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जनहित बनाम राजहित: सहयोग-संघर्ष में लोकतंत्र फलता-फूलता रहता है

‘जन‘ की शक्ति से ही ‘राज‘ बनता है लेकिन राज अपना एक अलग व्यक्तित्व ग्रहण कर लेता है

R Vikram Singh

प्रशासन में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता. अगर कभी कोई सरकार ‘खेल' को अलग और ‘कूद' को अलग-अलग मंत्रालय में बांट दे तो हम उसे भी स्वीकार कर लेंगे. एक सामान्य तार्किक बुद्धि में क्या यह स्वीकार किया जा सकता है कि ग्राम्य विकास और पंजायती राज अलग-अलग विभाग हों.

राजस्व भी मुख्य तौर पर ग्रामीण विभाग है और पशुपालन भी. कृषि भंडारण, ग्रामीण अभियंत्रण सेवा, सिंचाई, भूमि सुधार आदि विभाग ग्राम्य विकास की दृष्टि से अंत्यत निकट सहयोगी विभाग है. अब जब 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य तय किया गया है तो सभी संबंधित मंत्रालयों का या तो एकीकरण या संयुक्त प्रबंधन ही इसका समाधान है.


किसानों की आय को दोगुना करना बड़ा संकल्प है

कमजोर सरकारों के दौर में मंत्रियों की बढ़ती हुए संख्या ने कभी मुख्यमंत्री को मजबूर किया होगा कि एक ही विभाग को अस्वाभाविक रूप से ही सही खंड-खंड कर टुकड़ों में बांटा जाए. विभागों के बन जाने के बाद उनके विभागीय हित पैदा हो जाते हैं. फिर से एकीकरण का कार्य टेढ़ी खीर हो जाता है. किसानों की आय को दोगुना करना बड़ा संकल्प है. यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि किस प्रकार हमारी प्रशासनिक मशीनरी विरोधाभासों के बीच संपूर्ण संसाधनों को एकत्रित कर इस लक्ष्य को पूरा करती है.

‘जन' की शक्ति से ही ‘राज' बनता है किंतु राज अपना एक अलग व्यक्तित्व ग्रहण कर लेता है. फिर क्रमशः ऊंचे आसन पर जा बैठता है. विभागीय या दरबारी हित राज में ही शरण पाते हैं फिर उसी जन को दुत्कारने लगते हैं जिसके कारण वे राज के भागी हुए थे. जन और राज के सहयोग-संघर्ष में लोकतंत्र फलता-फूलता रहता है.

इसी प्रकार का मसला नगर विकास और आवास का भी है. क्या नगर विकास और नगरीय आवास को अलग कर के देखा जा सकता है? नगर निगम में कार्यकाल के दौरान यह अस्वाभाविकता स्पष्ट रूप से सामने आई. नगर निगमों में तो कर्मचारियों के लिए अक्सर वेतन की व्यवस्था भी मुश्किल से हो पाती थी. जबकि विकास प्राधिकरणों में उसी नगर से वसूल किये गये विकास शुल्क की सैकड़ों करोड़ की धनराशि फिक्स डिपॉजिट में जमा रहती है.

अवैध निर्माणों पर कोई सवाल पूछने वाला न रहा

एक ओर तो नगर निगमों के मुख्य संसाधनों को उनसे काटकर विकास के नाम पर प्राधिकरण बनाकर नगर निगमों को अभावग्रस्त छोड़ दिया गया. दूसरी ओर विकास प्राधिकरण ऐसी संस्था बन गये जिनकी कोई जवाबदेही ‘जन' के प्रति है ही नहीं. फिर अनियमित अवैध निर्माणों पर कोई सवाल पूछने वाला भी न रहा.

विरोधाभास का दूसरा उदाहरण, नगरों में संपत्तियों की खरीद-बिक्री से हासिल होने वाले स्टैंप शुल्क का मात्र डेढ़ फीसदी हिस्सा ही नगरों को प्राप्त होता है. अब संपत्ति नगर की, विक्रेता-क्रेता नगर के, और नगर की आय मात्र डेढ़ फीसदी? यह मजाक नहीं तो और क्या है? प्रशासनिक स्वार्थ ने नगरों के हित के खिलाफ यह एक प्रकार का जैसे षडयंत्र किया है.

एक अन्य बिंदु, शांति व्यवस्था या लाॅ एंड आर्डर हमारे प्रदेशों की भीषण समस्या है. गृह विभाग 38 अनुभागों का भारी-भरकम विभाग है. जब मैं गृह विभाग में पहुंचा तो लंका में विचरण कर रहे हनुमान जी के समान मैं भी बड़ा आश्चर्यचकित हुआ. शांति व्यवस्था जो मुख्य दायित्व है उनका कार्य भांति-भांति के अधिकारियों और बहुत से अनुभागों में बंटा हुआ है.

4 सचिवों और 8 विशेष सचिवों के इस विभाग में अगर कहीं कोई घटना घटी तो वह टीवी से जानी जाती है. बहुत सा ऐसा कार्य भी यहां हम अपने सिर लिए हुए हैं जिसका निपटारा पुलिस मुख्यालय में ही होना चाहिए. अपने गृह विभाग के सेवा काल में मैंने गृह विभाग के पुर्नगठन का प्रस्ताव लिखना प्रारंभ किया. मुख्य मसला शांति व्यवस्था था.

अन्य दायित्वों से मुक्त होकर इसी का पालन करें

जरूरी लगा कि शांति व्यवस्था से जुड़े सभी अनुभाग अन्य दायित्वों से मुक्त होकर मात्र इसी एक दायित्व का पालन करें. विभाग के 4 सचिवों में से किसी एक को सचिव, शांति व्यवस्था नियुक्त किया जाए. दुर्भाग्यवश ऐसा कोई पद अभी तक सोचा नहीं गया है. दूसरा पुलिस कार्मिक के संपूर्ण कार्य एक सचिव को और विधि और आयोगों से संबंधित कार्य एक सचिव को दिया जाए.

विभागीय पुर्नगठन का प्रस्ताव एक महीने में प्रस्तुत कर दिया गया. ‘मक्षिका स्थाने मक्षिका‘ की नीति पर संचालित विभाग प्रायः किसी भी परिवर्तन के घोर विरोधी होते हैं. विरोध के बाद सहमति यह बनी कि सभी अधिकारियों की बैठक बुलाकर इस पर चर्चा की जाए. लेकिन दूसरे दिन प्रमुख सचिव गृह के साथ-साथ हमारा भी ट्रांसफर हो गया. बात वहीं खत्म हो गई और प्रस्ताव मेरे पेन ड्राइव में रह गया.

हमारे प्रशासन में ऐसा कोई फोरम नहीं जहां नए प्रस्तावों, विचारों को रखा जा सके. इसलिए विचारों को अकाल मौत मरते देखा गया है. विकास प्राधिकरण में तैनाती के दौरान देखा गया कि अवैध निर्माण एक बड़ी समस्या है. नोटिसें जारी होती थीं, अवैध निर्माण चलते भी रहते थे. यह व्यवस्था की गई कि अवैध निर्माण का फोटो सहित नोटिस जारी की जाए.

फोटो छपी नोटिसों के जारी होते ही जैसे भूकंप आ गया. उस प्राधिकरण में अक्सर राजनीतिक रसूख वाले नेताओं के पति अथवा पत्नियां, अफसर हुआ करते थे. फोटो वाले नोटिस से अवैध निर्माणकर्ताओं से ज्यादा परेशान तो विभागीय अधिकारी हो गये. क्योंकि फोटो स्वयं में ही प्रमाण थी कि नोटिस के वक्त क्या निर्माण था और अब बढ़कर कितना हो गया है.

शोर मचा कि हम लोग फटकारे गए

शोर यहां तक मचा कि हम लोग लखनऊ बुलाकर फटकारे गए. फोटो नोटिस बंद हुई तो जैसे सबकी जान में जान आई. हमारे विभाग अक्सर उन दायित्वों के विपरीत कार्य करते हैं जिसके लिए वे बने हैं. हर स्तर पर नियमित समीक्षाएं जरूरी हैं जिससे कि यह पता चले कि क्या विभाग अपने दायित्वों की पूर्ति कर पा रहा है?

बाजार में बिकती बच्चों की पंजीरी और पंजीरी खाकर मोटी हुई प्रधान की बछिया तो अब लोकगीतों में भी आ चुकी हैं. खनन, खाद्यान्न घोटाले विभागीय दुरभि संधि के ही तो उदाहरण हैं. अगर ग्राम पंचायत अधिकारी का बेटा या पत्नी पंचायत अध्यक्ष हो जाए तो राजनीति और स्थानीय प्रशासन के इस गठजोड़ से कैसे निपटा जायेगा? इस जैसे बहुत से प्रश्न सामने आते हैं.

कर्मचारी हित और जनहित अक्सर हमें विपरीत ध्रुवों पर खड़े मिलते हैं. इसलिए प्रशासनिक बेहतरी के रास्ते लगातार खोजना आवश्यक है. यह भी जरूरी है कि एक ऐसा फोरम हो जहां व्यवस्थाओं में आ रही अस्वाभाविकताओं को संबोधित करने के साथ-साथ नए विचारों के स्वागत की राह हमवार की जाए.

( लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं )