view all

बाबरी मसलाः आडवाणी पर मुकदमे से कुछ हासिल नहीं होगा

मामले में सही तरीका जांच को बंद कर इसे एक बड़ी असफलता के तौर पर याद करना है.

Ajay Singh

आपराधिक न्यायशास्त्र में ‘Mens Rea’ का जिक्र किया गया है जिसका मतलब है कि अपराध की मंशा किए गए अपराध से कम दंडनीय नहीं है.

जब 1990 में बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली थी, तो उनकी मंशा अयोध्या में उस जगह पर राम मंदिर बनाने की थी जहां पर बाबरी मस्जिद मौजूद थी.


इसका सीधा मतलब था कि मस्जिद को वहां से हटाया जाता और उसकी जगह पर मंदिर का निर्माण किया जाता. सीधा संदेश यह था कि मस्जिद अपने मूल स्थान पर कायम नहीं रह सकती. लेकिन क्या हमें केवल आडवाणी को दोषी ठहराना चाहिए जिन्होंने रथ यात्रा निकाली जिसके चलते बाद में बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ.

बाबरी मस्जिद गिराए जाने के महज तीन साल पहले, उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने जन्मभूमि स्थल पर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच एक भव्य राम मंदिर बनाए जाने की नींव रखी थी. उस वक्त एनडी तिवारी यूपी के मुख्यमंत्री थे और राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे.

इसी तरह से 1986 में एक अदालती आदेश के जरिए जिस तरीके से गुंबद के ताले खोले गए जहां भगवान राम, सीता की मूर्तियां थीं, उससे अयोध्या आंदोलन की शुरुआत का रास्ता साफ हो गया.

जब सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की ओर उंगली उठाई कि एलके आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र का मामला खत्म नहीं किया जाना चाहिए, तब शायद कोर्ट यह भूल गया कि यह भारतीय राजनीति की हालात को संभालने में ऐसी भयंकर नाकामी थी जिसके एक बड़ा आपराधिक संकट पैदा हो गया.

असलियत में 6 दिसंबर 1992 बाबरी मस्जिद को गिराए जाने को कुछ लोगों के व्यक्तिगत अपराध के नजरिए से देखना गलत होगा. ऐसे में आडवाणी, जोशी या कल्याण सिंह के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र का केस चलाने से कोई मकसद हल नहीं होगा.

पिछले 25 साल की जांच में न तो सीबीआई न ही लिब्रहान आयोग ऐसे पुख्ता सुबूत जुटा पाए जिनसे आरएसएस-बीजेपी-वीएचपी नेताओं को दोषी ठहराया जा सकता और इन पर आपराधिक षड्यंत्र के आरोप सिद्ध किए जा सकते.

मामले की जांच करने वाले मानते हैं कि एक लाख लोगों से ज्यादा की भीड़ के खिलाफ सुबूत जुटाना और मस्जिद ढहाए जाने के आरोप तय करना तकरीबन नामुमकिन है.

इसके उलट, आडवाणी जैसे नेताओं के बयानों की रिकॉर्डिंग एक अलग ही हालात बयां करती है. आडवाणी को कारसेवकों से ढांचे को तोड़ने से रोकने की अपील किए जाते सुना जा सकता है. उस दिन जो लोग उनके साथ थे उन्होंने बाद में पुष्टि की कि दिन के घटनाक्रम से परेशान आडवाणी लखनऊ के गेस्ट हाउस में गए जहां वह खुद को रोने से रोक नहीं सके. उसके बाद से लगातार वह अपने सभी इंटरव्यू में यह कहते रहे, ‘6 दिसंबर मेरे जीवन का सबसे दुखद दिन था.’

निश्चित तौर पर यहां यह तर्क नहीं दिया जा रहा है कि दुख की अभिव्यक्ति से किसी आरोपी का अपराध कम हो जाता है. लेकिन, गुजरे 25 सालों में न तो सीबीआई न ही कोई न्यायिक जांच आयोग 6 दिसंबर के दिन मौके पर मौजूद नेताओं के खिलाफ कोई सुबूत ला पाया. साथ ही इस बात की उम्मीद भी कम ही है कि सुप्रीम कोर्ट के आपराधिक षड्यंत्र के आरोप लगाए जाने की कोशिशों से भी कोई बड़ा नतीजा निकलेगा.

फोरेंसिक साइंस को समझने वाला कोई भी शख्स बता देगा कि 25 साल पहले किए गए अपराध के खिलाफ षड्यंत्र के ताजा सुबूत जुटाना नामुमकिन है.

बाबरी मस्जिद ध्वंस मामले में सबसे सही तरीका जांच को बंद करने और इसे एक बड़ा राजनीतिक असफलता के तौर पर याद करना है. जिन घटनाक्रमों के चलते 6 दिसंबर 1992 के हालात पैदा हुए, उन्हें न्यायपालिका, कार्यपालिका और राजनीतिक वर्गों को अपनी सामूहिक नाकामी के तौर पर याद रखना चाहिए.

अगर इतिहास पर गौर किया जाए तो बाबरी को तोड़े जाने से रोका जा सकता था अगर मूर्तियों को 1949 में मस्जिद में बंद नहीं किया जाता और 1986 में ताले न खोले जाते. इसी तरह से एक राजनीतिक राय-मशविरे से आडवाणी और संघ परिवार को अयोध्या जैसे मसले को उठाने से रोका जा सकता था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

फिलहाल, षड्यंत्र का केस फिर से जिंदा करने की बजाय सुप्रीम कोर्ट को इसे एक नजीर के तौर पर लेना चाहिए और भविष्य की सत्ताधारी ताकतों के लिए गाइडलाइंस तय करनी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं के लिए सही प्रतिक्रिया की तैयारी हो.