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बैंकिंग लेनदेन शुल्क से क्यों किसी का भला नहीं होगा!

बैंकिंग लेनदेन शुल्क की वजह से बैंकों का कुल जमा प्रभावित होगा और उनकी माली हालत सुधरने के बजाय खराब ही होगी

Mukesh Kumar Singh

यदि नोटबंदी के दौरान आपको मिले जख्म अभी भी हरे हैं तो अब आप अपने बैंकों का एक और सितम झेलने के लिए कमर कस लें. देश भर के बैंकों ने अब अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए आम आदमी की जेब काटने का जो तरीका खोजा है, उसका नाम है बैंकिंग लेन-देन शुल्क या बैंकिंग ट्रांजेक्शन चार्ज.

यदि आप मध्यम और निम्न आय वर्ग से ताल्लुक रखते हैं तो जल्द ही आप अपने बैंक के शोषण का शिकार होने वाले हैं. लेकिन यदि आप समाज के संपन्न तबके से हैं तो आप पर आपके बैंक की मेहरबानी बनी रहेगी. क्योंकि अलग-अलग बैंकों ने अपने अलग-अलग किस्म के ग्राहकों के लिए अलग-अलग तरह के बैंकिंग लेन-देन शुल्क का खाका तैयार किया है.


आमतौर पर सरकारी एजेंसियां कुछ सुविधाओं के लिए अमीर से अधिक पैसे या टैक्स लेती हैं, ताकि गरीबों को सहूलियत दी जा सके. कल्याणकारी देश (वेलफेयर स्टेट) के लिए ऐसा करना जरूरी है. लेकिन मोदी सरकार के कैशलेस इंडिया के सपनों की आड़ में हमारे बैंकों ने अपनी आमदनी बढ़ाने और कैश के लेनदेन को हतोत्साहित करने की जो योजना बनायी है, उससे तो उनका बंटाढार ही होगा. क्योंकि भारत आज भी एक गरीब देश है.

स्टेट बैंक 1 अप्रैल से खाते में तय न्यूनतम बैलेंस नहीं रखने पर खाताधारकों से चार्ज वसूलने की तैयारी में है

सुधरने के बजाए माली हालत खराब होगी

गरीबों के पास इतना पैसा होता नहीं कि वो बैंकों में भारी रकम जमा रखें और बार-बार पैसे जमा करें या निकालें. लिहाजा, बैंकिंग लेनदेन शुल्क की वजह से करोड़ों गरीबों की लघु बचत बैंकों में नहीं पहुंचेगी. वो अपनी रकम को नकद  यानी कैश में ही रखना चाहेंगे. इससे जल्द ही बैंकों का कुल जमा प्रभावित होगा और उनकी माली हालत सुधरने के बजाय खराब ही होगी.

यही नहीं, जिस मनमाने ढंग से बैंकिंग लेनदेन शुल्क ऐंठने की तैयारी हुई है, उससे साफ है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) अब एक बेअसर संस्था बन चुकी है. आरबीआई ही देश की मौद्रिक नीति और बैंकिंग क्षेत्र का नियंत्रक होता है. लेकिन उसके लचर प्रावधानों को तोड़-मरोड़कर अलग-अलग बैंकों ने अलग-अलग बैंकिंग लेनदेन शुल्क लागू करने का ऐलान किया है.

हालांकि, पहले भी कई बैंक ग्राहकों से तरह-तरह की फीस लेते और वसूलते थे, लेकिन अब तो बात पूरी तरह से बेपर्दा है. बदकिस्मती से देश देख चुका है कि किस तरह से नोटबंदी के दिनों में आरबीआई को हर दिन अपने फरमान बदलने पड़ते थे और कैसे उसके कार्यक्षेत्र और शक्तियों का प्रधानमंत्री कार्यालय ने अपहरण कर लिया था!

मनमाने ढंग से बैंकिंग लेनदेन शुल्क

इसीलिए ये समझना मुश्किल नहीं कि रिजर्व बैंक की रजामंदी के बगैर कैसे सरकारी और निजी बैंकों ने एकरूपता और पारदर्शिता की अनदेखी कर के मनमाने ढंग से बैंकिंग लेनदेन शुल्क वसूलने की ठान ली. इस बात का कोई ब्यौरा नहीं है कि बैंकों ने किस आधार पर एक ही सेवा के लिए अपनी अलग-अलग फीस तय की है? कोई ये नहीं जानता कि ऐसी शुल्क-वसूली से बैंकों की आमदनी में कितना इजाफा होगा?

नोटबंदी के बाद बैंकों के सामने ग्राहकों की लगी लंबी लाइन

कुछ बैंकों की बदनीयती भी हास्यास्पद है. वर्ना ये कैसे तय होगा कि कंप्यूटरीकृत बैंकिंग के मौजूदा दौर में किसी ग्राहक को यदि उसके ही बैंक की ‘नॉन होम ब्रांच’ सेवाएं देगा तो इससे उस बैंक की लागत कैसे बढ़ जाएगी? ये वो सवाल हैं जिसे रिजर्व बैंक को अपने मातहत बैंकों से पूछने चाहिए. लेकिन लगता है कि नोटबंदी पर हुई अपनी छीछालेदर से रिजर्व बैंक अब भी सदमे से उबर नहीं पाया है.

बैंकिंग क्षेत्र से जुड़े भारतीय आंकड़े ये बताने के लिए काफी हैं कि अभी हमें बहुत लंबा सफर तय करना है. देश में लगभग 80 हजार बैंक शाखाएं हैं. करीब सवा दो लाख एटीएम हैं. नोटबंदी से पहले औसतन 80 फीसदी एटीएम ही हर वक्त काम कर पाते थे. अभी तो इसकी सक्रियता उस दौर के मुकाबले आधी ही है. ये सब मिलकर देश के लगभग 40 करोड़ लोगों को ही बैंक-खाताधारक बना सके हैं.

इन खातों में कम से कम 75 फीसदी ऐसे हैं जिनका ‘बैलेंस’ बमुश्किल 20-25 हजार रुपये भी नहीं हैं. बदकिस्मती से इसी तबके पर नये बैंकिंग लेन-देन शुल्क की सबसे तगड़ी मार पड़ने वाली है.

खर्च लेनदेन की नीति लागू

बहुत पुरानी बात नहीं है, जब पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने ग्राहकों को किसी भी एटीएम से पांच बार रुपये निकालने की सुविधा मुहैया करवायी थी. इसके पीछे तर्क सिर्फ इतना सा था कि हरेक बैंक के लिए अपने एटीएम का बड़ा नेटवर्क बनाना न केवल कठिन होगा, बल्कि खासा खर्चीला भी. लिहाजा, बैंकों को एक-दूसरे के ग्राहकों को एटीएम की सुविधा देने और बदले में बैंकों के बीच 50 रुपये बतौर खर्च लेनदेन की नीति लागू हुई.

पी चिदंबरम ने अपने वित्त मंत्री रहते हुए बैंकों के अपने एटीएम को इंटरकनेक्ट बनाने की पहल की थी

इसके बाद एक प्रस्ताव ये भी बना कि सभी बैंक मिलकर एक ऐसी संस्था बनाएं जो देश के सारे एटीएम को संचालित करे और ग्राहकों के इस्तेमाल के मुताबिक, बैंक उस संस्था को अपनी फीस भरें. इससे एक ही इलाके में तमाम एटीएम की मौजूदगी की दशा बदल जाती और फालतू एटीएम को अछूते इलाकों में तैनात किया जाता. लेकिन अफसोस कि रिजर्व बैंक ने ऐसी नीति को धक्का देने में कोई खास उत्साह नहीं दिखाया.

अब देश में बैंकिंग से हरेक नागरिक को जोड़ने के लिए सरकार डाकघरों और मोबाइल कंपनियों की सेवाएं लेने की बात कर रही है. लेकिन जो लोग पहले से बैंकों से जुड़े हैं, उनकी बैंकिंग पर प्रस्तावित शुल्क निश्चित रूप से प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे. मिसाल के तौर पर जो व्यक्ति महीने में 5-7 बार एटीएम से दस-दस हजार रुपये निकालता था, वो अब एक बार में ही 50 हजार रुपये निकालने के लिए अपने बैंक जाना चाहेगा. ताकि वो नयी फीस से बच सके.

बैंकों की सेहत पर असर पड़ेगा

इससे बैंक जाने में लगने वाला उसका धन-श्रम वापस उन्हीं दिनों जैसा हो जाएगा, जैसा हमने बैंकिंग क्रांति से पहले देखा था. यही ग्राहक अब अपने पास अधिक कैश रखना चाहेगा और बैंक जाने की फजीहत से बचने की कोशिश करेगा. देर-सबेर इस प्रवृति का असर बैंकों की सेहत पर भी पड़ेगा.

प्रधानमंत्री मोदी ने 8 नवंबर को टीवी पर आकर बड़े नोटों को बंद करने की घोषणा की थी

प्रस्तावित फीस के ऐलान के वक्त यदि बैंकों ने ये कहा होता कि हम ग्राहकों को बदले में खातों पर अधिक ब्याज भी देंगे, तो निश्चित रूप से बैंकों की लघु-बचत के इजाफा होता. लेकिन नयी नीति से साफ है कि बैंक केवल उन्हीं लोगों को प्राथमिकता देना चाहेंगे जो उसकी नजर में मालदार आसामी हैं.

ये नज़रिया उस सोच के विपरीत होगा, जिसे तहत 1969 में इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था. उस दौर में हमारे बैंक मुख्य रूप से रईसों की ही सेवा करते थे. लेकिन राष्ट्रीयकरण के बाद उन्हें आम लोगों को भी बैंकिंग सुविधाएं देने के लिए मजबूर होना पड़ा. लेकिन, न जाने क्यों, हमारा रिजर्व बैंक बीते अनुभवों के आगे बुत बना बैठा है!