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CJI है मास्टर ऑफ रोल्स: सुप्रीम कोर्ट में जो कुछ हो रहा है वो चिंताजनक है

यह महत्वपूर्ण है कि, चीफ जस्टिस और बाकी के अन्य जज, जो प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट केस में शामिल रहे हैं, उन्हें सीजेएआर और कामिनी जायसवाल की याचिकाओं से खुद को अलग कर लेना चाहिए

Ajay Kumar

भारत के सभी संवैधानिक संस्थानों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण हैं कि, वे यह सुनिश्चित करें कि देश एक गणतंत्र के रूप में कार्य कर रहा है. ऐसी ही एक संस्था है सुप्रीम कोर्ट, जो संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाती है. संविधान के अनुच्छेद 124 (1) के तहत सुप्रीम कोर्ट की रचना की गई है, जिसमें लिखा है:

'भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) होगा, जिसका मुखिया भारत का मुख्य न्यायधीश (सीजेआई) कहलाएगा, सुप्रीम कोर्ट में सात से ज्यादा जजों की नियुक्ति नहीं हो सकती है. देश की संसद कानून बनाकर ही जजों की संख्या बढ़ा सकती है.'


(साल 2009 में संसद के एक अधिनियम ने सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या बढ़ाकर 30 कर दी. इससे पहले भी कई बार संसद की ओर से सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या बढ़ाई जा चुकी थी.)

भारत के चीफ जस्टिस को भले ही सुप्रीम कोर्ट का मुखिया माना जाता है, लेकिन उनके अधिकार लगभग कोर्ट के बाकी जजों के बराबर ही है. चीफ जस्टिस जब किसी पीठ (बैंच) में अपने साथी जजों के साथ बैठते हैं, तो उनका वोट दूसरे साथी जजों के बराबर होता है. इसलिए भारत के चीफ जस्टिस की भूमिका काफी हद तक एक प्रशासनिक भूमिका है. न्यायिक कार्यों के लिए चीफ जस्टिस के पास कोर्ट के अन्य जजों के समान ही शक्ति और अधिकार हैं.

लेकिन जब इन दो भूमिकाओं में टकराव होता है, तब क्या होता है? पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में जो हाई वोल्टेज ड्रामा देखने को मिला, उसे कतई अनुचित नहीं माना जा सकता है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट में जो घटनाएं सामने आ रही हैं, उनसे हम सभी को चिंतित होना चाहिए. क्योंकि इन घटनाओं के गंभीर परिणाम बड़े पैमाने पर हमारे सामने आ सकते हैं. घटनाओं के संदर्भ को समझने के लिए हमें सबसे पहले उनकी पृष्ठभूमि समझनी होगी.

लखनऊ का मेडिकल कॉलेज है विवाद का जड़ 

यह सारा विवाद लखनऊ के एक मेडिकल कॉलेज से शुरू हुआ, जिसे प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट चलाता है. प्रसाद ट्रस्ट ने मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के एक फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. प्रसाद ट्रस्ट का कहना था कि, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने उनके मेडिकल कॉलेज में छात्रों के दाखिले लेने पर गलत तरीके से रोक लगा रख है. प्रसाद ट्रस्ट ने ये भी आरोप लगाया कि, एमसीआई ने उससे गारंटी मनी के रूप में 2 करोड़ रुपए की धनराशि भी जमा करा रखी है.

जबकि एमसीआई ने दलील दी कि, निरीक्षण के दौरान कॉलेज की सुविधाएं मानकों के अनुरूप नहीं पाई गईं, लिहाजा कॉलेज को आवश्यक मंजूरी नहीं दी गई. इसके बाद ये मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच झूलता रहा. सुप्रीम कोर्ट में आने से पहले इस केस की सुनवाई जजों की जो पीठ कर रही थी उसमें जस्टिस दीपक मिश्रा भी शामिल थे, लेकिन तब वो देश के चीफ जस्टिस नहीं बने थे.

इस साल सितंबर में सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन यानी सीबीआई ने यूपी के कुछ मेडिकल कॉलेजों के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज की थी. इस एफआईआर के तहत उड़ीसा और इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस आई.एम. कुद्दूसी (सेवानिवृत्त) को गिरफ्तार किया गया था. सीबीआई की एफआईआर में कहा गया गया कि, सुप्रीम कोर्ट में चल रहे प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट के केस के फैसले को प्रभावित करने के लिए एक ताकतवर रैकेट काम कर रहा था.

सीबीआई के ये आरोप बहुत गंभीर हैं, और अगर इसमें जरा भी सच्चाई है, तो ये न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को इस कदर धूमिल कर सकते हैं, कि उसकी भरपाई करना मुश्किल होगा. भारत में न्यायिक संस्थानों को लोग उस आखिरी उम्मीद के रूप में देखते हैं, जहां से उन्हें इंसाफ मिल सकता है.

ऐसे में अगर यह न्यायिक संस्थान दागी और दूषित पाए जाते हैं, तो देश के लिए चिंताजनक बात होगी. यही वजह है कि इस तरह के आरोपों और केसों की सुनवाई सर्वोच्च प्राथमिकता और निष्पक्षता के साथ होना चाहिए. ऐसे मामलों में इस संदेह की जरा भी गुंजाइश नहीं होना चाहिए कि, जांच किसी से भी प्रभावित है.

याचिकाओं के जांच के लिए एसआईटी गठन की मांग की जा रही है 

सीबीआई की एफआईआर के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं दायर की गईं. एक याचिका कामिनी जायसवाल की ओर से दायर की गई, जबकि दूसरी याचिका 'कैंपेन फॉर जूडीशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म' नाम की एक एनजीओ की तरफ से दायर की गई. इन दोनों याचिकाओं के मुख्य बिंदु लगभग समान थे.

याचिकाओं में मांग की गई है कि, एफआईआर के आरोपों की जांच के लिए एक एसआईटी का गठन किया जाए, और इस एसआईटी की कमान भारत के पूर्व चीफ जस्टिस को सौंपी जाए. इस बात का मतलब साफ है, कि एफआईआर के आरोपों के तहत संभावित रूप से उच्च न्यायपालिका में पदासीन सदस्यों को फंसाया जा सकता है. इसलिए, यह जरूरी है कि, आरोपों के दायरे में आने वाले उच्च न्यायपालिका के सदस्यों की जांच ऐसे तरीके से होना चाहिए कि, जनता का विश्वास भारत के न्यायिक संस्थानों में बना रहे.

इस साल 8 नवंबर को वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे और प्रशांत भूषण ने जस्टिस जे. चेलामेश्वर और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की पीठ के सामने 'कैंपेन फॉर जूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म'  की याचिका पर सुनवाई तत्काल शुरू करने की अपील की. दवे और भूषण की अपील पर पीठ ने निर्देश दिया कि, मामले को शुक्रवार को उपयुक्त पीठ के सामने सूचीबद्ध किया जाए. सीजेएआर मामला 10 नवंबर 2017 को जस्टिस ए. के. सीकरी और जस्टिस ए. भूषण की पीठ के समक्ष प्रस्तुत होना था.

9 नवंबर को, दुष्यंत दवे ने जस्टिस चेलामेश्वर और जस्टिस नजीर की पीठ के समक्ष कामिनी जायसवाल की ओर से दायर याचिका का जिक्र (मेंशन) किया. कामिनी जायसवाल की याचिका सीबीआई की एफआईआर के संदर्भ में ही थी. पीठ ने कामिनी जायसवाल की याचिका पर उसी दिन 12.45 बजे सुनवाई करने का वक्त दे दिया. भारत के चीफ जस्टिस सामान्यत: मेंशनिंग (उल्लेख करने) के प्रभारी हैं, लेकिन उस दिन सीजेआई दिल्ली सरकार और लेफ्टिनेंट गवर्नर के बीच विवाद के संबंध में संविधान पीठ पर बैठे थे. और संविधान पीठ की सुनवाई 12 बजे शुरू हो चुकी थी.

9 नवंबर को 12.45 बजे जब जस्टिस चेलामेश्वर और जस्टिस नजीर की पीठ ने कामिनी जायसवाल की याचिका पर सुनवाई शुरू की, तभी एक रजिस्ट्री अफसर ने उनके समक्ष आकर चीफ जस्टिस की तरफ से जारी संविधान पीठ की कार्यवाही की एक फोटोकॉपी प्रस्तुत की.

मामले में आते रहे हैं कई मोड़ 

इस पत्र में चीफ जस्टिस ने अपने विचार व्यक्त करते हुए बताया था कि, जब कोई केस एक ही दिन में सूचीबद्ध हो और चीफ जस्टिस उस दिन अगर संविधान पीठ पर बैठे हों, तब संबंधित पीठ को कौन सी प्रक्रिया को अपनाना चाहिए. रजिस्ट्री के पत्र में निर्देश दिए गए कि, उन मामलों को जो उसी दिन सूचीबद्ध किए गए हैं, उन्हें 3:00 बजे चीफ जस्टिस के समक्ष भी सूचीबद्ध किया जाए.

जस्टिस चेलामेश्वर और जस्टिस नजीर ने निर्देश दिया कि, मामले को पहले सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ के पास भेजा जाए. इस पर वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने प्रार्थना की कि, सीजेआई को उस पीठ में नहीं होना चाहिए. दवे ने ये भी कहा कि, सीजेआई को यह भी नहीं तय करना चाहिए कि कौन-सा मामला किस पीठ के समझ प्रस्तुत हो.

दवे की अपील पर पीठ ने जवाब दिया, 'यही कारण है कि हमने पहले पांच जजों को कहा है' पीठ ने यह भी निर्देश दिया कि, मामले की डायरी और कागजात को मुहरबंद कवर में रखा जाए और सोमवार, 13 नवंबर, 2017 को पीठ के सामने ही खोला जाए. उन्होंने मामले की फाइल में रजिस्ट्री नोट भी रखवा दिया.

10 नवंबर 2017 को, मामले ने एक अलग ही मोड़ ले लिया. जस्टिस ए. के. सीकरी और जस्टिस ए. भूषण की पीठ ने सीजेएआर की याचिका पर सुनवाई की. सुनवाई के दौरान पीठ ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि, इस मामले में समान बिन्दुओं पर एक दूसरी याचिका (कामिनी जायसवाल की याचिका) भी दायर की गई है, हालांकि सीजेएआर को उनके सामने सूचीबद्ध किया गया था.

सीजेएआर की याचिका की पैरवी कर वकील प्रशांत भूषण ने पीठ को सूचित किया कि, जब उन्होंने 8 नवंबर 2017 को जस्टिस चेलामेश्वर के नेतृत्व वाली पीठ के समझ मामले को मेंशन किया था, तब जस्टिस चेलामेश्वर ने निर्देश दिया था कि, इस मामले को शुक्रवार को जस्टिस सीकरी और जस्टिस भूषण की पीठ के सामने पेश किया जाएगा. हालांकि, उसी दिन, उन्हें रजिस्ट्री से एक फोन आया था, जिसमें सूचित किया गया था कि, चीफ जस्टिस ने इस मामले को किसी अन्य पीठ को सौंप दिया था.

जब कोर्ट में ऊंची आवाज में बोलने लगे प्रशांत भूषण 

भूषण ने अदालत में ये भी कहा कि, 'इस कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि, एक जज उन मामलों में न्यायिक या प्रशासनिक कार्य नहीं कर सकता है, जिसमें उनके खिलाफ आरोप हैं'

जस्टिस ए.के. सीकरी ने कामिनी जायसवाल की ओर से दायर याचिका के साथ सीजेएआर की याचिका को नत्थी कर दिया, और इस मामले में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन को भी मंजूरी दे दी. फिर अचानक, एक अधिसूचना जारी की गई कि, सीजेएआर मामले की सुनवाई के लिए सात जजों की एक पीठ का गठन किया गया है. इसे बाद में पांच जजों की पीठ में बदल दिया गया और मामला अचानक उसी दिन 3:00 बजे दोपहर सूचीबद्ध किया गया. पांच जजों की इस पीठ की अध्यक्षता चीफ जस्टिस की ओर से की जा रही थी.

प्रशांत भूषण

'नेमो जुडेक्स इन सुआ कॉजा'- कानून को लेकर रोम की ये प्राचीन कहावत खासी मशहूर है. जिसके मुताबिक, कोई भी व्यक्ति अपने निजी उद्देश्यों के लिए न्यायाधीश नहीं हो सकता है. अनिवार्य रूप से यह कहावत न्यायिक कार्यों में निष्पक्षता सुनिश्चित करती है, क्योंकि जिस मामले में किसी न्यायाधीश के हित और उद्देश्य निहित हों वहां उसे सुनवाई करने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए. ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि, उस दिन 3 बजे कोर्ट में जो कुछ हुआ वो न्याय के सिद्धांतों के लिए बेहद चिंताजनक बात है.

उस दिन 3 बजे जब मामला पीठ के सामने प्रस्तुत हुआ, तब याचिकाकर्ता सीजेएआर की तरफ से फैरवी के लिए वकील प्रशांत भूषण हाजिर हुए. पीठ ने कामिनी जायसवाल की ओर से दायर की गई याचिका का हवाला देते हुए भूषण के तर्कों को खारिज करना शुरू कर दिया. पीठ ने कहा कि, सिर्फ भारत का चीफ जस्टिस ही एक संविधान पीठ का गठन नहीं कर सकता, किसी और जज को ऐसा करने का अधिकार नहीं है. इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के कई सदस्य और वकील अदालत में इकट्ठा हो गए.

ये लोग 9 नवंबर के जस्टिस चेलामेश्वर के उस आदेश पर एतराज जता रहे थे, जिसमें कहा गया था कि, सीजेएआर की तरफ से चीफ जस्टिस प्रशासनिक शक्तियों की उपेक्षा की जा रही है. अदालत में बैठे अन्य वकीलों को भी याचिकाकर्ता के खिलाफ अपनी चिंताओं के प्रति आवाज उठाने की इजाजत दी गई थी. उनमें से कुछ वकीलों ने प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही की मांग की.

जिस मामले में सीजेआई के हित जुड़े थे, उसी की हो रही थी सुनवाई 

पीठ को संबोधित करने के दौरान भूषण ने लगातार इस बात पर एतराज जताते रहे कि, जो लोग इस मामले में वादी (पार्टी) नहीं हैं उन्हें अदालत में बोलने की इजाजत क्यों दी जा रही है. प्रशांत भूषण का कहना था कि, याचिकाकर्ता का वकील होने के बावजूद अदालत उन्हें बोलने का मौका ही नहीं दे रही है. भूषण ने अदालत में ऊंची आवाज में कहा-

'योर लॉर्डशिप्स, आप बगैर मेरा पक्ष सुने कोई भी आदेश जारी कर सकते हैं. आपने अदालत में एक घंटे तक ऐसे व्यक्तियों की दलीलें सुनीं जो इस मामले में वादी (पार्टी) ही नहीं हैं. अगर योर लॉर्डशिप्स बिना मेरी बात सुने आदेश देना चाहते हैं, तो फिर यही करिए.' इतना कहने के बाद प्रशांत भूषण बिफर पड़े, जिसके बाद मार्शल्स ने उन्हें अदालत से बाहर ले जाया गया.

प्रशांत भूषण के अदालत से जाने के बाद, चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली पीठ ने आदेश जारी करते हुए कहा, भारत के चीफ जस्टिस ही मास्टर ऑफ द रोस्टर है. यानी सिर्फ चीफ जस्टिस को ही काम बांटने का अधिकार है. कोई अन्य जज अगर किसी मामले को किसी दूसरी पीठ में भेजने का आदेश देता है, तो उसके लिए चीफ जस्टिस बाध्यकारी नहीं होंगे. इसके बाद पीठ ने आदेश दिया कि, सीजेएआर की याचिका को उसके समक्ष प्रस्तुत किया जाए, ताकि उस पीठ को निर्देशित किया जा सके जिसके सामने इस केस को सूचीबद्ध किया जा सके.

10 नवंबर 2017 को जारी इस आदेश से कई समस्याएं पैदा हो गई हैं. पहली समस्या यह है, भारत के चीफ जस्टिस की शक्तियों के प्रशासनिक पक्ष. ये बात खासतौर पर निर्धारित करती है कि, सीजेआई मास्टर ऑफ रोल्स के रूप में कैसे कार्य करता है. यह चीफ जस्टिस के कार्यालय से संबंधित संवैधानिक कानून का सवाल है. इसलिए, 10 नवंबर, 2017 को जो आदेश पारित हुआ, उसमें मास्टर ऑफ रोल के रूप में सीजेआई की स्थिति की पुष्टि की गई.

हालांकि, सीजेआई खुद उस पीठ में बैठे थे, जिसमें उनकी शक्तियों के विषय में आदेश पारित किया गया. तथ्यों की रौशनी में ये बहुत विकट समस्या है. ये स्थिति कुछ वैसी है कि, कोई व्यक्ति अपने ही हितों और उद्देश्यों के लिए जज नहीं हो सकता है. अगर 9 नवंबर को जस्टिस चेलामेश्वर के आदेश के साथ समस्याएं थीं, तो इसे आदर्श रूप से एक ऐसी पीठ के सामने पेश किया जाना चाहिए था, चीफ जस्टिस जिसका हिस्सा नहीं होते.

सुप्रीम कोर्ट पर ही उठाई गई है उंगली 

क्योंकि जस्टिस चेलामेश्वर का आदेश चीफ जस्टिस की शक्तियों के प्रशासनिक पक्ष को प्रभावित कर सकता है. भारत के चीफ जस्टिस के पद के प्रति पूरे सम्मान के साथ कहमा चाहूंगा कि, पीठ के इस आदेश में उसके न्यायिक औचित्य का भाव नजर नहीं आता है.

चीफ जस्टिस की शक्तियां पर सवाल उठाए गए थे, इसलिए मामले को उन जजों के समझ पेश किया जाना चाहिए था, जिसमें चीफ जस्टिस शामिल न हो. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली पीठ ने आदेश पारित कर दिया. जिसमें कहा गया कि, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ही सुप्रीम कोर्ट का मास्टर ऑफ रोस्टर है.

दूसरी समस्या ये है कि, प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट के खिलाफ सीबीआई की ओर से दायर एफआईआर में सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठाई गई. भारत के मौजूदा चीफ जस्टिस तब उस पीठ में शामिल थे,जिसने सुप्रीम कोर्ट आने से पहले इस केस की सुनवाई की थी. ऐसे में चीफ जस्टिस से न्यायिक औचित्य की उम्मीद की जाती है. क्या चीफ जस्टिस को उस मामले की सुनवाई करना चाहिए, जिससे वो खुद जुड़े रहे हैं और सीबीआई की एफआईआर में जिसका जिक्र है.

जाहिर है, ऐसे मामलों में फैसले प्रभावित होने की आशंका बनी रही है. हालांकि, न तो सीजेएआर और कामिनी जायसवाल की याचिका में चीफ जस्टिस पर सीधे तौर पर आरोप लगाए गए हैं, और न ही सीबीआई की एफआईआर में ऐसी कोई बात दर्ज है, लेकिन फिर भी ऐसे मामलों की जांच उन संस्थानों या जगहों पर होना चाहिए जहां आरोपी व्यक्तियों का कोई संबंध न हो.

ऐसे हालात में संविधान सीजेआई को तब प्रशासनिक शक्तियों का प्रयोग करने की इजाजत देता है, जब कोई न्यायिक औचित्त का उल्लंघन करता पाया जाता है. हालांकि, शुक्रवार का आदेश इस तथ्य को नजरअंदाज करता है. भारत के चीफ जस्टिस के पद के प्रति पूरे सम्मान के साथ कहूंगा कि, इस मामले को उस खंडपीठ के सामने पेश करना जिसमें खुद चीफ जस्टिस शामिल थे, पूरी तरह से अनुचित था.

सीजेएआर और कामिनी जायसवाल की याचिकाओं पर हो रही सुनवाई और केस की प्रगति पर पूरे देश की निगाहें हैं. उच्च न्यायपालिका के सेवानिवृत्त जजों पर भ्रष्टाचार के आरोपों ने न्यापालिका के प्रति जनता के विश्वास को हिला दिया है. इसके अलावा, अगर ये आरोप न्यायपालिका में पदासीन सदस्यों को अपने घेरे में लेते हैं, तो ऐसे में जनता का विश्वास चकनाचूर भी हो सकता है.

यह महत्वपूर्ण है कि, चीफ जस्टिस और बाकी के अन्य जज, जो प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट केस में शामिल रहे हैं, उन्हें सीजेएआर और कामिनी जायसवाल की याचिकाओं से खुद को अलग कर लेना चाहिए. उन्हें इस मामले के न तो न्यायिक और न ही प्रशासनिक कार्यों में दखल देना चाहिए. इन दोनों याचिकाओं की सुनवाई निष्पक्ष रूप से होना चाहिए. इंसाफ अभी हुआ नहीं है, बल्कि हमें अभी इंसाफ का इंतजार है.

शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में हुई घटनाओं से भारत की कानूनी बिरादरी को आघात लग सकता है. उस दिन जो कुछ हुआ वह बहुत अभूतपूर्व था. ये घटना मुख्य संवैधानिक संस्थानों पर असर डालती है. लोगों का विश्वास हासिल करना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन इसे खोना बहुत आसान है. अरसे से लोग सुप्रीम कोर्ट को इंसाफ मिलने की आखिरी जगह मानते आ रहे हैं.

साथही सुप्रीम कोर्ट संविधान के रक्षक और अभिभावक का भी कर्तव्य निभाता आ रहा है. वो चाहे 2 जी घोटाला हो या पर्यावरण संबंधी कोई मामला, देश की जनता सुप्रीम कोर्ट को एक ऐसे संस्थान के रूप में देखती है, जहां से सभी को निष्पक्षता के साथ इंसाफ मिलता है. लेकिन वर्तमान विवाद संभवत: लोगों के उस विश्वास को प्रभावित कर सकता है. लिहाजा इस विवाद को जल्द से जल्द निपटाने की जरूरत है.