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आस्था के 'रामसेतु' पर विज्ञान के तर्क कितने कोस चल सकेंगे ?

जिस रामसेतु को समुद्र की लहरें सात हजार साल के ज्यादा समय से मिटा नहीं सकीं उसे सियासत ने ‘कंबन रामायण’ का हवाला देते हुए तोड़ने की व्यूह रचना कर ली थी

Kinshuk Praval

हजारों साल पुराना एक पुल जिससे जुड़े हैं करोड़ों लोगों की आस्था के पत्थर और नाम है रामसेतु. आस्था का ये सेतु विज्ञान बनाम धर्म के संघर्ष के बीच वक्त के थपेड़ों के बावजूद आज भी कौतुहल के रूप में मौजूद है. विज्ञान को चुनौती देने वाले इस पुल में राम के प्रति आस्था के प्राण बसते हैं. अब इस रामसेतु के संरक्षण की जिम्मेदारी केंद्र की मोदी सरकार ने ली है. सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने हलफनामा दाखिल किया है कि पौराणिक रामसेतु को नुकसान नहीं पहुंचने दिया जाएगा.


दरअसल बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी कि केंद्र सरकार को ये निर्देश दिया जाए कि सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट की वजह से राम सेतु को आंच न पहुंचे. जिसके बाद केंद्र सरकार ने भरोसा दिलाया कि रामसेतु को बिना नुकसान पहुंचाए वैकल्पिक मार्ग की तलाश की जाएगी.

सेतु पर सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट से गहराया संकट

ये सेतु दक्षिण भारत में रामेश्वरम के निकट पम्बन द्वीप से श्रीलंका के उत्तरी तट स्थित मन्नार द्वीप तक मौजूद है. इस सेतु पर संकट तब गहराया जब साल 2005 में यूपीए सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का ऐलान किया. इस जहाजरानी योजना पीछे तत्कालीन सरकार बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के बीच आवाजाही के लिए सीधा मार्ग बनाना चाहती थी. सरकार की दलील थी कि इससे जहाजों के सफर में 36 घंटों की बचत होगी क्योंकि रामसेतु की वजह से जहाजों को श्रीलंका का पूरा चक्कर काट कर गुजरना होता है.

लेकिन आस्था के इस पुल पर सरकार की नीयत को देखकर विरोध शुरू हुआ तो मामला कोर्ट तक पहुंचा. साल 2007 में यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर रामसेतु को महज एक कोरी कल्पना बताया तो साथ ही कहा कि राम नाम का कोई अवतार हुआ ही नहीं. कहा कि ऐसे कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं हैं जो साबित कर सकें कि रामसेतु मानव निर्मित हैं. केंद्र सरकार के बयान के बाद धार्मिक भावनाएं इस कदर भड़कीं कि विरोध आंदोलन शुरू गए. रामसेतु तोड़ने के फैसले को पर्यावरणविद् ने समुद्र के ईको सिस्टम के लिए खतरा बताया. जिसके बाद आखिरकार यूपीए सरकार को हलफनामा वापस लेना पड़ गया.

आस्था बनाम विज्ञान संघर्ष

दरअसल विज्ञान बनाम धर्म के इस संकट में रामसेतु पर अलग अलग तरीके से चला जा सकता है. लेकिन प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत भी नहीं होती है. रामसेतु का प्रत्यक्ष रूप उन लोगों के लिए यक्षप्रश्न हो सकता है जो राम को एक कल्पना और रामसेतु को महज प्राकृतिक पुल मानते हैं तो उन लोगों के लिए आस्था का वो पुल जिस पर श्रीराम ने चल कर लंका पर चढ़ाई की थी.

रामायण में श्रीराम के 14 साल के वनवास के दौरान देश भर के उन 195 स्थानों का जिक्र है जहां वो रहे और सीता की तलाश में भटके. अयोध्याकांड, अरण्यकांड, क्रिष्किंधाकांड और सुंदरकांड में श्रीराम की यात्रा का उल्लेख है जो अयोध्या से लेकर रामेश्वरम तक बताई गई है.

बड़ा सवाल ये है कि रामायण में रामेश्वरम से लेकर श्रीलंका के बीच ही रामसेतु का वर्णन क्यों है? दूसरा सवाल ये है कि इस वर्णन के बाद रामेश्वरम के पम्बन द्वीप के धनुषकोडी तट से मंडपम तक ही पुल के पत्थर क्यों नजर आते हैं? इसे महज एक संयोग बताकर रामसेतु को तोड़ने और सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट की वकालत करने वाले आखिर साबित क्या करना चाहते हैं?

रामसेतु के प्रति आस्था को नासा की सैटेलाइट इमेज ने भी गहराने का काम किया. रामसेतु का प्रमाण मांगने वाले विज्ञान और सियासत के बीच ये इस इमेज ने रामेश्वरम से श्रीलंका तक बने पुल के प्रति कौतुहल को बढ़ा दिया था. हालांकि नासा ने इसे 30 किमी लंबा प्राकृतिक लाइमस्टोन की श्रृंखला बताया था.

पुल में इस्तेमाल हुए पत्थरों पर विज्ञान की ये राय है कि कोरल और सिलिका पत्थर के गर्म होने पर जब उसमें हवा बंद हो जाती है तो वो ठोस होने के बावजूद हल्का हो जाता है और डूबता नहीं. रामेश्वरम में कई कुंड ऐसे हैं जहां ऐसे पत्थर तैरते दिखाई देता हैं.

प्रोजेक्ट रामेश्वरम के नाम से द जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में रामसेतु को भारत और श्रीलंका के बीच एक भूमिगत रास्ता बताया गया था. इसे सात से दस हजार साल पुराना माना गया.

इस कड़ी में दिलचस्प टर्निंग प्वाइंट तब आया जब एक अमेरिकी सांइस चैनल ने रामसेतु को लेकर बहस को तेज कर दिया. साइंस चैनल ने दावा किया कि रामसेतु प्राकृतिक रूप से नहीं बना बल्कि ये मानवनिर्मित ढांचा है. साइंस चैनल के प्रोमो के मुताबिक रामसेतु के पत्थर और बालू का टेस्ट होने के बाद ऐसा लगता है कि पुल बनाने वाले पत्थर बाहर से इकट्ठा किए गए. साइंस चैनल की थ्योरी पुल के प्राकृतिक रूप से बनने की अटकलों को खारिज करती है.

अमेरिकी टीवी शो के पुरातत्वविदों के मुताबिक भारत और श्रीलंका के बीच 30 किमी लंबी एक रेखा चट्टानों से बनी है जिसमें चट्टानें सात हजार साल पुरानी हैं जबकि जिस बालू पर ये चट्टानें टिकी हैं वो चार हजार साल पुरानी हैं.

नासा की सैटेलाइट इमेज और दूसरे सबूतों के आधार पर ही विशेषज्ञ ये मानते हैं कि चट्टानों और बालू की उम्र के पीछे कोई कहानी जरूर छिपी है जो रामसेतु के मानवनिर्मित होने की आस्था को आधार देती है.

रामायण में ये वर्णन है कि श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए वानर सेना को पुल बनाने के लिए कहा. वानर सेना दूर-दूर से पत्थर लाकर समुद्र की बालू पर श्रृंखलाबद्ध तरीकों से रखते हुए पुल का निर्माण करती चली गई.

तभी चट्टानों और बालू की उम्र में फर्क दिखाई दे रहा है. अगर ये प्राकृतिक निर्मित होता तो फिर दोनों की उम्र में फर्क नहीं होता.

अमेरिकी सांइस चैनल के शो प्रोमो के बाद ही रामसेतु तोड़ने का विरोध करने वाले हिंदू संगठनों को अपने पक्ष और तर्क में विज्ञान का भी सबूत मिल गया. सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने तो बाकायदा साइंस चैनल के ट्वीट को शेयर करते हुए जयश्रीराम ट्वीट किया.

बहरहाल जिस रामसेतु को समुद्र की लहरें सात हजार साल के ज्यादा समय से मिटा नहीं सकीं उसे सियासत ने ‘कंबन रामायण’ का हवाला देते हुए तोड़ने की व्यूह रचना कर ली थी.