view all

संघ के विरोध में नहीं किया था अम्बेडकर ने नागपुर में धर्म परिवर्तन का कार्यक्रम

जो लोग ये कहते हैं कि नागपुर में इसलिए अम्बेडकर ने दीक्षा ग्रहण की क्योंकि उसके पीछे संघ का प्रतिकार करना था तो ये सरा-सर झूठ है

Dr. Pravesh Kumar

भारत के इतिहास में महाराष्ट्र सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन की कर्म स्थली रहा है. भारत में जहां एक ओर तमाम तरह के शोषण का केंद्र कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों के द्वारा महाराष्ट्र को दिखाया गया हैं वहीं पर समाज के बौद्धिक वर्ग ने इसे सामाजिक परिवर्तन का केंद्र भी माना हैं. अगर जातियों के आधार पर यहां पर उत्पीड़न रहा है तो बदलाव का स्वर भी इसी भूमि से निकला है. ज्योतिबा फुले, सावित्रिबाई फुले, महादेव गोविंद रानाडे, तिलक, सावरकर, साहू जी महाराज, डॉ. अम्बेडकर, डॉ. हेडगेवार, गुरु गोलवलकर आदि सभी मनीषियो की ये भूमि रही है. जिनके देव प्रयासों से समाज में समरसता का भाव पैदा हो सका है.

महाराष्ट्र में नागपुर हमेशा से समजिक परिवर्तन का केंद्र रहा है. नागपुर के बारे में कहा गया है कि ये नाग वंश की भूमि है. नागपुर शहर से मात्र 27 किलोमीटर दूर नाग नदी कुछ इसका प्रमाण भी देती है. वहीं पर ये भूमि बौद्ध मतावलंबियों का एक प्रमुख केंद्र रही है. बौद्ध भिक्षु नागसेन की कर्मस्थली भी नागपुर ही रही. वहीं देश में बड़े सामाजिक बदलाव का आगाज भी यहीं से हुआ है. 1925 में नागपुर में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉ. हेडगेवार के द्वारा की जाती है. संघ की स्थापना अनायास ही नहीं हो गई बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में इतिहास की कुछ घटनाएं थीं.


भारत इतना महान राष्ट्र था जहां की सीमाएं बेहद विस्तृत थीं. इतना विशाल हिंदू समाज होते हुए भी भारत क्यों गुलाम हुआ? जब कारण देखें तो भारत की गुलामी के पीछे भारत के समाज में व्याप्त ऊंच-नीच का भाव और आपसी अस्पृश्यता थी. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने संघ की स्थापना का उद्देश्य इसी बिंदु को लेकर ही व्यक्त किया.

'भारत के बार-बार गुलाम होने के पीछे का कारण मात्र और मात्र हिंदू समाज का बंटे रहना हैं. चार वर्णो के विशाल समाज में एक ही वर्ण संघर्ष करेगा, ऐसा होने और ऊंच और नीच के भाव के परिणाम स्वरूप हम गुलाम बने.'

हिंदू समाज को संगठित किए बिना भारत फिर से दुनिया का सिरमौर नहीं बन सकता. इस मन्तव्य को लेकर विजय दशमी के दिन मोहते के बाड़े, नागपुर में 1925 को संघ की नींव पड़ी. वहीं इसी विजय दशमी के ही दिन बाबा साहेब अम्बेडकर ने 1956 में नागपुर में ही भारत के प्राचीन मत, जो की बौद्धमत है, को अपने लाखों अनुयायियों के साथ स्वीकार किया. बाबा साहेब ने बौद्ध मत स्वीकार करते समय कहा, 'मैं अपने पुरानी जड़ों में पुनः आ गया हूं.'

बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी बौद्ध मत अनायास ही नहीं स्वीकार किया. पहले वो लंबे समय हिंदू समाज व्यवस्था में परिवर्तन की मांग वो करते रहे. महाड़ सत्यग्रह जहां सार्वजनिक पानी पर वंचितो के अधिकार की लड़ाई हो अथवा नासिक में कलाराम मंदिर प्रवेश, अम्बा मंदिर प्रवेश, मनुस्मृति दहन ये सब करते हुए बाबा साहेब ने देखा कि वृहद हिंदू समाज का मन नहीं पसीज रहा, बल्कि इस समय भी मंदिर प्रवेश को लेकर नासिक के संघ के कार्यकर्ताओं ने बाबा साहेब का साथ दिया था. सावरकर खुद मध्यस्था के लिए राजी हुए थे. लेकिन 1935 में नासिक की एक सभा में अम्बेडकर ने ये घोषणा कर दी, 'मैं पैदा हिंदू के रूप में हुआ हैं लेकिन मरूंगा हिंदू होकर नहीं.'

इसी के बाद मुंबई 1936 में माहार सम्मेलन में भी अम्बेडकर ने अपनी बात को दोहराया. अम्बेडकर ने अपने धर्म परिवर्तन की घोषणा के 20 वर्षों के बाद मतांतरण किया. इन 20 वर्षों में अम्बेडकर ने सभी धर्मों का बारीकी से अध्ययन किया और देखा कि अगर इस्लाम को देखें तो वहां पर भी हिंदू धर्म छोड़ जो लोग मुसलमान हो गए हैं उनको वहां भी कोई सम्मान नहीं मिला है. उनकी जाति, उनके पेशे वैसे के वैसे ही बने रहे. अगर सिख धर्म की बात करे तो दलितों को लंगर व्यवस्था में नहीं लगाते और अकाल तख्त पर कोई दलित कभी नहीं पहुंच सकता. मजहबी सिख, रविदासिया सिख ऐसे कर के विभिन्न जातियां वहां भी बन गई हैं. ईसाइयों में भी दलित ईसाइयों के चर्च तक अलग-अलग हैं. ऐसे में बुद्ध का धर्म ही ऐसा हैं जहां पर ज्ञान, समता, करुणा का अहम विचार हैं यहां न कोई ऊंचा है और ना कोई नीचा है, सब समान हैं.

अम्बेडकर ने बौद्ध मत स्वीकार करने से पहले काफी संतों से भी बात की थी, जिसमें संत गाड़गे जिनको वो अपना गुरु मानते थे से भी चर्चा की. संत गाड़गे ने ही अम्बेडकर से ये कहा कि आप कोई ऐसा धर्म अपनाएं जो भारत के मूल का हो इसीलिए अम्बेडकर बौद्ध धर्म को अपनाते ही कहते हैं, 'मैं अपने घर वापस आ गया.' डॉ. अम्बेडकर ने धर्म की व्याख्या की और धर्म को दो हिस्सों में बांट कर देखा हैं- (1) अनुष्ठानिक (2) मीमांसा.

अम्बेडकर कहते हैं हमने धर्म के अनुष्ठानिक, कर्मकांडीय पक्षों को ही देखा उसके विपरीत मीमांसा पक्ष को नहीं देखा इसीलिए ये दिक्ततें आईं. अम्बेडकर ने बौद्ध मत के बारे में 19 सितंबर 1950 को मुंबई के वरली स्थित बौद्धमंदिर में कहा, 'एक हजार साल पहले प्रचलित हिंदू धर्म बौध धर्म की ही भाति था वह प्रचलित हिंदू धर्म और कुछ नहीं बौध धर्म ही था. किंतु मुसलमानों के हमलों से और कुछ अन्य कारणों से उसमें निहित पवित्रता विनष्ट हुई और उसमें मिलावट हुई. उस सभा में अम्बेडकर ने घोषणा की मैं अब अपना शेष जीवन बौद्ध मत के प्रचार में लगाउंगा.' (कीर :403)

ये दोनों ही घटनाएं ऐतिहासिक रूप से बड़ी थी जहां एक और संघ की स्थापना वहीं दूसरी ओर धम्मचक्र प्रवर्तन. इन दोनों के मूल में भारत भूमि का मूल चिंतन समाया था. जो हमारे वैदिक ग्रंथों में है. अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को तीन कालों में भी बांटा (1) वैदिक धर्म (2) ब्राह्मण धर्म (3) हिंदू धर्म. वे ब्राह्मण धर्म की प्रतिक्रिया में बौद्ध धर्म का जन्म मानते हैं. अम्बेडकर वैदिक दर्शन को ही परिमार्जित करने के कर्म में बौद्ध मत को अपनाते हैं. हमारा भारत का दर्शन इस श्लोक में बखूबी दिख जाता है...

समानो मंत्र: समिति समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।

समानेन वो हविषा जुहोमि समानं चेतो अभिसंविश्ध्वम् ।।

-अथर्ववेद 6-64-2

समानो मन्त्रः समिति समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम् |

समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ||

ऋग्वेद 10/191/3.

इन श्लको का अर्थ हैं कि आप सभी के विचार सामान हों, आप सभी एक संगठन में मिलकर कार्य करो, पारस्परिक कोई विद्वेष ना हो, समान रूप से विचार विमर्श करते हुए लक्ष्य को प्राप्त करो, इस कार्य में मैं तुम सबको समान रूप से लगाता हूं.

हेडगेवार और अम्बेडकर दोनों ही भारत के मूल विचार को पुनः प्रतिस्थापित करना चाहते थे. संघ का विचार और बाबा साहेब अम्बेडकर के विचार आपस मे एक-दुसरे के साथ जुड़े हुए हैं. अगर मैं ये कहा रहा हूं तो मेरे अपने निजी अनुभव और भारतीय दर्शन के प्रति रुचि और संघ से बाल्यकाल से जुड़ा होना एक प्रमुख कारण है.

अम्बेडकर ने अपने पूरे जीवन काल मे भारतीय दर्शन के विचार सामाजिक समरसता के लिए कार्य किया. यह समरसता ही भारत के चिंतन के मूल मे समाहित है. बाबा साहेब अम्बेडकर ने सम्पूर्ण जीवन इसी दर्शन को प्राप्त करने मे लगाया. भारत के दर्शन में ही समाज के समरस होने का विचार व्यक्त किया गया है. बाबा साहेब अम्बेडकर और संघ ने भी इसी उद्देश्य को लेकर काम किया.

डॉ. अम्बेडकर ने भी समाज के विभाजन में ही भारत की अवनति को देखा था. समाज मे व्याप्त असमानता के भाव का परिणाम ही था की भारत वर्षों तक गुलाम बनता रहा. बाबा साहेब और डॉ. हेडगेवार दोनों ने इस समस्या को समझा और इसके समाधान के लिए तमाम कार्य किया.

हेडगेवार हिंदू समाज के भीतर व्याप्त सामाजिक दोषों, खंडित एवं सामंती मानसिकता को सामाजिक एवं राष्ट्रीय अवनति का मूल कारण मानते हैं. इसी विचार को अम्बेडकर ने भी माना तभी तो वो जाति को राष्ट्र के विरुद्ध मानते हैं. डॉ हेडगेवार कहते हैं, 'हिंदुओं में सामाजिकता के भाव का अभाव है ( सिन्हा : 2003, 204 ). इसी सामाजिकता के अभाव ने एक रक्त, मांस के बने शरीर को एक-दूसरे से भिन्न कर दिया.

इसीलिए संघ की शाखा पर आने वाले सभी स्वयंसेवक केवल हिंदू हैं न कि किसी जाति अथवा वर्ण के हैं. सभी का हिंदू होना ही उनकी अपनी एक सामूहिक पहचान है.

केशव बलिराम हेडगेवार

हिंदू भारत की एक राष्ट्रीय पहचान हैं, संघ इसको मानता है. डॉ हेडगेवार मानते हैं कि हिंदू भारत की राष्ट्रीय अस्मिता हैं ( गोलवलकर :2016 , 136). इसी प्रकार बाबा साहेब ने भारतीयता को अपनी राष्ट्रीय पहचान माना हैं जो अपनी हिंदू मान्यताओं पर ही आधारित है. अम्बेडकर की मांग वास्तव मे भारतीय समाज के पुरातन मौलिक तत्वों की पुन: प्राण प्रतिष्ठा करना ही थी.

सर्वे भावतू सुखिना सर्वे संतू निरमाहे

सर्वे भ्द्रणी पश्यंतु माँ कश्यन्तु दुख भाग भव्ते

सभी का कल्याण हो, सभी निरोगी हो रहे, सभी के जीवन मे सद इच्छा रहे, किसी के भी जीवन मे दुख न रहे. डॉ. अम्बेडकर ने विजय दशमी के दिन बौद्ध मत स्वीकार करके भारत के दर्शन से दुनिया का परिचय कराया. इसमें एक और महत्वपूर्ण बात ये है कि ये अम्बेडकर ने कोई धर्म परिवर्तन नहीं किया बल्कि वो स्वयं कहते हैं, 'बौद्ध धर्म ने भारत में 1200 वर्षों से अधिक समय तक वनवास का दुःख सहा था. अब मैं इसको पुनः प्रसारित और प्रचारित करने का कार्य करूंगा.'

अम्बेडकर ने अपने बौद्ध मत में जाने के कार्यक्रम को 'धम्म चक्क प्रवर्तन' कहा. जिसका अर्थ कभी लोगों ने समझने की कोशिश नहीं की. धम्मचक्क प्रवर्तन शब्द ये पाली का शब्द है जिसका अर्थ हैं 'रुके हुए धम्म को पुनः प्रारंभ करना हैं'. इससे स्पष्ट हो जाता हैं कि बाबा साहेब ने कभी भी हिंदू समाज के विरुद्ध परिवर्तन करके बुद्ध मत को स्वीकार नहीं किया बल्कि बौद्ध मत को 1200 वर्षों बाद के बाद पुनर्जीवित करने का कार्य किया. इसलिए जो लोग ये कहते हैं कि नागपुर में इसलिए अम्बेडकर ने दीक्षा ग्रहण की क्योंकि उसके पीछे संघ का प्रतिकार करना था तो ये सरा-सर झूठ है इसके अलावा और कुछ नहीं.

( लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर कम्पैरिटिव पॉलिटिक्स में सहायक प्राध्यापक हैं.)