view all

गुरु ई हौ बनारस, #BHUshame कहने के पहले जान लो

जो #BHUSHAME को प्रमोट कर रहे हैं, नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं.

Ajay Singh

वाराणसी या बनारस में एक कहानी खूब कही और सुनाई जाती है. ब्रिटिश गवर्नर जनरल वॉरेन हैस्टिंग्स 1781 में राजा चैत सिंह से अधिक टैक्स वसूलने की नीयत से बनारस पहुंचे. लेकिन यहां हैस्टिंग्स का ऐसा विरोध हुआ कि समझिए जान बच गई गनीमत है. बनारस जल्दी किसी की सत्ता स्वीकारता नहीं है- भले वह भगवान हो या बादशाह.

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) में इसी बनारसी अंदाज की आत्मा बसती है.


देश की कई दूसरी यूनिवर्सिटीयों में जब विरोध के अंकुर भी नहीं फूटे थे, उससे कहीं पहले बनारस के छात्र सत्ता को चुनौती दे रहे थे. यूं तो यह कोई तारीफ के काबिल बात नहीं लेकिन यहां वाइस-चांसलर को जूतों की मालाएं भी पहनाई जाती रही हैं. वाइस-चांसलर के आवास पर पेट्रोल बम भी फेंके गए. इस कारण तो यूनिवर्सिटी अनिश्चितकाल के लिए बंद भी हुई थी. 1981 में इसी बीएचयू के छात्र के तौर मैंने पहली अनिश्चितकाल के लिए 'sine die' शब्द सुना और इसका मतलब जाना था.

लेकिन यहां के कैंपस की हवा हमेशा से आजाद रही है. महिलाओं का अद्भुत सम्मान किया जाता रहा है. 90 के दशक में बेहद सम्मानित संगीत शिक्षक एन राजम को उनकी बेटी के साथ बीएचयू गेट मार्केट पर खरीदारी करते अक्सर देखा जा सकता था.

चुनाव से ऐन पहले एबीवीपी की वीणा पांडेय को हॉस्टल के लड़कों से बतियाते, हाथ मिलाते देखा जा सकता था. कई लेफ्ट-लिबरल वोटर भी उनके अंदाज से ऐसे प्रभावित थे कि अपनी विचारधारा के खिलाफ छात्र संघ के चुनाव में उनके लिए वोट करते थे. सुनने को मिलता था, 'आइडियोलॉजी गई भाड़ में, अरे यार वो बहुत अच्छी है.'

इसी तरह अंजना प्रकाश के इमरजेंसी के समय सत्ता प्रतिष्ठान को चुनौती देने की कहानी भी हमने सुनी है. उन्होंने जिस अंदाज में इंदिरा गांधी की सत्ता को चुनौती दी थी, उसकी चर्चा आज भी होती है. प्रकाश एक प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवार से थीं जिसकी जड़ों में लोहियावादी समाजवाद रचा-बसा था.

पढ़िए: बनारस में खिसक सकती है बीजेपी की जमीन

छात्राओं की छात्रों के साथ राजनीति हिस्सेदारी और हर चीज में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने की संस्कृति बेमिसाल थी. 70 और 80 के दशकों में साइकिल और स्कूटर चलाती लड़कियों के नजारे उस समय दूसरी यूनिवर्सिटी से कहीं आगे के थे. पहले की तरह अभी भी बीएचयू देश भर और बाहर से भी छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करता है.

शायद जिन्हें #BHUshame जैसे हैशटैग या ट्रेंड में कोई बात दिखती है, वे इस संस्थान के खास प्रतिरोध के चरित्र, इसके इतिहास और इसकी सांस्कृतिक विरासत से वाकिफ नहीं हैं. बीएचयू कैंपस में लड़कियों को धमकाने और उन्हें नुकसान पहुंचाने की बातें सोच के परे लगती हैं.

केवल वही लोग, जिन्हें बनारस की सामाजिक स्थिति का कोई अंदाजा नहीं है, किसी एक घटना को अपवाद के बजाय नियम की अहमियत देकर ऐसा दिखाना चाहेंगे कि हालात ऐसे ही हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि बीएचयू कई गलत गतिविधियों का गवाह भी रहा है. हॉस्टलों को गैंगस्टरों के अड्डों के रूप में इस्तेमाल किया गया. इनके झगड़ों और लड़ाइयों ने कैंपस के आम छात्रों को बहुत परेशान भी किया है. लेकिन बीएचयू के सांस्कृतिक परिवेश को देखते हुए यह सोचना असंभव लगता है कि किसी छात्रा को कैंपस में सुविधाओं की कमी पर आवाज उठाने के लिए शारीरिक हिंसा की धमकी दी जाएगी.

देखिए: बीएचयू के अतीत और भविष्य की बात, मनोज सिन्हा के साथ

कहने की जरूरत नहीं कि #BHUshame के साथ किए गए कुछ ट्वीट ऐसे हैं, मानो इसे ऑक्सफोर्ड के चश्मे से देखा जा रहा है. जाहिर है बीएचयू में सुविधाओं की कमी है और इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार की जरूरत है. फिर भी कैंपस लड़कियों के लिए सबसे सुरक्षित जगह है.

कैंपस में शाकाहारी और मांसाहारी की बहस कैंपस जितनी ही पुरानी है. लेकिन कैंपस में मांसाहार भी जमकर मिलता है. यह अक्सर इस बात पर निर्भर करता है कि मेस का मैनेजमेंट कैसा है.

इस विशाल कैंपस में इंजिनियरिंग, मेडिकल, आयुर्वेद से लेकर सामाजिक विज्ञान तक करीबन हर तरह की शिक्षा दी जाती है. यह अलग-अलग चीजें पढ़ रहे लोगों के बीच संपर्क की अद्भुत जगह है. एक बार मुझसे बात करते हुए बीएचयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा ने कहा था, 'बीएचयू के 6 साल मेरे जीवन के सबसे बेहतरीन साल थे.' एक पुराने छात्र के तौर पर मैं भी कुछ ऐसा ही महसूस करता हूं.

जो #BHUshame को प्रमोट कर रहे हैं, उनके लिए तो मुझे बस जीसस क्राइस्ट याद आते हैं, 'परमपिता, इन्हें माफ करना क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं.'