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CBI के बुरे दिन: आखिर किस चीज ने देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी को इतना बीमार कर दिया

इस विवाद का कुछ हद तक हल लोकपाल की स्थापना से हो सकता है. लेकिन देश के हुक्मरान और कमोबेश सभी सियासी पार्टियां इसे लेकर जरा भी हड़बड़ी में नहीं हैं.

NK Singh

सीबीआई की उत्पत्ति अंग्रेज सरकार के 1941 के बनाए कानून स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट एक्ट से हुई है. बाद में, यानी 1946 में इस कानून में फेरबदल कर के इसका नाम दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट एक्ट (डीएसपीई) कर दिया गया था. हालांकि सीबीआई की स्थापना एक अप्रैल 1963 को भारत सरकार के एक प्रस्ताव के जरिए हुई थी, लेकिन, सीबीआई के पास अधिकार क्षेत्र और जांच के जो अधिकार हैं, वो आज भी इसे 1946 के डीपीएसई एक्ट से ही मिलते हैं.

सीबीआई के रूप में एक केंद्रीय जांच एजेंसी की स्थापना का फैसला उस वक्त के गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लिया था. उन्होंने ये फैसला सांसद के. संथानम की अगुवाई वाली भ्रष्टाचार निरोधक कमेटी की सिफारिश पर लिया था. पहले गृह मंत्री और फिर प्रधानमंत्री के तौर पर लाल बहादुर शास्त्री ने कड़े फैसले लेते हुए कई बड़े नेताओं को केवल जांच रिपोर्ट के आधार पर पद छोड़ने के लिए मजबूर किया था. शास्त्री ने इसके लिए अदालत से मुजरिम साबित होने का इंतजार नहीं किया.


लाल बहादुर शास्त्री की अगुवाई में सीबीआई को भरोसेमंद और काबिल जांच एजेंसी बनाने की मजबूत बुनियाद रखी गई. उस दौरान विश्वसनीय और निष्पक्षता को समर्पित अधिकारियों को सीबीआई में भर्ती किया गया. जल्द ही सीबीआई ने अपनी कार्यप्रणाली से आला दर्जे की एजेंसी का रुतबा हासिल कर लिया. अपनी निष्पक्षता और विश्वसनीयता के चलते इस जांच एजेसी ने जनता का भरोसा भी जीता. यही वजह रही कि न्यायिक जांच के बजाय अपराधों की सीबीआई जांच की मांग ज्यादा होने लगी.

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अफसोस की बात ये है कि आज सीबीआई की ये छवि छिन्न-भिन्न हो चुकी है. इसमें कोई दो राय नहीं कि सीबीआई आज अपने सबसे भयानक संकट के दौर से गुजर रही है. इसमें भी कोई दो राय नहीं कि सीबीआई का पतन कोई एक दिन या एक सरकार के राज में नहीं हुआ.

इस जांच एजेंसी को पहला झटका राजीव गांधी के कार्यकाल में लगा था. 1985-86 मे राजीव सरकार ने सिंगल डायरेक्टिव नाम के आदेश के जरिए सीबीआई की ताकत को कमजोर किया. इस आदेश के जरिए फैसले लेने वाले अधिकारियों के खिलाफ जांच के लिए सीबीआई को संबंधित मंत्रालय या विभाग से इजाजत को जरूरी बना दिया गया था.

18 दिसंबर 1997 को विनीत नारायण केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए सरकार के सिंगल डायरेक्टिव के आदेश को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया. इससे अदालत ने न केवल सीबीआई बल्कि सीवीसी और प्रवर्तन निदेशालय की भी विश्वसनीयता बहाल की.

पर, बात यहीं खत्म नहीं हुई. 2003 में सीवीसी एक्ट के जरिए उस वक्त की सरकार ने सिंगल डायरेक्टिव के इस आदेश को दोबारा लागू कर दिया. हालांकि अदालत ने इसे दोबारा निरस्त कर दिया. फिर भी बात खत्म नहीं हुई. इसके बाद संसद के पिछले मॉनसून सत्र में भ्रष्टाचार निरोधक कानून में बदलाव करते हुए हर तरह के सरकारी अधिकारियों के खिलाफ जांच शुरू करने से पहले सीबीआई के लिए इजाजत लेने की शर्त जरूरी कर दी.

कानूनी नजरिए से ये सीबीआई के लिए बहुत बड़ा झटका था. जितनी जल्दी इस कानून को खत्म कर दिया जाए, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में जीत के लिए उतना ही अच्छा होगा.

राजनीतिक तौर पर सीबीआई को इमरजेंसी से पहले और उसके बाद के दौर में बड़े संकट का सामना करना पड़ा. तब खुद को कानून समझने वाले संजय गांधी फरमान जारी किया करते थे. मामला तब और पेचीदा हो गया जब सीबीआई के नाम पर दूसरी जांच एजेंसियों ने छापे मारने और जांच-तलाशी करनी शुरू कर दी.

राजीव गांधी के दौर की शुरुआत उनकी 'मिस्टर क्लीन' इमेज के साथ हुई थी. लेकिन, जल्द ही उनका नाम बोफोर्स घोटाले में आ गया. वीपी सिंह के राज में सीबीआई को थोड़ी राहत मिली. पर, वीपी सिंह की सरकार ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं रह सकी. चंद्रशेखर और पी वी नरसिम्हा राव के दौर में सीबीआई ने बहुत बुरा वक्त झेला. उस वक्त चंद्रास्वामी जैसे विवादित शख्स बड़े फैसले लिया करते थे.

मुझे खुद सियासी दखलंदाजी का खामियाजा भुगतना पड़ा, जब मुझे जांच में दखल का विरोध करने के बाद दूसरी बार सीबीआई से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. दूसरी बार तो मुझे अपना सम्मान और सीबीआई की इज्जत बचाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई में सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिली.

ये हैरानी की बात है कि सीबीआई में जो गृह युद्ध हम आज देख रहे हैं, जांच एजेंसी ने इतने बुरे दिन कभी नहीं देखे.

अभी बात ज्यादा पुरानी नहीं हुई है, जब सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को 'पिंजरे में बंद तोता' कहा था. लेकिन, अब से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि सीबीआई निदेशक और स्पेशल डायरेक्टर के बीच के मतभेद इतने खुलकर सामने आए हों. पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि इस जांच एजेंसी ने अपने ही स्पेशल डायरेक्टर के खिलाफ भ्रष्टाचार का केस दर्ज दिया हो. उनके ऊपर किसी मामले के आरोपी से करोड़ों की रिश्वत लेने के आरोप लगाए हों. ऐसा पहले नहीं हुआ कि आरोपों के घेरे में आए अधिकारी ने कैबिनेट सचिव को लिखित शिकायत में अपने ही निदेशक के खिलाफ भ्रष्टाचार और साजिश रचने के आरोप लगाए हों.

आज के विवाद की शुरुआत करीब दो साल पहले हुई थी. तब कर्नाटक कैडर से आने वाले सीबीआई निदेशक अनिल सिन्हा रिटायर होने वाले थे. तब स्पेशल डायरेक्टर आर.के. दत्ता का प्रमोशन होना और सीबीआई निदेशक बनना कमोबेश तय माना जा रहा था. आर.के. दत्ता की छवि एक काबिल और भरोसेमंद अधिकारी की थी. वो लंबे वक्त से सीबीआई से जुड़े भी रहे थे. लेकिन, सरकार ने उन्हें सीबीआई निदेशक बनाने के बजाय नवंबर 2016 में गृह मंत्रालय में विशेष सचिव बनाकर सीबीआई से बाहर का रास्ता दिखा दिया. राहत की बात रही कि दत्ता के कैडर वाले राज्य ने उन्हें अपने यहां का पुलिस महानिदेशक बना दिया.

दिसंबर 2016 में सरकार ने उस वक्त सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक राकेश अस्थाना को अंतरिम निदेशक बना दिया. अस्थाना, आर.के. दत्ता के साथ काफी दिनों से काम कर रहे थे. सरकार के इस फैसले से जो विवाद हुआ, उससे आराम से बचा जा सकता था. क्योंकि बाद में अस्थाना को सीबीआई में नंबर दो और फिर नंबर 1 अधिकारी बनाने की कोशिश की गई. इसका नतीजा आज हम सब के सामने हैं.

ये हालात काबू से बाहर नहीं होते, अगर सरकार ने विवाद में वक्त पर दखल देते हुए कमान अपने हाथ में ले ली होती. लेकिन, कुछ तो अपनी मजबूरियां और कुछ सीवीसी एक्ट के प्रावधान थे कि सरकार के इस मामले में दखल देने को लेकर हाथ बंधे हुए थे. इसमे कोई दो राय नहीं कि सीवीसी एक्ट से सीबीआई को मूल्यवान सुरक्षा मिलती है. लेकिन इससे सीबीआई की राह में कुछ रोड़े भी खड़े हो गए हैं.

राकेश अस्थाना

डीपीएसई एक्ट के मुताबिक, सीवीसी के पास सीबीआई के 'अधीक्षण' यानी निगरानी का अधिकार है. भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत सीबीआई जो जांच करती है, उसकी निगरानी सीवीसी के पास होती है. लेकिन, इस एक्ट के तहत, बाकी मामलों में सीबीआई की निगरानी का काम सरकार के पास है.

यानी, सीबीआई के ऊपर नियंत्रण और निगरानी की कुछ जिम्मेदारी सरकार के पास है, तो कुछ सीवीसी के पास. मौजूदा संकट की बड़ी वजह की बुनियाद सीवीसी एक्ट के ये प्रावधान और सीबीआई पर नियंत्रण की दोहरी व्यवस्था है.

सीबीआई का मौजूदा संकट, आर के दत्ता की जगह आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक बनाने से शुरू हुआ था. वर्मा को एक फरवरी 2017 को सीबीआई डायरेक्टर नियुक्त किया गया. जब राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा के बीच लड़ाई खुल कर सामने आ गई थी, तब भी सरकार ने हालात संभालने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया.

15 अक्टूबर को विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार का केस दर्ज होने के बाद सरकार ने जब इस मामले में दखल दिया भी, तो बड़े खराब तरीके से. जिस तरह से 23-24 अक्टूबर की दरम्यानी रात को सीबीआई में 'तख्तापलट' किया गया, वो हैरान करने वाला था. आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना को उनकी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया. सीबीआई के प्रतिष्ठित मुख्यालय की घेरेबंदी कर दी गई और संयुक्त निदेशक एम नागेश्वर राव को सीबीआई का अंतरिम निदेशक नियुक्त कर दिया गया.

नागेश्वर राव अपनी नई जिम्मेदारी संभालने आधी रात को सीबीआई मुख्यालय पहुंचे. काम संभालते ही उन्होंने संयुक्त निदेशक, डीआईजी, एसपी और डीएसपी रैंक के कई अधिकारियों को इधर से उधर कर दिया. जिन अधिकारियों का तबादला अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव ने किया, उनमें स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले के जांच अधिकारी भी शामिल थे. इस मामले की निगरानी कर रहे संयुक्त निदेशक को भी हटा दिया गया. तबादले के कई आदेश केंद्रीय सतर्कता आयुक्त ने जारी किए, जो कि सीवीसी के अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात है.

खुद को छुट्टी पर भेजे जाने के खिलाफ आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. इससे पहले राकेश अस्थाना अपने खिलाफ दर्ज भ्रष्टाचार के केस को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दे ही चुके थे.

26 अक्टूबर को अपने अंतरिम आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी को आलोक वर्मा के खिलाफ दो हफ्ते में जांच पूरी करने का निर्देश दिया. इस जांच की निगरानी सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस ए के पटनायक को सौंप दी गई.

सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव को कोई अहम और नीतिगत फैसला लेने से भी मना कर दिया. इस मामले की अगली सुनवाई 12 नवंबर को होगी. दिल्ली हाई कोर्ट ने राकेश अस्थाना के खिलाफ केस में यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया है.

सीबीआई की विश्वसनीयता फिर से बहाल करने के लिए हमें गहराई से सोचना होगा. जांच एजेंसी अभी भी डीपीएसई एक्ट के तहत काम करती है. विनीत नारायण केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद सीवीसी एक्ट बनाया गया था. 2014 में लोकपाल एक्ट बन गया. इन दोनों कानूनों में कुछ प्रावधान सीबीआई के काम-काज से भी जुड़े है. जबकि सीबीआई का अपना कोई कानून नहीं है.

जसवंत सिंह की अगुवाई मे संसद की लेखानुमान समिति (1991-92) ने सिफारिश की थी कि सीबीआई के अधिकार तय करने और इसे आधिकारिक मान्यता के लिए एक नया कानून बनाया जाना चाहिए. इससे जांच एजेंसी को कई राज्यों से ताल्लुक रखने वाले मामलों की जांच के लिए कानूनी अधिकार भी हासिल होगा. समिति ने कहा था कि अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो जांच एजेंसी के तौर पर सीबीआई के अधिकार दिनों-दिन कमजोर होते रहेंगे. इससे इसका असर कम होगा. मौजूदा संकट में हम लेखानुमान समिति की ये भविष्यवाणी आज हम अक्षरश: सच होते देख रहे हैं.

इस विवाद का कुछ हद तक हल लोकपाल की स्थापना से हो सकता है. लेकिन देश के हुक्मरान और कमोबेश सभी सियासी पार्टियां इसे लेकर जरा भी हड़बड़ी में नहीं हैं. अन्ना हजारे के आंदोलन की वजह से लोकपाल एक्ट पांच साल पहले ही पास हो गया था. लेकिन आज तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकी है.

(लेखक सीबीआई में संयुक्त निदेशक रहे थे. वो पुलिस रिसर्च ऐंड डेवेलपमेंट ब्यूरो के महानिदेशक पद से रिटायर हुए थे. इस वक्त जनता दल यूनाइटेड की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं.)