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शिक्षा बोर्डों में चल रही है नंबरों की जंग और पिस रहे हैं छात्र

जो छात्र 100 नंबर हासिल कर रहे थे, वो अब 110 नंबर पा रहे हों

Prashant Bhattacharji Prabhat Singh

(संपादक की कलम से-ये लेख पहली बार 11 जुलाई 2016 को छपा था. हम इसे फिर से पेश कर रहे हैं क्योंकि दिल्ली हाई कोर्ट ने सीबीएसई को आदेश दिया है कि वो नंबर कम करने का सिस्टम फिलहाल बनाए रखे. जिसके बाद सीबीएसई ने बारहवीं के छात्रों के इम्तिहान के नतीजे फिलहाल रोक लिए हैं.)

79=95


अगर हम ये दावा करेंगे तो आप शायद हंसकर इसे टाल देंगे. लेकिन हम फिर भी आपसे ये दावा करेंगे कि 80=95, 81=95 और 94=95 होता है, तो आप ये कहेंगे कि हमें जरा भी गणित नहीं आती. यकीन जानिए ऐसा बिल्कुल नहीं है.

लेकिन सीबीएसई ने नंबर देने का ऐसा सिस्टम लागू किया है, जिसमें 79 से लेकर 94 तक नंबर पाने वाले सभी लोगों को 95 नंबर हासिल करने के बराबर ही माना जाता है. कई मामलों में तो जिन लोगों ने 95 से ज्यादा नंबर हासिल किए हैं, उनके नंबर भी घटाकर बाकियों के बराबर किए जाते हैं. दूसरे विषयों में भी ऐसे ही नंबर दिए जा रहे हैं.

मजाक बन गए हैं बोर्ड एग्जाम

सीबीएसई, आईसीएसई और आईएससी के कई लोगों से हमारी इस बारे में बात हुई. इसके अलावा हमने दूसरे राज्यों के शिक्षा बोर्ड के कई सालों में हुए इम्तिहान में हजारों छात्रों के नंबर के आंकड़ों की पड़ताल की. इससे पता चला है कि बोर्ड के इम्तिहान हमारे देश में मजाक बन गए हैं. भले ही वो सीबीएसई का हो, आईसीएसई का हो या फिर आईएससी का. नंबर ऐसे ही बेतरतीब तरीके से बढ़ाए गए. नंबर किस आधार पर दिए जाते हैं, ये बात भी साफ नहीं. छात्रों की किस्मत का भी इम्तिहान में बड़ा रोल हो गया है.

शिक्षा बोर्ड नंबर बांटने के कारखाने बन गए हैं

हमने छात्रों को दिए गए नंबरों की पड़ताल की तो पता चला कि जो नंबर इम्तिहान में दिए जा रहे हैं, वो किसी पैमाने पर कसे नहीं जा सकते. तमाम शिक्षा बोर्डों के बीच मुकाबला होता है. राज्य सरकारें भी अच्छे नतीजे दिखाकर अपनी इमेज चमकाना चाहती हैं. ऐसे में जो शिक्षा बोर्ड हैं वो नंबर बांटने के कारखाने बन गए हैं. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि एक ही राज्य के 80 फीसद छात्रों ने देश के टॉप के कॉमर्स कॉलेज में दाखिला हासिल कर लिया. बाकी बोर्ड के छात्रों को इसका बमुश्किल मौका मिला.

ये है गड़बड़ी की वजह

कॉपी जांचने में कुछ तो इकतरफा नंबर दिए जाते हैं. लेकिन नंबर देने में इतने बड़े पैमाने पर गड़बड़ी की बड़ी वजह नंबर देने के अलग-अलग बोर्ड के पैमाने हैं. नंबर देने में थोड़ा-बहुत हेर-फेर तो चलता है. नंबर में मॉडरेशन इसलिए किया जाता है कि साल-दर-साल इम्तिहान के पर्चे मुश्किल हो जाते हैं, ऐसे में पास हुए छात्रों के आंकड़े में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव न हो, इसलिए नंबर बढ़ाए जाते हैं.

क्या है ग्रेड इन्फ्लेशन

मगर बदकिस्मती से छात्रों के पास होने की तादाद बेहद इकतरफा तरीके से बढ़ाई जा रही है. इसे ग्रेड इन्फ्लेशन कहा जाता है. इससे बोर्ड इम्तिहान का स्तर बेहद गिर गया है. आंकड़ों के लिहाज से भी ये निचले स्तर पर चला गया है.

हाल ये है कि जो टर्म ग्रेड का सिस्टम है, वो भी भुलावे में ही डालने वाला है. ये तभी ठीक है जब कुछ सालों पहले जो छात्र 100 नंबर हासिल कर रहे थे, वो अब 110 नंबर पा रहे हों. लेकिन ऐसा होता नहीं है. अब चूंकि अधिकतम नंबर 100 ही हो सकते हैं, या फिर सीबीएसई के 10वीं के इम्तिहान में ग्रेड A ही मिल सकता है, तो बाकियों के नंबर ऐसे ही बेतरतीब तरीके से बढ़ाए जा रहे हैं. इसीलिए बहुत ज्यादा छात्रों को 90 फीसद से ज्यादा नंबर मिल रहे हैं. यानी आज की तारीख में 100 नंबर आज से कुछ सालों के 100 नंबर के मुकाबले काफी कम पैमाने पर थे.

कैसे चलेगा पता पढ़ाई में कौन है अच्छा

अब दिक्कत ये है कि अगर ज्यादातर छात्रों के नंबर 90 और 100 के बीच में होंगे, तो ये फैसला करना मुश्किल होगा कि पढ़ाई में अच्छा कौन है और खराब कौन? ऐसी हालत में अच्छे शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेने में भी उन्हें दिक्कत होगी. इसीलिए हमें बात घुमा-फिराकर कहने के बजाय सीधे से ये कहना चाहिए कि ये असल में ग्रेड के साथ खिलवाड़ है.

बोर्ड के अधिकारियों से बातचीत में ये बात तो साफ तौर से सामने आई कि नंबर देने और घटाने बढ़ाने में कोई पैमाना नहीं लागू होता. उन्होंने माना कि सीबीएसई में जो 30 नंबर प्रैक्टिकल के होते हैं, वो सिर्फ नंबर बढ़ाने के काम में इस्तेमाल होते हैं. इनका छात्रों की काबिलियत से कोई लेना-देना नहीं होता.

ये छात्रों से नाइंसाफी है

एक अध्यापक जो आईसीएसई के चीफ को ऑर्डिनेटर रह चुके हैं, उन्होंने कहा कि कुछ 'की-वर्ड' हैं, जिनकी बुनियाद पर नंबर घटाए बढ़ाए जाते हैं. उन्होंने साफ माना कि ये छात्रों से नाइंसाफी है. साल दर साल नंबर बांटने का तरीका और की-वर्ड दोनों बदल जाते हैं. इसमें जरा भी पारदर्शिता नहीं है. उन्होंने बायोलॉजी विषय की मिसाल दी. उन्होंने कहा कि कुछ सालों पहले तक ऑस्मॉसिस या परासरण के लिए सॉल्वेंट शब्द ज्यादा इस्तेमाल होता था, पानी नहीं. यही सही माना जाता था. लेकिन कुछ सालों पहले अचानक से परिभाषा बदलकर पानी शब्द को सही मान लिया गया.

मार्किंग का जो सिस्टम बोर्ड में लागू है, वो किसी भी विषय के मुख्य परीक्षक पर निर्भर करता है. कॉपी जांचने वालों के पास वक्त बहुत कम होता है. ऐसे में नंबर भी बेतरतीबी से दिए जाते हैं. आईसीएसई के एक केस की अक्सर मिसाल दी जाती है, जिसमें कॉपी खोले बिना ही छात्रों को नंबर दे दिए गए थे. आम तौर पर होना ये चाहिए कि परीक्षक जब कॉपी जांच लें तो मुख्य परीक्षक को बीच-बीच में से उठाकर कॉपी की पड़ताल करनी चाहिए. लेकिन ऐसा होता नहीं. आम तौर पर मुख्य परीक्षक, बाकी लोगों से कह देता है कि वो अपनी मर्जी से नंबर दे दें.

सारी कॉपी पानी में भीगी हुई मिली

इस अध्यापक ने बताया कि एक बार तो बायोलॉजी की सारी कॉपी पानी में भीगी हुई आई थीं. उनकी स्याही बह गई थी. जब उन्होंने इस बारे में मुख्य परीक्षक से बात की, तो मुख्य परीक्षक ने कहा कि सभी छात्रों को औसत नंबर दे दें.

इस अध्यापक ने ये भी बताया कि शब्दों और मात्रा की गलतियों पर किसी के नंबर नहीं काटे जाते. अगर गलत हिज्जे लिखा है, और उसका उच्चारण सही शब्द जैसा है, तो उस छात्र को पास कर दिया जाता है. कुछ खास शब्द देखकर ही नंबर बांटे जाते हैं. अगर किसी छात्र ने बिल्कुल सही जवाब लिखा है, मगर की-वर्ड नहीं लिखे, तो उसके नंबर काट लिए जाते हैं.

ऐसे मिलती है गड़बड़ छिपाने में मदद

आईसीएसई और आईएससी के इम्तिहान कराने वाली संस्था सीआईएससीई एक निजी संस्थान है. वो सीबीएसई की तरह आरटीआई के दायरे में नहीं आती. यानी वो छात्रों को आन्सर शीट की कॉपी भी नहीं दिखाते. इससे भी इकतरफा नंबर देने की आशंका बढ़ जाती है. नंबर बांटने में गड़बड़ी छुपाने में आसानी होती है.

सीबीएसई का हाल भी कोई अच्छा नहीं. सीबीएसई के एक सीनियर अधिकारी ने ही बताया कि सीबीएसई पर अक्सर दबाव रहता है कि वो देश की शिक्षा व्यवस्था की अच्छी तस्वीर पेश करे. दूसरे राज्यों के बोर्ड से भी उसका कड़ा मुकाबला रहता है. इसीलिए सीबीएसई में अक्सर बढ़ाकर नंबर दिए जाते हैं.

एक बड़े मशहूर सीबीएसई बोर्ड वाले स्कूल के प्रशासक ने कहा कि सीबीएसई ने लोकप्रिय विषयों की कॉपी दोबारा जांचने पर रोक लगाई हुई है. क्योंकि काबिल परीक्षकों की भारी कमी है और नंबर ऐसे ही जिसका जैसे मन हो, वैसे ही दिए जाते हैं. ऐसे में जिन्होंने ये ज्यादा पसंदीदा विषय चुने हों, उन छात्रों को नुकसान होता है. जबकि यही छात्र स्कूल के अंदरूनी इम्तिहान में ज्यादा अच्छे नंबर हासिल करते हैं. मगर बोर्ड में यही छात्र फिसड्डी साबित हो जाते हैं.

90 फीसद से ज्यादा नंबर हासिल करने वाले छात्र बढ़े

हमने जब तमाम बोर्ड के नतीजों की पड़ताल की, तो कुछ बातें मोटे तौर पर सामने आईं हैं. 2004 में जहां 90 फीसद से ज्यादा नंबर पाने वाले छात्र एक फीसद से भी कम हुआ करते थे, आज ये आंकड़ा 8 प्रतिशत से ज्यादा हो गया है. नीचे के ग्राफ से आप समझ सकते हैं कि सीबीएसई के सभी विषयों के छात्रों के नंबर के आंकड़े किस तरह से बदल रहे हैं. 90 फीसद वाले छात्रों में 8 प्रतिशत का इजाफा हुआ है.

2009 से सीबीएसई के इम्तिहान में बहुत बड़ी तादाद में छात्रों को 95 नंबर मिलते रहे हैं. ये हाल सभी विषयों का है. ऐसा भी लगता है कि सीबीएसई और आईएससी दोनों ही हर हाल में ज्यादा से ज्यादा छात्रों को पास करना चाहते हैं.

नीचे का ग्राफ 2015 के सीबीएसई इम्तिहान में गणित के नंबरों का है. आप इसमें देखें कि 95 नंबर पाने वालों का आंकड़ा कितना बढ़ा है. इसकी वजह यही है कि 79 से 94 नंबर पाने वाले हर छात्र को औसतन 95 नंबर दे दिए गए. इससे सीबीएसई के नतीजे बेहतर दिखने लगे. 18 से 33 नंबर के बीच के आंकड़े गायब हैं. साफ है कि छात्रों को ग्रेस मार्क दे देकर पास कर दिया गया.

आप इसी तरह पिछले दस सालों के आंकड़े देख सकते हैं.

इसी तरह हमने देखा कि आईएससी में पिछले कुछ सालों से अंग्रेजी में 99 फीसद छात्र पास होते जा रहे हैं. शायद इसका ये मतलब है कि अंग्रेजी में फेल होने का मतलब इम्तिहान में फेल होना होता है, इसीलिए कमोबेश सभी छात्रों को अंग्रेजी में पास कर दिया जा रहा है.

कुछ खास विषयों में नंबर देने में कुछ खास इलाकों को तरजीह दी जाती है. जैसे अंग्रेजी में दिल्ली के छात्र ज्यादा अच्छे नंबर लाते हैं. सीबीएसई के इम्तिहान में दिल्ली के करीब 18 फीसद छात्रों को अंग्रेजी में 95 नंबर दिए गए. जबकि दिल्ली के बड़े और मशहूर स्कूलों में बेहद कम छात्र ऐसे होते हैं जो 90 नंबर भी ला पाएं.

टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि दिल्ली के छात्रों को अंग्रेजी में कम से कम 12 नंबर ज्यादा दिए जाते हैं. जबकि इसी लेवल पर दूसरे राज्यों के छात्रों को जीरो मिलता है. दूसरे विषयों में भी अलग अलग इलाकों से ऐसा भेदभाव होता है.

आईसीएसई और आईएससी के इम्तिहान में 1997 से नतीजों में कुछ खास नंबर नहीं दिखते

पिछले बीस सालों में आईसीएसई में कई लाख छात्रों ने इम्तिहान दिया होगा. लेकिन पूरे देश में इस दौरान एक भी छात्र को 93, 91, 89, 87, 85, 83 नंबर नहीं मिले. ऐसे करीब तीस नंबर हैं, जो कभी किसी भी छात्र को नहीं मिले. साफ है कि नंबर देने की प्रक्रिया में भारी गड़बड़ी है.

नीचे के ग्राफ से आप समझ सकते हैं कि आईएससी के 2015 के इम्तिहान में छात्रों को किस तरह नंबर दिए गए. इसमें कुछ नंबर आपको साफ तौर से लापता दिखेंगे. वहीं कुछ आंकड़ों पर भारी जोर होगा. जैसे सबसे ज्यादा 40 नंबर दिए गए हैं. ये आएससी में पासिंग मार्क है. यानी यहां भी छात्रों को सीबीएसई की तरह ही पास करने पर काफी जोर था.

कुछ खास विषयों में ज्यादा नंबर मिलते हैं

फिजिकल एजुकेशन और कंप्यूटर साइंस जैसे कुछ विषय हैं जिनमें छात्रों को खूब नंबर दिए जाते हैं. सीबीएसई हो या आईएससी के इम्तिहान, दोनों में जो छात्र ये विषय लेते हैं, उनकी बल्ले-बल्ले रहती है. इसमें एक तिहाई से ज्यादा छात्रों को 90 या इससे ज्यादा नंबर मिलते हैं. साफ है कि छात्र इन विषयों में इतने काबिल तो नहीं हो जाते. ये तो नंबर देने में गड़बड़ी का ही नतीजा लगता है. इनमें ज्यादा नंबर मिलने से ये दोनों ही विषय छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय हो रहे हैं. 2012 में आईएससी में केवल पांच फीसद छात्र फिजिकल एजुकेशन सब्जेक्ट लेने वाले थे, 2016 में ये आंकड़ 16 प्रतिशत पहुंच गया. छात्र अर्थशास्त्र जैसे कम नंबर दिलाने वाले विषय छोड़कर फिजिकल एजुकेशन ले रहे हैं, ताकि ज्यादा नंबर ले सकें. ये छात्रों को नंबर देने की प्रक्रिया पर सवाल खड़े करने जैसा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी मिसालें मिलती हैं.

वैसे ग्रेड बांटने में बेतरतीबी और गड़बड़ी सिर्फ भारत में हो रही हो ऐसा नहीं. अमेरिका में भी तमाम यूनिवर्सिटी में ऐसा होने की शिकायतें आईहैं. 2014 में प्रिंसटन यूनिवर्सिटी को ए ग्रेड पाने वाले छात्रों की तादाद पर पाबंदी की अपनी नीति खत्म करनी पड़ी थी. छात्रों ने इसके लिए दबाव डाला था. उनका कहना था कि बाकी यूनिवर्सिटी में ऐसा नियम नहीं है. इसलिए वहां के छात्र ज्यादा ए ग्रेड हासिल कर लेते हैं. फिर उनसे मुकाबला कठिन हो जाता है.

यही वजह है कि देश के बड़े संस्था बोर्ड के इम्तिहान में मिले नंबर पर भरोसा करने की आदत बदल रहे हैं. हाल के आईआईटी-जेईई के इम्तिहान के पैमाने को बदल दिया गया. क्योंकि अशोक मिश्रा कमेटी के मुताबिक इन नंबरों में इतने बड़े पैमाने पर हेर-फेर होता है कि उससे निपट पाना मुश्किल होता है. इसी तरह बिट्स पिलानी जैसे संस्थानों ने अपनी खुद की प्रवेश परीक्षा शुरू कर दी है. इससे पता चला है कि कुछ बोर्ड किस तरह से अपने छात्रों को इन संस्थानों में प्रवेश दिलाने के लिए उनके नंबर बढ़ाया करते थे.

ग्रेड में हेराफेरी के इस मसले को गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है. ये ठीक उसी तरह है जैसे अर्थव्यवस्था में लोगों को मुफ्त में चीजें या पैसे बांटे जाएं. ऐसा होने पर छात्र कम मेहनत करते हैं. इससे देश की शिक्षा व्यवस्था भी खराब होती है. साथ ही हमारे कामगारों का स्तर भी आगे चलकर गिरता जाता है. इससे काबिल लोग भी हतोत्साहित होते हैं. दुनिया में एक ही पैमाना चलता है, जो ज्यादा काबिल और मेहनती है उसे इसका फल मिलना चाहिए. लेकिन ग्रेड बढ़ाने से इस नियम की अनदेखी होती है.