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'आईएएस अधिकारियों को भ्रष्ट कहना बंद करिए'

नेता चाहें तो भारत को पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त बनाना एकदम आसान है

Pallavi Rebbapragada

'जब एक आईएएस अधिकारी मरता है तो मुआवजे के तौर पर महज ढाई लाख दिए जाते हैं. आईएएस ऑफिसर भी जान का जोखिम उठाते हैं, वे भी राष्ट्रनिर्माण में लगे हैं. उन्हें भ्रष्ट कहना बंद कीजिए'- संजय भुसरेड्डी

कुछ दिनों पहले सुधीर कुमार और पांच अन्य लोगों की क्लर्क ग्रेड की नियुक्ति की परीक्षा के पेपर लीक करने के मामले में गिरफ्तारी हुई. बिहार आईएएस ऑफिसर्स एसोशिएशन सुधीर कुमार के समर्थन में आ डटा.


एसोसिएशन ने मामले की सीबीआई जांच की मांग की ताकि पक्षपात ना हो. पिछले साल जुलाई में आईएएस अधिकारियों के बिहार एसोसिएशन ने आईएएसओए की एक आम सभा बुलाई और निर्णय लिया कि कैमूर जिले में मोहनिया के एसडीओ डा. जितेन्द्र गुप्ता की ‘गिरफ्तारी में हुए फर्जीवाड़े’ की कानूनी जांच और खोज-बीन का खर्चा एसोसिएशन खुद उठाएगा.

फ़र्स्टपोस्ट के साथ एक खास इंटरव्यू में इंडियन सिविल एंड एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस(सेंट्रल) एसोसिएशन के मानद सचिव संजय भुसरेड्डी ने बताया है कि आईएएस बिरादरी ने जो रुख अपनाया है उसकी क्या वजहें हैं.

आखिर आईएएस बिरादरी ने वैसे लोगों को बचाने का यह गंभीर कदम क्यों उठाया जो शायद कानून से खिलवाड़ करने के दोषी हों ? क्या इससे बेहतरीन अधिकारियों की विरासत पर आंच नहीं आयेगी ?

जो भ्रष्ट हैं उन्हें सजा मिलनी चाहिए. इसके बारे में दो राय नहीं हो सकती. हम अधिकारियों की तरफदारी में खड़े हैं.

इसका कत्तई यह मतलब नहीं कि हम भ्रष्टाचार या अपराध की तरफदारी कर रहे हैं.. हम बस इतना कह रहे हैं कि कानून का एक तरीका होता है और कार्रवाई उसी तरीके से होनी चाहिए.

पिछले साल बिहार पुलिस ने एक युवा आईएएस अधिकारी डाक्टर जितेंन्द्र गुप्ता पर बदनीयती से कार्रवाई की थी. डाक्टर गुप्ता को निगरानी के एक मामले में झूठ आरोप मढ़कर फंसाया गया.

उस वक्त भी पुलिस ने फौजदारी के कानूनी प्रावधानों के खिलाफ आचरण किया था और हमने इस तरफ ध्यान दिलाया था.

पटना हाईकोर्ट ने ना झूठलाये जा सकने वाले सबूतों के पेशनजर डा जितेन्द्र गुप्ता के खिलाफ दर्ज एफआईआर को खारिज कर दिया.

कोर्ट ने कहा कि दर्ज एफआईआर और उसके मुताबिक हुई जांच जायज नहीं है तथा इसमें कानूनी प्रक्रिया के खिलाफ काम किया गया है.

इसके बावजूद सतर्कता और निगरानी ब्यूरो ने सच को झुठलाने के गरज से सरकार को मनाते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.

इस बार छल-कपट के कुछ और इंतजाम किए गए लेकिन उसे मुंह की खानी पड़ी. देश की सबसे ऊंची अदालत से डांट मिली.

कोर्ट ने मामले में सरकार की चालाकी को भांप लिया और उसे नापसंद करते हुए दायर याचिका को सुनवाई के काबिल ना मानते हुए शुरुआती स्तर ही खारिज कर दिया.

क्या पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी एक ही सिस्टम का हिस्सा नहीं है ? क्या बिहार एसोसिएशन द्वारा उठाये मुद्दे को समर्थन देकर आप दोनों के बीच भेद नहीं पैदा कर रहे ?

सुधीर कुमार को हजारीबाग के उनके पैतृक निवास पर रात में गिरफ्तार किया गया लेकिन गरिफ्तारी की घोषणा पटना में सबेरे की गई.

यह सबकुछ सिर्फ अपने को प्रधान मानकर किए जाने वाले काम का मामला है. पुलिस का रवैया कुछ ऐसा ही जान पड़ता है.

आखिर सुधीर कुमार के साथ बुरा बरताव करने की क्या जरुरत थी ? क्या वे भाग जाते ? कुमार ने जांच एजेंसी के साथ पूरे सहयोग का बरताव किया है.

ना तो वे भाग रहे थे और ना ही किसी सबूत के पाये जाने की सूरत में उसके साथ छेड़छाड़ कर रहे थे.

ऐसे में, क्रिमिनल प्रोसिज्योर कोड के सेक्शन 41 में बतायी गई वैधानिक प्रक्रिया का पालन किए बगैर उन्हें गरिफ्तार करने की कोई जरुरत नहीं थी.

सुधीर कुमार को यह मौका भी नहीं दिया गया कि वे अपनी बात कहने के लिए वकील की सहायता लें.

राजनीतिक ताकत नौकरशाही के बूते चलती है क्या यही वजह है जो नौकरशाह अपने को व्यवस्था में सबसे ऊपर मानकर चलते हैं?

यह तो व्यवस्था की खामी का मामला है और उसके लिए अकेले आईएएस बिरादरी को दोष नहीं दिया जा सकता.

मंत्रालय के सूत्रों का भी कहना है कि आईएएस, आईपीएस और सीएमओ का काम सबकी नजर में होता है और इसी कारण उनकी मंशा तथा काम करने की सलाहियत पर ढेर सारे सवाल उठाये जाते हैं.

इसकी तुलना में सेना का काम लोगों की नजर से कहीं ज्यादा ओझल होता है और सेना की कमियों पर शायद ही सवाल उठाये जाते हैं.

जब आपके पास ज्यादा जानकारी होती है तो आप कुछ ज्यादा ही फैसले सुनाने लगते हैं.

मंत्रालय के सूत्र ने यह भी बताया कि बिहार और यूपी दक्षिण के राज्यों जैसे तेलंगाना और आंध्रप्रदेश की तुलना में राजधानी दिल्ली से कहीं ज्यादा नजदीक है सो भ्रष्टाचार के मामलों में यहां की नौकरशाही पर लोगों का कहीं ज्यादा ध्यान जाता है.

क्या आईएएस एसोसिएशन के ढांचे और सोच में मजदूर संघ जैसी भावना घर करते जा रही है ?

आईएएस अधिकारी कमजोर की सी हालत में हैं. उन्हें ना तो मीडिया से अपनी बात कहने की आजादी है ना ही किसी और मंच से व्यवस्था को लेकर अपनी शिकायतों के इजहार की अनुमति दी जाती है.

अदालत का दरवाजा खटखटाना एक खर्चीला विकल्प है. ऐसी सूरत में किसी अधिकारी को इंसाफ और हिफाजत की जरुरत आन पड़े तो उसकी तरफ से एसोशिएशन को ही आगे आना पड़ेगा.

एसोशिएशन ज्यादातर सुस्त पड़े रहते हैं और शायद ही कभी कोई मामला पूरी ताकत से आगे बढ़ाते हैं. मजदूर संघ नियम की परवाह नहीं करते.

वे वह भी मांग सकते हैं जो कानून में उन्हें नहीं मिला है लेकिन एसोशिएशन सरकार के बनाये दिशा-निर्देशों की चौहद्दी में रहकर काम करते हैं.

आईएएस अधिकारी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी की प्रतिज्ञा लेते समय संविधान की शपथ उठाते हैं. ऐसे में सख्त अनुशासन और निगरानी पर ध्यान देने की जगह वे इस मामले में एक ऐसे अधिकारी की तरफदारी क्यों कर रहे हैं जो आगे चलकर भ्रष्टाचार का दोषी साबित हो सकता है ? क्या यह कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी की उस प्रतिज्ञा के खिलाफ है जो हर अधिकारी को करनी होती है?

जहां तक जांच का सवाल है, भ्रष्टाचार निरोधी ईकाई अपने में स्वायत्त है क्योंकि उसे फौजदारी के कानूनों का पालन करना होता है.

सूचना का अधिकार कानून लागू होने से व्यवस्था पारदर्शी हो गई है. हम वरिष्ठ अधिकारियों को महज अटकजबाजी के आधार पर डरा-धमका या फंसा नहीं सकते. देश में 4700 आईएएस अधिकारी हैं.

इनमें तकरीबन 200-250 अधिकारियों पर छोटे-बड़े मामले चल रहे हैं. कुछ के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हो चुकी है.

क्या हम इनमे से हरेक मामले में हुई गिरफ्तारी के खिलाफ खड़े हैं? यहां तक कि डाक्टर जितेन्द्र गुप्ता के मामले में भी हमने अपना नैतिक समर्थन कोर्ट की राय जानने के बाद ही दिया.

सेना की तरह आईएएस अधिकारी भी समान रुप से व्यवस्था के ही अंग हैं. देश को एक राष्ट्र बनाने में वे क्या योगदान दे रहे हैं ?

इस देश की हर इंच जमीन भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की देखरेख में है.

जिन इलाकों में संघर्ष चल रहे हैं वहां भी हर वक्त आईएएस अधिकारी तैनात रहते हैं.

मैं फिलहाल अधिकारियों की एक ऐसी सूची पर काम कर रहा हूं जो माइनिंग (खनन) के इलाकों या नक्सली हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में कानून-व्यवस्था की कमी के कारण मारे गये.

1980 के दशक के बाद से अबतक कम से कम एक दर्जन आईएएस अधिकारियों ने ऐसे हालात में जान गंवायी है.

जब कोई आईएएस अधिकारी जान गंवाता है तो मुआवजे के तौर पर मात्र ढाई लाख रुपये की रकम दी जाती है.

दशरथ प्रसाद (1994 आईएएस) की कहानी कितनों को याद होगी जिन्हें मणिपुर में नेशनल गेम्स के मौके पर अतिवादियों ने जान से मार डाला.

आज उसके मां-बाप बनारस के एक गांव में अपना रोज का खर्च चलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

क्या भारत कभी भ्रष्टाचार-मुक्त हो सकता है ?

भ्रष्टाचार को दूर करने का एक अच्छा तरीका व्यवस्थागत खामियों को ठीक करना है.

ऐसी खामियों में एक यह है कि जिला स्तर के माइन्स ऑफिसर और अनुमंडल स्तर के माइंस सुपरवाइजर (दोनों ही टाइप सी वर्ग के अधिकारी हैं) खूब घूस खाते हैं और यही लोग जिले में बहाल आईएएस अधिकारी को गुमराह करते हैं.

मिसाल के तौर पर, वे खान और खनिज की गुणवत्ता और मात्रा के बारे में कागजी हेर-फेर करके राजकोष में भेजी जा रही रॉयल्टी की रकम में से अपने लिए कुछ कमाई निकाल लेते हैं.

अगर शीर्ष के नेता चाहें तो भारत को पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त बनाना एकदम आसान है.