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लोकसभा से सवर्णों के आरक्षण का बिल पास तो हो गया लेकिन इसकी संवैधानिक वैधता भी जांचनी होगी

सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए ऐसे कई फैसले, संवैधानिक सिद्धांत, उदाहरण और कानूनी बहस मौजूद हैं, जो इस 50% से ऊपर आरक्षण के प्रावधान के पक्ष और विपक्ष दोनों में जाते है.

Shishir Tripathi

केंद्रीय कैबिनेट ने सोमवार को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को 10% आरक्षण देने का फैसला किया है. ये वो वर्ग है जिसे इससे पहले कभी भी आरक्षण का फायदा नहीं मिला है.

हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लिए गए इस फैसले को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है, लेकिन ये भी जरूरी है कि इस फैसले की विवेचना संवैधानिक नजरिए से भी की जानी चाहिए और साथ ही फैसले की वैधता पर भी बहस होनी चाहिए.


संविधान की धारा-15 देश के हर नागरिक को बराबरी का स्थान देने का दावा करती है, साथ ही धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्म के स्थान के आधार पर किसी के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं करने का दावा करती है. इसके अलावा ये धारा, ये भी कहती है कि वो-‘राष्ट्र को कभी भी, किसी भी तरह से ऐसी कोई कोशिश या खास नियम बनाने से नहीं रोकेगी जिसके जरिए समाज में रहने वाले कमजोर वर्गों (सामाजिक और शैक्षणिक), पिछड़े वर्ग के नागरिकों, अनुसूचित जाति और जनजातियों को आगे ले जा सकने और उनका विकास करने में मदद मिलती हो.’

ठीक उसी तरह, संविधान की धारा-16, लोगों को सरकारी नौकरियों में समान अवसर उपलब्ध कराने के मसले पर कहती है, ‘इस धारा के अंतर्गत कोई भी चीज ऐसी नहीं होगी जो सरकार या देश को, वैसा कोई भी नियम बनाने से रोकेगी, जो देश के नागरिक वर्ग में से किसी भी पिछड़े वर्ग को (जो शासन की नज़र में पिछड़े हैं और जिन्हें पर्याप्त मौके नहीं मिले हैं) नौकरी या प्रमोशन देने के क्रम में वरीयता देना चाहती हो.

ये दोनों ही धाराएं, हमारे संविधान में समानता सुनिश्चित कराती है. इसके अलावा ये आधार बनती है, वैसी किसी भी तरह की सकारात्मक भेदभाव की, जिसे राष्ट्र की भाषा में आरक्षण कहते हैं.

लेकिन ये सुनिश्चित करने के लिए कि किसी भी तरह का अपवाद, किसी स्थापित नियम-कायदे का उल्लंघन न कर दे भारत की सुप्रीम कोर्ट ने कई बार, कितने ही ऐतिहासिक फैसलों के जरिए ऐसे दिशा-निर्देश तय किए हैं, जिसका पालन हमारे देश के कानून निर्माताओं को आरक्षण से जुड़े किसी भी तरह का फैसला लेने और कानून बनाने समय करना चाहिए.

इस दिशा निर्देशों का पालन करते हुए ही किसी वर्ग को आरक्षण का फायदा मिलना चाहिए. और भारत में आरक्षण कानून के संदर्भ में 50% का जो नियम बना हुआ है, वो एक ऐसा ही संशोधन है, जिसको लेकर सुप्रीम कोर्ट बड़ी ही सावधानी बरतती आई है.

उच्चतम न्यायालय के अनुसार, जब तक कि कोई अभूतपूर्व या असाधारण स्थिति न बनती हो, तब तक भारत में रिजर्वेशन का कोटा 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए.

इस समय भारत का संविधान संयुक्त रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों को आरक्षण का फायदा देता है, जिसका कुल प्रतिशत 49.5 % है. और अब अगर मोदी सरकार के इस फैसले के बाद कि वो आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 10% का आरक्षण देगी, ये आंकड़ा संविधान द्वारा तय सीमा 50% को भी पार कर जाएगा. ऐसा होने के साथ ही इस कानून या फैसले की संवैधानिक और कानूनी वैधता पर सवाल खड़े हो जाएंगे.

भारतीय संविधान के ऑक्सफोर्ड हैंडबुक में छपे और आरक्षण पर लिखे गए एक चैप्टर के ‘रिजर्वेशंस’ में, अशोका यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस एंड लीगल स्टडीज के असिस्टेंट प्रोफेसर विनय सीतापति लिखते हैं-‘50 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का जो तर्क है, उसके पीछे तीन विभिन्न तरह की सोच या परिकल्पना है. ये सोच भारतीय संविधान में शामिल सकारात्मक कार्यवाही और समानता के प्रावधान के आपसी संबंधों पर आधारित है.’

जो पहली परिकल्पना है उसकी व्याख्या करते हुए सीतापति कहते हैं-‘ये समानता, सामाजिक न्याय और कार्य-क्षमता जैसे प्रतिस्पर्धात्मक संवैधानिक सिद्धातों के बीच सामंजस्य बनाने की कोशिश है. इस सोच का एक नतीजा- धारा 16(4) - जो रोजगार में आरक्षण की हिमायती है-जो धारा 16 (1) की ही औपचारिक समानता के प्रावधान के अपवाद स्वरूप सामने आती है.

'चूंकि कोई भी अपवाद किसी भी नियम या कानून से बड़ा नहीं हो सकता है, इसलिए आरक्षण 50 प्रतिशत से पार जा ही नहीं सकता.' ये कहना है सीतापति का.

आगे ये भी जरूरी है कि इस 50 प्रतिशत के नियम से जुड़े कुछ ऐतिहासिक मामलों का संदर्भ भी जांच लिया जाए, ताकि मोदी सरकार द्वारा लिए गए इस फैसले का भविष्य तब क्या होगा, जब इसकी कानूनी तौर पर जांच होगी, उसका पता चल सके.

धारा-16 के दोनों हिस्सों के आपसी संबंधों के आधार पर, 'अगर हम दूसरे नजरिए की ओर आगे बढ़े तो पाएंगे कि इसका सीधा असर आरक्षण के कानून पर पड़ता है. सीतापति आगे लिखते हैं, धारा 16 (4) एक तरह से धारा 16 (1) का ही विस्तार है, जिसमें ये भाव समाहित है कि जो असमान या बराबर नहीं हैं उनके साथ असमानता का व्यवहार नहीं किया जा सकता है. इसे इस तरह से देखने पर ये पाया जाएगा कि आरक्षण का प्रावधान, संविधान में शामिल समानता के प्रावधान को कम नहीं करता, बल्कि एक तरह से उसका विस्तार करता है. ऐसे में 50 % आरक्षण का खुद में कोई औचित्य ही नहीं है.

इसी सोच को काफी हद तक सुप्रीम कोर्ट ने एनएम थॉमस और एबीएसके संघ के केस में किया है.

हालांकि, सीतापति ने ये भी ध्यान दिलाया कि बहुचर्चित इंदिरा साहनी केस में उच्चतम न्यायालय ने नियम और अपवाद के बीच ये कहकर सामंजस्य बिठाने की कोशिश की कि एक तरफ जहां धारा -16 के दोनों अनुच्छेद एक-दूसरे से जुड़े हैं, वहीं दूसरी तरफ ये भी जरूरी है कि संविधान में लिखे सभी प्रावधानों को भी संतुलित रखने की जरूरत है, इसलिए आरक्षण का कोटा 50 % से पार जा ही नहीं सकता है.

एमआर बालाजी के फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा है कि विशेष प्रावधान भी तार्किक सीमा के भीतर ही होने चाहिए.

पिछले कुछ सालों में ये देखने में आया है कि कुछ राज्यों ने इस तरह का आरक्षण कोटा पास किया है जो न सिर्फ 50 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा है बल्कि जो उच्चतम न्यायालय के फैसले के भी खिलाफ है. तमिलनाडु में 69 % आरक्षण है. वहां पर उन्होंने मूल रूप से इंदिरा साहनी केस में जो 50 % का अपवाद रेखांकित किया गया है, उसी से मार्गदर्शन ले लिया है.

सुप्रीम कोर्ट

इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा - , ‘जहां 50 % का नियम तय होगा, वहीं हमें कुछ अपवाद स्वरूप मामलों में, कुछ असाधारण हालातों को नजरअंदाज नहीं करना होगा. क्योंकि वो स्थितियां हमारे देश की विविध संस्कृति और इसकी विविध जनता के कारण ही है. ऐसा मुमकिन है कि देहाती और सुदूर इलाकों में रह रहे लोग, राज्य की मुख्यधारा से दूर जीवन जी रहे होंगे, और वहां के जमीनी हालातों के कारण उनके साथ अलग तरह से व्यवहार करना होगा. ऐसे में इस कठोर नियम को थोड़ा लचीला बनाया जा सकता है. लेकिन, ऐसा करते हुए हमें बहुत सावधानी बरतने की जरूरत होने के साथ-साथ किसी विशेष केस में ही ये करना चाहिए.’

चूंकि, न्यायालय के फैसले में ही इस अपवाद का जिक्र किया जा चुका है तो अब न्यायपालिका को ही ये तय करना होगा कि अभी जिस अपवाद की बात हो रही है, क्या वो उच्चतम न्यायालय द्वारा बताए गए अपवाद की श्रेणी में आता भी है या नहीं.

जिन राज्यों ने भी 50% से ज्यादा का कोटा दिया है, उन्होंने ऐसा अपनी आरक्षण नीति को संविधान की नौंवी सूची में रखकर, उसे न्यायिक समीक्षा से परे कर दिया है. संविधान की नौंवी सूची का मकसद ही कुछ कानूनों को न्यायिक समीक्षा से मुक्त रखना है.

पर अब ये कवच भी ज्यूडीशियल रिव्यू की परिधि में आ गया है, जैसा कि ऐतिहासिक आर.कोएल्हो बनाम तमिलनाडु की सरकार के मामले में हुआ. सुप्रीम कोर्ट ने तब कहा कि नौवीं सूची के अंतर्गत आने वाला कानून भी न्यायिक समीक्षा के घेरे में आएगा.

लेकिन उसी सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को उनके 69% आरक्षण को चालू रखने दिया है, ऐसा उनके द्वारा दिए गए कुछ तार्किक दलीलों के कारण हुआ है.

सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए ऐसे कई फैसले, संवैधानिक सिद्धांत, उदाहरण और कानूनी बहस मौजूद हैं, जो इस 50% से ऊपर आरक्षण के प्रावधान के पक्ष और विपक्ष दोनों में जाते है. ये काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि पिछले कुछ सालों में उस आरक्षण नीति का कौन सा पक्ष मजबूत स्थिति में था.

अभी के लिए, अगर सरकार अपने निर्णय को लागू करना चाहती है तो उसे एक संवैधानिक संशोधन लाना होगा. जो सरकार मंगलवार को ला चुकी है और लोकसभा से पास भी करा चुकी है. बुधवार को ये बिल राज्यसभा में भी पेश कर दिया गया है. लेकिन अगर ये बिल राज्यसभा से पास भी हो जाता है तो उसके बाद भी इसकी पूरी संभावना है कि उस फैसले की न्यायिक समीक्षा की जाए,