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उत्तर प्रदेश प्रशासन में अधिकारों की लड़ाई, मची हुई है उथल-पुथल

उत्तरप्रदेश प्रशासनिक व्यवस्था में अराजकता कई मौके पर साफ दिखाई पड़ती है. यहां के कुछ जिले में डीएम और एसपी अपने अधिकारों को लेकर भिड़ते दिखाई पड़ रहे हैं

Pankaj Kumar

उत्तरप्रदेश प्रशासनिक व्यवस्था में अराजकता कई मौके पर साफ दिखाई पड़ती है. यहां के कुछ जिले में डीएम और एसपी अपने अधिकारों को लेकर भिड़ते दिखाई पड़ रहे हैं. आलम यह है कि लड़ाई अखबारों की सुर्खियां बन रही है. ताजा घटनाक्रम गाजियाबाद जिले का है. वहां एसपी ने तीन एसएचओ का तबादला जैसे ही किया वैसे ही जिलाधिकारी ऋतु माहेश्वरी ने जिले के कप्तान को उनके अधिकारों का हवाला देते हुए गंभीर कार्रवाई की चेतावनी दे डाली.

एसएसपी वैभव कृष्ण और जिलाधिकारी ऋतु माहेश्वरी के बीच पत्राचार भी चला और एसएसपी साहब ने जिलाधिकारी द्वारा लिखे गए शब्दों पर घनघोर आपत्ति भी जता दी. इतना ही नहीं एसएसपी वैभव कृष्ण ने होम डिपार्टमेंट के प्रमुख सचिव अरविन्द कुमार और प्रदेश के डीजीपी ओ.पी. सिंह को पत्र लिखकर अपने तबादले की मांग की है. जाहिर है शीर्षस्थ अधिकारियों के बीच तनातनी से एसएसपी को अंदेशा है कि बेहतर कानून व्यवस्था बहाल कर पाने में बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.


प्रमुख सचिव की चिट्ठी है फसाद की जड़

वैसे इस फसाद के पीछे प्रमुख सचिव द्वारा लिखी गई वो 9 मई की चिट्ठी है जिसमें पुलिस विभाग में तबादले को लेकर एसएसपी द्वारा जिलाधिकारी से लिखित सहमति की बात कही गई थी लेकिन आईपीएसए एसोसिएशन के विरोध बाद 24 मई को शासन द्वारा एक और चिट्ठी निकाली गई जिसमें लिखित आदेश की बात न कह कर कंसल्टेशन की बात कही गई थी. जाहिर है कंस्लटेशन शब्द का अभिप्राय जिलाधिकारी और एसएसपी अपने-अपने तरीके से निकालने में उलझ पड़े हैं. ऐसे में शासन व्यवस्था में अराजकता साफ तौर पर देखी जा सकती है.

जिलाधिकारी ऋतु माहेश्वरी और एसएसपी वैभव कृष्ण

यही हाल कुछ दिनों पहले नोएडा में भी दिखाई पड़ा था जब दस पुलिसकर्मियों के तबादले की फाइल को जिलाधिकारी बी.एन. सिंह ने ये कह कर लौटा दिया था कि उनकी सहमति लिए बगैर तबादले कैसे किए गए. ध्यान रहे इन सभी पुलिसकर्मियों की तैनाती नई जगह पर हो चुकी थी लेकिन जिलाधिकारी बी.एन. सिंह की आपत्ति के बाद फाइल लौटा दी गई और प्रशासन में एक तरह से अराजकता वाली स्थिति हो गई थी.

वैसे कुछ आईपीएस अधिकारी मानते हैं कि जिले में जिलाधिकारी को कानूनी वैधता जरूर है लेकिन प्रैक्टिस के मुताबिक जिले का कप्तान ही पुलिस में तबादले का निर्णय लेता है जिसे औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर डीएम की सहमति मिलती रही है.

यूपी में कार्यरत पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने फ़स्टपोस्ट हिंदी से बात करते हुए कहा, 'प्रैक्टिस भी धीरे-धीरे कानून का स्वरूप ले लेती है और इसमें किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ प्रशासनिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है. ये नियम काफी पुराना है, जिसे फिर से रिट्रीट किया गया है. और इसको दोनों ग्रुप अपने अपने ढंग से पिक कर अलग-अलग मतलब निकाल रहे हैं.

पहले भी होती थी समस्या, लेकिन सामने नहीं आती थी

पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह के मुताबिक सबकुछ डीएम और एसपी के बीच संबंधों पर निर्भर करता है. पहले भी ये समस्या थोड़ी बहुत आती थीं पर इतनी मीडिया नहीं होने की वजह से लोगों तक बात नहीं पहुंच पाती थी. वो कहते हैं, 'डीएम और एसपी को इस समस्या का निदान एक साथ सुलझाना चाहिए और मीडिया में आए इस विवाद से बचना चाहिए. वैसे इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का साफ निर्देश है कि डीएसपी रैंक के अफसर तक का तबादला पुलिस अधिकारी स्वतंत्र रूप से कर सकेंगे लेकिन राज्य सरकार ने इसे अभी तक कार्यान्वित नहीं किया है.'

वहीं प्रदेश में कार्यरत एक आएएस अधिकारी के मुताबिक, 'नियम के मुताबिक जिलाधिकारी का रोल सुपरवाइजरी होता है और शासनादेश भी जिले में कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार जिलाधिकारी को मानता है, लेकिन समस्या नियम को लेकर नहीं होती है बल्कि संवादहीनता की वजह से ईगो की टकराहट समस्या की वजह बनती है.'

अराजकता का माहौल सिर्फ आईएएस और आईपीएस के बीच अधिकार की लड़ाई को लेकर ही नहीं है बल्कि पार्टी और अधिकारी के बीच तनातनी भी शासन व्यवस्था में अराजक स्थिति पैदा करने के लिए काफी हैं. पिछले दिनों मेरठ के कमिश्नर प्रभात कुमार इसलिए हटाए गए क्योंकि उन पर आरोप जनता के प्रतिनिधियों के साथ बुरे बर्ताव का था. हैरानी की बात यह थी कि सत्ताधारी दल के लोग ही उनके खिलाफ सड़क पर उतर आए थे.

चरमराई प्रशासनिक व्यवस्था का प्रमाण जेल में मारे गए कुख्यात अपराधी मुन्ना बजरंगी की मौत के रूप में भी देखा जा सकता है. जेल के अंदर किसी भी कैदी की सुरक्षा की जिम्मेदारी पूरी तरह से जेल प्रशासन की होती है. ऐसे में जेल के अंदर हथियार का इस्तेमाल करते हुए एक अपराधी की हत्या कानून व्यवस्था में अराजकता का परिचायक नहीं तो और क्या है ?

जेल में हत्या और भ्रष्टाचार के जांच में लीपा-पोती

दरअसल ये घटना तब घटी जब कुख्यात अपराधी मुन्ना बजरंगी के परिवार के लोग उसकी हत्या की आशंका पहले से जता रहे थे. कमाल की बात यह है कि जिस शख्स सुनील राठी ने हत्या की बात कबूली है वो बागपत जेल में बंद था और वहां पर उसने गैरकानूनी तरीके से हथियार मंगाकर मुन्ना बजरंगी की हत्या करने में कामयाबी हासिल की. जांच में शामिल अधिकारी के मुताबिक हथियार फूड पैकेट्स में भेजे गए लेकिन ये फूड पैकेट्स पहुंचाने वाले कौन थे उनका नाम विजिटर रजिस्टर में दर्ज तक नहीं है. हत्या के बाद प्रशासनिक नाकामियों पर कई सवाल उठ खड़े होते हैं.

उत्तरप्रदेश के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह का कहना है, 'इसमें कोई शक नहीं कि जेल की अपनी समस्याएं हैं जिसमें सुधार की बात तो होती है लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ खास नहीं हो पाता है लेकिन जेल के अंदर हथियार की स्मगलिंग करके एक कैदी की हत्या कर दिया जाना जेल प्रशासन की नाकामियों को साफ तौर पर उजागर करता है.'

प्रशासनिक स्तर पर नाकामी का सिलसिला यहीं नहीं थमता. मुख्यमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेटरी एस.पी. गोयल पर भी 25 लाख रुपए रिश्वत लेने का आरोप लग चुका है. जिसकी जांच चीफ सेक्रेटरी को सौंपी गई. शिकायतकर्ता को राज्यपाल की मदद लेनी पड़ी और जांच की अनुशंसा राज्यपाल को करनी पड़ी. जब इस पर भी 40 दिनों तक कोई कार्रवाई नहीं हुई तो मीडिया और विपक्ष के दबाव में सरकार को जांच के लिए बाध्य होना पड़ा.

वैसे जिस व्यवसायी ने आरोप लगाया था वो 8 घंटे हिरासत में रहने के बाद अपने बयान से पलट गया. 9 जून को हिंदुस्तान टाइम्स अखबार में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक आरोप लगाने वाले व्यापारी अभिषेक गुप्ता ने कहा कि जब उसने प्रिंसिपल सेक्रटरी पर आरोप लगाए तब उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी. मीडिया रिपोर्ट्स ये भी बात सामने आई कि चीफ सेक्रेटरी ने प्रिंसिपल सेक्रेटरी पर लगे आरोपों की जांच गहनता से की लेकिन अपनी जांच रिपोर्ट में रिश्वत के मुद्दे पर चुप्पी बरकरार रखना ही उचित समझा.

यही वजह है कि प्रशासनिक सुधार का दावा करने वाली यूपी सरकार अपने मिशन से कोसों दूर है. सूबे के कई जिले में एसडीएम रैंक के कई अधिकारी कई वजहों से तबादले की मांग करने लगे हैं.