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राजनीतिक दलों के व्यवहार से लोगों का संसद से भरोसा टूटेगा

यदि राजनीतिक दल इसी तरह व्यवहार करते रहे तो संसद पर लोगों का भरोसा टूटेगा

सुरेश बाफना

2013 के बाद अब दूसरी बार संसद का शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया. इसका अर्थ यह है कि हमारे राजनेताओं ने अतीत की गलतियों से कोई सबक नहीं लिया. 2013 में 2जी घोटाले के सवाल पर भाजपा व अन्य विपक्षी दलों ने जेपीसी की मांग को लेकर पूरे सत्र में कोई काम नहीं होने दिया था.

संसद में कई दिनों तक जारी गतिरोध के संदर्भ में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सांसदों से कहा कि ‘ईश्वर के लिए संसद में अपनी जिम्मेदारी निभाए. संसद में बहस के बाद निर्णय होना चाहिए. संसद में हंगामेबाजी के लिए कोई जगह नहीं है.’


हमारे सांसद यह बात कहते थकते नहीं कि संसद लोकतंत्र का पवित्र मंदिर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब संसद में प्रवेश किया था तो उन्होंने मुख्य द्वारा पर माथा टेककर इस पवित्र मंदिर के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा का इजहार किया था.

विरोध हो मगर संसद तो चले 

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जमाने में विपक्षी नेता के तौर पर समाजवादी पार्टी के नेता डॉ.राम मनोहर लोहिया बहुत तीखी भाषा में सरकार की नीतियों की आलोचना करते थे, लेकिन विरोध को इस स्तर पर नहीं ले जाते थे कि संसद का पहिया ही जाम हो जाए. नेहरू जी के मन में विपक्षी नेताओं के प्रति सम्मान की भावना अपनी पार्टी के नेताओं की तुलना में कम नहीं थी.

देश के लिए यह दुर्भाग्य की बात है कि मोदी सरकार के विमुद्रीकरण के निर्णय पर देश व विदेश में हर स्तर पर बहस हो रही है, लेकिन संसद में इस पर इसलिए बहस नहीं हो पाई कि सरकार और विपक्ष के बीच नियम को लेकर सहमति नहीं बन पाई। भविष्य की पीढ़ी जब इस इतिहास का विश्लेषण करेगी तो वर्तमान सांसदों व नेताओं की स्थिति हास्यास्पद ही होगी.

भाजपा जब विपक्ष में थी, तब उसके नेता यह बात बार-बार दोहराते थे कि संसद को सुचारू रूप से चलाने की मुख्‍य जिम्मेदारी सरकार की होती है. अब यही बात कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल दोहरा रहे हैं. वास्तविकता यह है कि बिना किसी कामकाज के शीतकालीन सत्र खत्म होने का दोष सरकार व विपक्ष दोनों के कंधों पर समान रूप से है.

संसद में किस नियम के तहत बहस हो? यह सवाल असंख्य बार सदन में उठाया जाता रहा है. इस मुद्दे पर कई बार सरकार व विपक्ष के बीच विवाद व टकराव की स्थिति पैदा हुई हैं, लेकिन आपसी संवाद के माध्यम से कोई हल निकाल लिया जाता था. यदि संवाद से हल नहीं निकलता था तो दोनों पक्ष स्पीकर या पीठासीन अधिकारी के निर्णय को स्वीकार करते रहे हैं.

पिछले कुछ सालों से यह संसदीय परम्परा खत्म होती जा रही है, जो भारतीय संसदीय प्रणाली के लिए चिंता की बात है.

नियम के विवाद को लंबा खींचा

शीतकालीन सत्र के दौरान विमुद्रीकरण पर भ्रमित विपक्ष ने नियम के विवाद को अनावश्यक तौर  लंबा खींचकर अपने पैरों के साथ संसद की गरिमा पर भी कुल्हाड़ी मारी है. तृणमूल कांग्रेस व आप पार्टी को छोड़कर अन्य सभी विपक्षी दलों ने विमुद्रीकरण के निर्णय का स्वागत किया था.

यदि कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल लचीला रवैया अपनाते तो संसद में विमुद्रीकरण पर बहस होती और उन्हें सरकार को कटघरे का मौका मिलता.

इसी तरह मोदी सरकार ने भी विपक्षी दलों के नेताओं के साथ संवाद बनाए रखने की बजाय संसद के बाहर की राजनीतिक पैंतरेबाजी को तरजीह देना जरूरी समझा. किसी मुद्दे पर सरकार और विपक्ष के बीच मतभेद और राजनीतिक टकराव होना लोकतां‍त्रिक प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा है, लेकिन मतभेदों का समाधान संवाद के माध्यम से ही संभव है.

शीतकालीन सत्र में जो कुछ हुआ, उससे स्पष्ट है कि सरकार व विपक्ष दोनों ने संसद को राजनीति का अखाड़ा बनाकर अपने दलीय हितों को साधने की कोशिश की है. यदि राजनीतिक दल इसी तरह व्यवहार करते रहे तो संसद पर लोगों का भरोसा टूटेगा और देश में अराजकता फैलने का खतरा बढ़ेगा.