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विधानसभा चुनावों का असर: अर्थव्यवस्था की स्पीड बढ़ने की उम्मीद

विधानसभा चुनावों में बीजेपी के बेहतर प्रदर्शन से बाजार का भरोसा बढ़ा

Alok Puranik

2017 में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम यूं तो राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा थे. पर इन परिणामों के ठीक बाद शेयर बाजार का बहुत तेजी से उछलना बहुत कुछ अहम संकेत देता है.

गौरतलब है कि 11 मार्च, 2017 को विधानसभा चुनावों के परिणाम आए. इसके बाद होली की छुट्टी. 14 मार्च को शेयर बाजार चुनाव-परिणाम आने के बाद पहली बार खुले और शेयर बाजार ने चुनाव परिणामों पर अपनी खुशी जाहिर की.


मुंबई शेयर बाजार का सूचकांक सेंसेक्स करीब 500 अंक ऊपर 29500 तक गया. वहीं निफ्टी करीब 147 अंक ऊपर 9081 तक गया. निफ्टी का 9000 के मनोवैज्ञानिक स्तर से ऊपर जाना काफी अहम है.

परिणाम और स्टाक बाजार

शेयर बाजार से समूची अर्थव्यवस्था का आकलन तो आम तौर पर नहीं होता. पर शेयर बाजार यह जरूर बताते हैं कि अर्थव्यवस्था को लेकर उम्मीदों का माहौल प्रबल है या आशंकाओं का.

हाल के विधानसभा चुनावों ने एक बात साफ की है कि भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का प्रभाव अभी न सिर्फ बहुत मजबूत है, बल्कि आगामी कई सालों तक उनका असर राजनीति पर महसूस किया जाएगा.

यह बात भाजपा के नेता प्रशंसक कहते तो सामान्य बात थी पर उमर अबदुल्ला का यह कहना कि बीजेपी के खिलाफ 2019 नहीं 2024 के लिए तैयारी की जाए, इस बात की अहमियत को बढ़ा देती है.

स्टॉक बाजार उमर अबदुल्ला से अलग तरह से सहमत है. बाजार का मानना है कि अब तमाम आर्थिक नीतियों में साहसिक कदम उठाए जा सकेंगे.

अब यूपी की विधानसभा के परिणामों के बाद बीजेपी राज्यसभा में अपने और ज्यादा सदस्य ला सकेगी. इससे तमाम नीतिगत फैसलों के रोड़े हटेंगे.

स्टॉक बाजार उम्मीदों और आशंकाओं पर चलता है. स्टॉक बाजार चुनाव 2017 के परिणामों में उम्मीदें इसलिए देख रहा है कि तमाम नीतियों में अब एक निरंतरता रह सकती है.

बदलता आर्थिक विमर्श

बहुत तेजी से आर्थिक विमर्श बदल रहा है. जीतने के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच दिया गया पीएम मोदी का भाषण देखें या इससे पहले के चुनावी भाषण देखें, आर्थिक विमर्श को पीएम मोदी बहुत ही कुशलता से बदल रहे हैं.

पीएम नरेंद मोदी के भाषणों, संवादों पर लगातार नजर रखनेवाले कुछ खास बातों पर गौर कर सकते हैं.

इंदिरा गांधी जैसी बातें 

नोटबंदी के अर्थशास्त्र, राजनीति, समाजशास्त्र को समझने में इनसे मदद मिलती है. नरेंद्र मोदी लगभग वैसी बातें कर रहे हैं, जैसी 1969 में श्रीमती इंदिरा गांधी किया करती थीं.

खुद को गरीबों का चैंपियन बतानेवाली, अमीरों के खिलाफ लगातार मोर्चेबंदी के संकेत देनेवाली. उस दौर में राजा-रजवाड़ो के प्रिवी-पर्स बंद किये गये थे.

तमाम बैंकों को राष्ट्रीयकृत किया गया था. सब यही कहते हुए कि हम गरीबों के लिए हैं. 1971 का चुनाव तो लड़ा ही इस नारे पर गया था-गरीबी हटाओ.

इंदिराजी उन दिनों कहती थीं-मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, मेरे विरोधी नेता कहते हैं, इंदिरा हटाओ.

वाम के रंग में मोदी!

नरेंद्र मोदी के इधर के तमाम बयान-भाषण सुनें-उनका आशय यही था-मैं कहता हूं काला धन हटाओ, मेरे विरोधी नेता कहते हैं मोदी हटाओ.

अमीर-गरीब, कालेधन पर पीएम मोदी के भाषण लगता है कि सीधे तौर पर कार्ल मार्क्स के वर्ग विश्लेषण से प्रेरित हो रहे हैं.

जो बातें वामपंथी नेता सीताराम येचुरी के मुंह से शोभा देतीं, वह पीएम मोदी बोल रहे हैं-गरीब पिस रहा है.

गरीब तो बलिदान कर रहा है. गरीब ने तो लाइन में लगकर परेशान होकर भी साथ दिया. पर जिनका काला धन डूब गया है, वो मेरे खिलाफ हैं.

पीएम मोदी के हालिया भाषणों से वह वामपंथी नेता प्रतीत होते हैं. गरीब उनकी आर्थिक नीति के केंद्र के विमर्श में है. इस बात को भारत की राजनीति के सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश की पब्लिक तो मान लिया.

जटिल मसला-स्टॉक बाजार और गरीब एक जगह

आर्थिक विमर्श की जानकारी रखनेवाले थोड़े इस बात पर कनफ्यूज्ड हो सकते हैं कि एक ही बंदे की नीतियों को स्टाक बाजार भी पसंद करे और गरीब भी पसंद करें, यह बात संभव कैसे हैं.

स्टाक बाजार अमीरों के लिए हैं, गरीबों की समस्याएं अलग हैं, दोनों के हितों को लेकर चलनेवाली समग्र आर्थिक नीतियां नहीं बनायी जा सकतीं यानी या तो गरीबों का भला या स्टाक बाजारों का भला करो, दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते, यह सोच अब कमजोर पड़ रही है.

इसलिए मुंबई शेयर बाजार उस जीत से बहुत खुश होता है जो एक गरीब पर राजनीतिक तौर पर संवेदनशील राज्य यूपी में मोदी अपनी पार्टी को दिलवाते हैं.

गहराई से देखने पर साफ यह होता है कि मसला बातों का नहीं है डिलीवरी का है. जमीन पर डिलीवरी क्या हो रही है. बातें, बातें, बातें कई सालों से सिर्फ बातें हो रही हैं. गरीबी हटाओ नारे पर 1971 में यानी करीब पचास साल पहले इंदिरा गांधी जीती थीं.

पर गरीबी हटाने की जरुरत अब भी महसूस होती है, तो इसका मतलब यह है कि ठोस कामकाज की डिलीवरी बहुत बड़ा मसला है.

जनधन से मुद्रा बैंक

इस चुनाव ने साफ किया है कि आर्थिक मसलों पर ठोस डिलीवरी से राजनीतिक परिणाम आते हैं.

उज्जवला यानी गैस सिलेंडर गरीब परिवारों में देने की योजना ने भाजपा को उन वर्गों से वोट दिलाये हैं, जो वर्ग आम तौर पर भाजपा का वोटर वर्ग है नहीं.

जिस परिवार को मुफ्त सिलेंडर मिला है, उसने ठोस जमीन पर आता हुआ कुछ देखा है बातों के अलावा, यूपी में उज्जवला योजना के करीब 52 लाख परिवारों को फायदा मिला है.

मोदी इनके लिए हवाई नारा नहीं, ठोस हकीकत सिलेंडर की शक्ल में घऱ में मौजूद है.

जनधन खातों के तीन करोड़ लाभार्थी यूपी में हैं. और 20000 करोड़ रुपये मुद्रा योजना के तहत यूपी में दिया गया है. ये आंकड़े लगते आर्थिक आंकड़े हैं, पर ये हैं ठोस राजनीतिक आंकड़े.

मसला ए रोजगार

एक बात समझने के लिए अर्थशास्त्री होना जरुरी नहीं है, वह यह है कि रोजगार अब सिर्फ संगठित क्षेत्र की नौकरियों से नहीं आ रहा है.

सरकारी नौकरियां, बड़ी कंपनियों की नौकरियों का तादाद इतनी नहीं हो सकती कि बढ़ती आबादी को बेहतर नौकरी दे पाये.

अगर गहराई से विश्लेषण किया जाये, तो तमाम महत्वपूर्ण आंदोलन जाट आंदोलन, गूजर आंदोलन, पटेल आंदोलन ये मूलत बेहतरीन रोजगार अवसरों की अनुपलब्धता की ओर ही संकेत करते हैं.

यानी स्वरोजगार का मसला बहुत महत्वपूर्ण है. आनेवाले वक्त मोदी सरकार को इस पर खासा काम करना होगा, मुद्रा योजना के तहत छोटे-छोटे उद्यमों की वित्तीय व्यवस्था हो, तो मोदी सरकार को इस सवाल का जवाब देने में आसानी होगी कि कितने रोजगार अवसर पैदा किये गए.

कुल मिलाकर यूपी की मोदी-विजय ने स्टाक बाजार को उम्मीदों की नई मजबूती दी है और मोदी को आत्मविश्वास दिया है कि वह 2022 से लेकर 2024 तक की बातें कर सकें.

स्टाक बाजार दीर्घकालीन निश्चितता का हमेशा स्वागत करता है. 2017 के चुनावों के बाद झूमता शेयर बाजार यही बता रहा है.

(लेखक आर्थिक पत्रकार हैं)