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सवर्णों के लिए कारगर नहीं होगा आरक्षण का यह फॉर्मूला

ओबीसी और सवर्ण जातियां दोनों इससे खुश नहीं नजर आएंगे, जिन्हें पहले से ऐसा लग रहा है कि वे मौजूदा हालात में पीड़ित हैं.

G Pramod Kumar

आगामी लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए सवर्ण जातियों के गरीब लोगों को आरक्षण देने का भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार का फैसला निश्चित तौर पर राजनीतिक जान पड़ता है. हालांकि, इस फैसले की तर्कहीनता और संभावित उलझनों की तरफ ध्यान नहीं दिया गया है.

आरक्षण की बजाय नौकरियों के अवसरों को बढ़ाने की जरूरत


ऐसे देश में जहां बेरोजगारी बीते दिसंबर में 27 महीने के उच्च स्तर पर (सीएमआईई की रिपोर्ट के मुताबिक) पहुंच गई और 50 करोड़ लोगों के पास किसी तरह का रोजगार उपलब्ध नहीं है, वहां पर नई नौकरियां या काम पैदा किए बिना 10 फीसदी आरक्षण मुहैया कराने का किसी तरह का मतलब नहीं बनता है. लोगों में उत्साह पैदा करने की बजाय बेरोजगारी की बढ़ती दर और बड़ी संख्या में नए रोजगार पैदा किए बिना इस तरह का फैसला जाहिर तौर पर सामान्य कैटेगरी के उम्मीदवारों के बीच चिंता और आक्रोश को बढ़ावा देगा. हालांकि, मुमकिन है कि इस फैसले से फिलहाल एक तबके को खुशी और संतुष्टि का अहसास हो रहा होगा.

सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में पहले से ही पिछड़ी जाति और अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए 50 फीसदी सीटें आरक्षित हैं. जाहिर तौर पर ऐसे में सामान्य कैटेगरी के लिए आधे अवसर ही मौजूद हैं. इनमें से और 10 फीसदी हिस्सा निकलने का मतलब यह होगा कि सामान्य कैटेगरी वाले फिलहाल जितनी सीटों के हकदार हैं, उनमें एक तरह से तकरीबन 20 फीसदी की गिरावट होगी. इसे बड़ी संख्या माना जा सकता है. विशेष तौर पर नौकरियों से वंचित मार्केट और उच्च स्तर पर निजीकरण के दायरे में पहुंच चुके शिक्षा क्षेत्र के लिए यह आंकड़ा बेहद महत्वपूर्ण है.

संवैधानिक प्रावधानों पर खरा नहीं उतरता है यह फैसला

निश्चित तौर पर केंद्र सरकार के फैसले की बुनियादी जटिलताएं हैं. आरक्षण के संवैधानिक मकसद के संदर्भ में विशेष तौर पर यह बात लागू होती है. हालांकि, 1980 या यहां तक कि 1990 के दशक तक आरक्षण का मूल मकसद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को सहारा देना था और इसका दायरा बढ़ाकर इसमें ओबीसी (पिछड़ी जातियों) को भी शामिल किया गया. हालांकि, इन तमाम प्रावधानों के बीच इस मुद्दे पर किसी तरह के संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं किया गया.

संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति व सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े किसी भी नागरिक की बेहतरी के लिए इस सिलसिले में विशेष 'प्रावधान' किए जाने का प्रावधान किया गया है. अभी तक देश में आरक्षण की जो मौजूदा व्यवस्था है, उसमें संविधान में मौजूद इन प्रावधानों का पालन किया गया है. हालांकि, सामान्य कैटेगरी के लोग (जिन्हें सवर्ण जातियां कहा जाता है) जब इस नियम के तहत आरक्षण का कोटा हासिल करेंगे तो यह पूरा मामला विरोधाभासी हो जाता है.

अगर हम संवैधानिक स्तर पर बात करें तो आरक्षण की सुविधा सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के लिए है, न कि गरीबी दूर करने के लिए. आर्थिक पिछड़ेपन पर खास तौर पर किसी तरह का जिक्र नहीं है. बहरहाल, इस मुद्दे पर काफी चर्चा हो चुकी है और जब तक यह मामला तार्किक परिणति पर नहीं पहुंच जाता, इस पर चर्चा और विचार-विमर्श का सिलसिला जारी रहेगा.

हालांकि, इसका अंतर्निहित खतरा यह है कि सामान्य कैटेगरी के लिए जो चीज फायदेमंद नजर आ रही है, वह दरअसल उनके लिए बिल्कुल भी फायदेमंद नहीं है. उनके लिए आधी सीटों का मामला पहले से ही सीमित है और इसके बाद उनके मौजूदा अवसरों के 20 फीसदी हिस्से की कटौती इस कैटगेरी के लिए बेहतर आइडिया नहीं साबित हो सकती है.

हालांकि, आरक्षण के इस नए प्रस्ताव से जुड़े प्रस्तावित विधेयक के तमाम पहलुओं के बारे में अभी तक विस्तार से जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है, लेकिन मोटे तौर पर यह माना जा सकता है कि पिछली परंपराओं की तर्ज पर इस आरक्षण में नौकरियों के अलावा शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश का मामला भी शामिल होगा.

अगर हम इस तरह की स्थिति की बात करें तो इस सिलसिले में तमिलनाडु का उदाहरण पेश किया जा सकता है, जहां प्रोफेशनल कोर्सेज की 67 फीसदी सीटें पहले से ही आरक्षित हैं. हालांकि, आरक्षण की 50 फीसदी सीमा को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का पालन करने की खातिर राज्य सरकार ने कुल सीटों की संख्या बढ़ा दी है. अगर इसमें 10 फीसदी को जोड़ा जाता है तो सामान्य कैटेगरी के उम्मीदवारों के लिए सिर्फ 23 फीसदी सीटें ही बचेंगी.

बहरहाल, मुमकिन है कि यह उनकी आबादी के लिहाज से ज्यादा नुकसानदेह नहीं हो, लेकिन अधिकार या अवसर खत्म होने के लिहाज से निश्चित तौर पर यह बड़ा और गंभीर मामला है.

राजनीतिक वजहों से इस समुदाय के नेता इस फैसले को लेकर खुश नजर आ सकते हैं, क्योंकि उनके समुदाय के लोगों को आरक्षण मिल रहा है, जिसकी मांग वे लंबे समय से करते आ रहे हैं. हालांकि, मुमकिन है कि व्यक्तिगत स्तर पर इससे काफी लोगों को असंतुष्टि होगी, क्योंकि यह दरअसल उनके सीमित अवसरों को और कम करता है. लिहाजा, यह फैसला राजनीतिक रूप से कितना लाभ पहुंचाएगा, इसे देखने के लिए इंतजार करना होगा.

जैसा कि कई विशेषज्ञों का कहना था पिछली यूपीए सरकार के दौरान आर्थिक ग्रोथ को लेकर असली दिक्कत यह थी कि इसमें मोटे तौर पर रोजगार में नहीं के बराबर बढ़ोतरी हुई या रोजगार बढ़ोतरी का आंकड़ा संपत्ति के निर्माण के अनुपात में नहीं था. इस लिहाज से मौजूदा शासन में हालत और बदतर हुई है, क्योंकि इस दौरान बेरोजगारी में और बढ़ोतरी देखने को मिली है. ऐसे में आरक्षण की इस तरह की व्यवस्था बनाने का क्या तुक है, जो लोगों के लिहाज से मददगार सीमित अवसरों को भी समाप्त कर देगा? सरकार की तरफ से वास्तविक मदद का नमूना तब देखने को मिलता, जब सीमित कोटा के दायरे में ज्यादा से ज्यादा रोजगार और उच्च गुणवत्ता वाले शैक्षणिक अवसर प्रदान किए जाते.

अब परिणामों के लिहाज से इस कदम की निरर्थकता के बारे में बात करते हैंः एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में गैर-कृषि कार्यबल (जो लोग खेतों में काम नहीं करते हैं) सिर्फ 24 करोड़ है और इनमें से सिर्फ एक तिहाई कार्यबल को ही संगठित रोजगार के दायरे में माना जा सकता है. आरक्षण की नई व्यवस्था में इनमें कुछ ही लोगों को सरकारी नौकरियों का अवसर मिल सकेगा. इसका मतलब ऐसे लोगों की काफी छोटी संख्या है. क्या मोदी सरकार का यह फैसला वास्तव में कृषि संबंधी और असगंठित क्षेत्रों में काम कर रहे 70 फीसदी लोगों के लिए किसी तरह का बदलाव कर पाएगा?

शैक्षणिक/प्रोफेशनल संस्थानों में भी इसी तरह की स्थिति है. अगर कुछ प्रीमियर संस्थानों को छोड़ दें तो भारत में उच्च शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण हो चुका है और इन संस्थानों में सरकारी संस्थानों की तरह इस तरह के आरक्षण का कोई नियम नहीं लागू होता है.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब सरकारी संस्थानों में बिल्कुल भी नए अवसर नहीं हैं, तो आरक्षण की यह नई व्यवस्था (वह भी सामान्य कैटेगरी के लिए) किस तरह से कारगर होगी? गौरतलब है कि मंडल कमीशन को लागू किए जाने के दौर से ही सामान्य कैटेगरी के लोग अपने लिए अवसरों की कमी की शिकायत करते हैं.

कई अन्य तरह की दिक्कतें और खतरे भी पैदा करेगा यह फैसला

इसके अलावा, इस पूरी प्रक्रिया में लाभार्थियों की पहचान से जुड़े संभावित दिक्कतें और खतरे शामिल हैं. नया फैसला भ्रष्टाचार, गड़बड़ियों और फर्जीवाड़े के लिए गुंजाइश बढ़ाएगा. दरअसल, सवर्ण जातियों के लोग ठीक उसी तरह से इस आरक्षण का लाभ उठाने के लिए खुद को गरीब साबित करने का प्रयास करेंगे, जिस तरह से ओबीसी समुदाय के संपन्न लोगों ने इसका लाभ उठाने के लिए कोशिश की थी.

कुल मिलाकर कहें तो यह फैसला निश्चित रूप से ओबीसी समुदाय की संख्या के लिहाज से मजबूत राज्यों- उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और बिहार आदि में राजनीतिक उथलपुथल पैदा करेगा और यहां पर इसका विरोध भी देखने को मिलेगा. वहीं बीजेपी इन राज्यों में सवर्ण जातियों के समर्थन को मजबूत करने और इस समुदाय के ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने की कोशिश करेगी. हालांकि, हकीकत में यह महज व्यर्थ का प्रचार बनकर ही रह जाएगा.

ओबीसी और सवर्ण जातियां दोनों इससे खुश नहीं नजर आएंगे, जिन्हें पहले से ऐसा लग रहा है कि वे मौजूदा हालात में पीड़ित हैं. कांग्रेस, सीपीएम और अन्य पार्टियां इसको ज्यादा तवज्जो नहीं देंगी. दरअसल, इन पार्टियों को पता है कि यह सिर्फ राजनीतिक हावभाव है और मौका मिलने पर वे भी इस तरह का कदम उठाते. एक मामला खाली बोतल जैसा है. इसमें बिल्कुल भी गैस नहीं है.