन के विस्तारवाद को वैधता मिल गई. इस खराब समझौते में भारत ने नेहरू के शांतिपूर्ण दर्शन का पालन किया, जबकि चीन ने निजी हितों पर फोकस किया.

उन्होंने लिखा है, ‘बीजिंग को वह मिल गया जो वह चाहता थाः समझौते में डेमचोक पास को छोड़ दिया गया, (इससे अक्साई चिन का दरवाजा खुल गया), तिब्बत से अंतिम भारतीय जवानों को हटा दिया गया, भारतीय टेलीग्राफिक लाइंस और गेस्ट हाउसों को सरेंडर कर दिया गया, लेकिन इस सबसे बढ़कर चीन के तिब्बत पर कब्जे पर भारतीय मुहर लगा दी गई.’

पंचशील समझौते ने बदली भविष्य की दिशा

पंचशील एग्रीमेंट इतिहास में भारत-चीन संबंधों का मुख्य फैक्टर रहा है. अगले कुछ सालों तक चीन की सेना की मौजूदगी के बढ़ने से परेशान रहा क्योंकि पीएलए ने मैकमोहन लाइन को खारिज करने पर जोर दिया और लगातार सीमा के पार भारतीय इलाकों में घुसपैठ जारी रखी ताकि यह साबित किया जा सके कि यह एक पुख्ता वैध सीमा नहीं है बल्कि यह सीमा एक लचीली और सौदेबाजी योग्य है.

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अपनी किताब 'चॉइसेज' में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) और चीन में राजदूत रहे शिवशंकर मेनन लिखते हैं कि जब नेहरू ने इस मसले को चीनी राष्ट्रपति जाऊ एनलाई के सामने उठाया तो उन्हें भरोसा दिया गया कि ‘चीन का भारतीय इलाकों पर कोई दावा नहीं है’. इसके बावजूद पांच साल बाद 1959 में हम देखते हैं कि चीन ने पहली बार लिखित तौर पर मैकमोहन लाइन को ‘विवादित’ माना और कहा कि पूरी भारत-चीन सीमा पर फिर से बातचीत होनी चाहिए.

चीन ने एक सॉल्यूशन दिया. मेनन अपनी किताब में लिखते हैं कि 1960 में जाऊ एनलाई ने पूर्व में (इसमें पूरा अरुणाचल भी आता है) मैकमोहन को सीमा स्वीकार करने की पेशकश की थी, मगर इसमें शर्त यह थी कि वह ऐसा तभी करेगा अगर भारत अक्साई चिन पर यथास्थिति बरकरार रखने के लिए राजी हो जाए. अक्साई चिन को भारत जम्मू एंड कश्मीर का वैध हिस्सा मानता है.

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पीठ पीछे तैयारियां करता रहा चीन

हम जहां हिंदी-चीनी भाई-भाई के ऐसे सपनों में खोए हुए थे जिससे दुनिया बदलने वाली थी, वहीं चीन आक्रामक तरीके से इंडो-तिब्बत सीमा पर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर रहा था और अक्साई चिन में सड़कें बना रहा था.

1962 के युद्ध के बाद, भारत-चीन सीमा निपटारे के मसले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया क्योंकि भारत अपने जख्मों पर मरहम लगाने में व्यस्त हो गया और चीन तिब्बत में विद्रोह को दबाने में जुट गया.

मेनन लिखते हैं कि 1985 तक चीन ने अपने इरादे साफ नहीं किए. इन 23 सालों में चीन ने इंफ्रास्ट्रक्चर का एक जबरदस्त नेटवर्क तैयार कर लिया. 1988 में राजीव गांधी के दौरे से पहले चीन ने मांग की कि सीमा मसले के जल्द निपटारे के लिए भारत तवांग को उसके हवाले करे. इस बात के संकेत दिए गए थे कि अक्साई चिन इस स्वॉप डील का हिस्सा हो सकता है. इसमें चीन की पोजिशन में बदलाव पर गौर किया जा सकता है.

बाद के सालों में चीन की पोजिशन सख्त होती चली गई. चीन इस हद तक सख्त हुआ कि न केवल अक्साई चिन डील से वह पीछे हट गया, बल्कि 4,056 किमी की सीमा रेखा से लगी हुई रेड लाइंस पर भी प्रेशर बढ़ गया, जबकि 1993 में एक बॉर्डर पीस एंड ट्रैन्क्वालिटी एग्रीमेंट दोनों देशों में हो गया था.

चीन के लिए हथियार है मैकमोहन लाइन

शी जिनपिंग की विजिट के दौरान पीएलए की घुसपैठ से यह साफ होता है कि भले ही नरेंद्र मोदी उनके लिए रेड कार्पेट बिछा रहे थे, लेकिन चीनी राष्ट्रपति का मकसद यह साबित करना था कि भारत कभी भी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को हल्के में नहीं ले सकता और बीजिंग हमेशा मैकमोहन लाइन को सौदेबाजी के औजार के तौर पर इस्तेमाल करेगा.

पूर्वोत्तर की हालिया घटनाओं को देखते हुए यह संदर्भ जरूरी है. चीन की सरकारी नियंत्रण वाली मीडिया की उत्तेजक भाषा के बावजूद इस बात के आसार कम हैं कि पीएलए 1962 जैसी हरकत दोबारा करेगा.

चीन की विदेश नीति हकीकत पर आधारित है. यह अपने छोटे पड़ोसियों पर प्रभाव डालने के लिए एक खास ‘दंड और पुरस्कार’ की नीति पर चलता है, जबकि बड़े भौगोलिक प्रतिस्पर्धियों से निपटने के लिए यह धीरे-धीरे आगे बढ़ने की नीति पर चलता है. यह थोड़ा सा आगे बढ़कर वापस लौटने से पहले खतरे को भांपता है, लेकिन इसके प्रभाव में जमीनी हालात में एक मामूली सा बदलाव जरूरत होता है.

शी जिनपिंग (रायटर इमेज)

मानसिक युद्ध के लिए भारत को तैयार होना होगा

इंद्राणी बागची ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा हैः ‘चीन इसी तरह का खेल साउथ चाइना और पीओके में भी खेल रहा है. वह थोड़ा आगे बढ़ता है, लेकिन इसमें जमीनी हकीकत में बदलाव कर देता है. हकीकत यह है कि पीएलए के लगातार घुसपैठ करने का एक ही मकसद है क्षेत्रों को चिन्हित करना. चीन इंफ्रास्ट्रक्चर और राजनीतिक औजारों के जरिए पीओके को पाकिस्तान का हिस्सा साबित करने में लगा है.’

चीन साइनोसेंट्रिज्म को सांस्कृतिक दबदबे के टूल के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है. अरुणाचल प्रदेश के छह इलाकों के नामों पर विचार कीजिए. ग्लोबल टाइम्स की रिपोर्ट जिसमें नामों के लिए रोमन अक्षरों का इस्तेमाल किया गया है, उसके मुताबिक ये नाम हैं- वो ग्याइनलिंग, मिला री, कोइडेनगारबोरी, मैनकुका, बुमो ला और नामकापुबरी. बीजिंग यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर के हवाले से रिपोर्ट में कहा गया है कि इलाकों के नाम तय करना साउथ तिब्बत में चीन की क्षेत्रीय सार्वभौमिकता की फिर से पुष्टि करता है.

एक्सपर्ट्स के मुताबिक, इन नामों को तय करना चीन का सांस्कृतिक दबदबे के विस्तार का एक तरीका है, जो कि वह ऐसे इलाकों पर साबित करता है जहां वह अपना दावा रखता है. चीनियों के ये पुराने तौर-तरीके हैं.

साइनसेंट्रिज्म और सैन्य आक्रामकता को भौगोलिक प्रभाव जमाने में इस्तेमाल किया जाता है.

स्ट्रैटेजिक अफेयर्स एक्सपर्ट मनोज जोशी हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं, ‘चीन को लॉफेयर की कला या ऐसे सिस्टम में महारथ हासिल है जिसके जरिए वह कानूनी दावे करता है और विरोधियों को अवैध साबित करता है. जगहों के दोबारा नाम रखना कोई नई चीज नहीं है. साउथ चाइना में चीन पैरासल आइसलैंड और स्पार्टली आइसलैंड्स को शीशा और नांशा आइसलैंड या जापान के साथ विवादित सेंकाकू आइसलैंड को वह दियाओयू आइसलैंड बुलाता है. इसी तर्ज पर अक्साई चिन जिस पर भारत जम्मू और कश्मीर का हिस्सा होने का दावा करता है और जिस पर चीन का कब्जा है, उसे चीन शिनजियांग के होतान हिस्सा का दक्षिणीपश्चिमी भाग बताता है.’

चीन भारत के साथ युद्ध क्यों नहीं करेगा?

साउथ चाइना सी के मुकाबले अरुणाचल प्रदेश में चीन की स्ट्रैटेजी को समझने में एक अंतर यह है कि चीन भारत के साथ सैन्य टकराव का रास्ता नहीं चुनेगा. भारत के साथ भारी व्यापार असंतुलन से चीन को बड़ा कारोबारी फायदा हो रहा है. इसके साथ ही एक परमाणु ताकत के साथ एक सीमित युद्ध भी उसके लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है. अपनी भू-रणनीति का प्रचार करना चीन की प्रकृति में नहीं है.

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शुक्रवार को ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित एक एडिटोरियल में भारत के खिलाफ युद्ध का खुला खतरा जारी किया गया है, लेकिन यह मानने का पर्याप्त कारण है कि इसका मकसद केवल धमकी देना है, न कि यह युद्ध के पहले की चेतावनी है.

इसमें लिखा है, ‘चीन के साथ अपनी शक्तियों के आकलन को लेकर इंडिया भ्रम में दिखाई देता है. लेकिन सीमा विवादों का निपटारा इस आधार पर नहीं हो सकता कि कौन सा पक्ष दमदार है या कौन सा देश ज्यादा फायदे में है. अन्यथा बीजिंग के लिए नई दिल्ली के साथ बातचीत की मेज पर बैठने की कोई जरूरत नहीं है. यह वक्त भारत के लिए गंभीरता से यह सोचने का है कि क्यों चीन ने अब साउथ तिब्बत के लिए स्टैंडर्ड नामों का ऐलान किया है. अगर भारत अपने इस घटिया खेल को जारी रखना चाहता है, उसे इसके लिए भारी कीमत चुकानी होगी.’

यह संदेश साफ है. चीन भारत के साथ एक मनोवैज्ञानिक युद्ध में लगा हुआ है. इस मानसिक युद्ध में वह अपने विरोधी पर हावी होने की कोशिश कर रहा है. यहां मकसद दबदबे का है. यह चीन की वृहद भूराजनीतिक रणनीति का हिस्सा है. अगर चीन दक्षिण एशिया में अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी पर दबदबा कायम करने में सफल हो जाता है, तो इससे निर्विवाद रूप से चीन का एकछत्र प्रभाव कायम हो जाएगा.

भारत को इसे अच्छे से समझना होगा और चीन के साथ लगी सीमा पर अपने रणनीतिक इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाना होगा, लेकिन साथ ही हमें उकसावे वाले बयानों से बचना होगा. एक-दूसरे की सीमाओं की एक स्पष्ट, ठंडे दिमाग और समझ इस मामले में पर्याप्त होनी चाहिए.