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बाबरी मस्जिद विध्वंस की एक अनकही सी दास्तान

ऐसा क्या हुआ था, जिसने 1949 से ठंडे बस्ते में जा चुके राम मंदिर के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीति का केंद्रबिंदु बना दिया था

Saqib Salim

6 दिसंबर 1992 भारतीय इतिहास के एक काले दिन के रूप में याद किया जाएगा. 25 साल पहले इसी तारीख को 464 बरस पुरानी बाबरी मस्जिद (जिसे बाद में विवादित ढांचा माना गया) को विश्व हिन्दू परिषद और बीजेपी द्वारा जुटाई भीड़ ने तोड़ डाला था.

बाबरी मस्जिद के इतिहास, 1949 में वहां भगवान राम की स्थापना और 1990 से लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में हुई कारसेवा जिसके फलस्वरूप बाबरी मस्जिद गिरी, इन सब मुद्दों पर बहुत बार लिखा गया है. मैं नहीं समझता की उन सब की बात करने का कोई औचित्य भी बचा है. परन्तु जो एक पहलू आम तौर पर हम नहीं देखते वो ये है कि ऐसा क्या हुआ था, जिसने 1949 से ठंडे बस्ते में जा चुके इस ‘मुद्दे’ को राष्ट्रीय राजनीति का केंद्रबिंदु बना दिया था.


अगर देखा जाए तो 1949 में भी जब रातोंरात मूर्ति स्थापित हुई तो ये एक राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बना था. हां, इतना जरूर है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त को इस बारे में आगाह किया था और बदले में पंत ने उनको आश्वासन भी दिया था. नेहरू मानते थे कि भविष्य में बाबरी मस्जिद में मूर्ति स्थापना भारतीय लोकतंत्र के लिये खतरा बन सकती है. कितने सही थे वो.

हां, तो हम बात कर रहे थे बाबरी मस्जिद के राष्ट्रीय मुद्दा बन जाने की. हममें से अधिकतर भारतीय आज के समय में ये मानते हैं कि बाबरी मस्जिद का मुद्दा 1986 में तब राष्ट्रीय राजनीती में गूंजा, जब 1 फरवरी को राजीव गांधी की पहल पर अदालती आदेश के साथ पूजा अर्चना के लिए वहां का ताला खोल दिया गया. ये थोड़ा-थोड़ा ठीक है परन्तु पूरी कहानी इस से कहीं अधिक है.

राममंंदिर आंदोलन के शुरुआत की कहानी

ये कहानी शुरू होती है अयोध्या से 2000 किलोमीटर दूर तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले के मीनाक्षीपुरम गांव से. इस गांव के सैकड़ों ‘अछूत’ माने जाने वाले हिंदुओं ने साल 1981 में इस्लाम धर्म अपना लिया था. इसने देश की राजनीति को पूरी तरह गरमा दिया और उस समय देश के कई बड़े नेता वहां दलितों को समझाने के लिए भी गए थे. अटल बिहारी वाजपेयी उनमें से एक थे.

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जांच समिति बनी पर उसने पाया की ये लालच द्वारा धर्मान्तरण का मामला नहीं है. परन्तु इसने हिन्दू धार्मिक गुरु और नेताओं को सतर्क कर दिया. इस प्रकरण के बाद दो बातों पर जोर दिया गया. एक तो ये कि हिन्दू धर्म से छुआछूत को खत्म करना होगा और दूसरा मुसलमानों की ओर दलितों को जाने से रोकना होगा.

इसी कड़ी में विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) ने 1984 के अगस्त में दिल्ली में एक धर्म संसद का आयोजन किया. जिसमें देशभर से साधू-संत आदि ने भाग लिया. उसके बाद से ये संसद हर वर्ष दो बार होने लगी और यही वीएचपी की आलाकमान है. यहां 6 प्रस्ताव पारित हुए. जिसमें दलितों और आदिवासियों के उत्थान की बात कही गयी ताकि वे हिन्दू धर्म को छोड़ कर न जाएं और एक प्रस्ताव ये भी पारित हुआ कि ‘श्रीराम जन्मभूमी, काशी विश्वनाथ और कृष्ण जन्मस्थान पर मंदिर निर्माण हो.’

यहां ये निर्णय भी लिया गया की 25 सितम्बर 1984 को सीतामढ़ी बिहार से रामजन्मभूमि मुक्ति यात्रा अयोध्या के लिए रवाना होगी. यहां भगवान राम को चुनने की वजह थी. मकसद था कि शबरी जैसी रामायण की कथाओं के जरिए दलितों को ये यकीन दिलाया जाए कि हिन्दू धर्म उनके प्रति उदार है.

5 अक्टूबर को ये यात्रा अयोध्या पहुंची और वहां से 7 अक्टूबर को लखनऊ के लिए रवाना हो गई. इस यात्रा के दौरान लाखों की संख्या में लोग जुटे. खुद वीएचपी के अनुमान से कहीं अधिक लोग 6 अक्टूबर को अयोध्या में सरयू के तट पर मस्जिद का ताला खुलवाने का संकल्प लेने आए. टाइम्स ऑफ इण्डिया के अनुसार अयोध्या में 50,000 लोगों ने संकल्प लिया और लखनऊ में तीन लाख से अधिक लोग यात्रा का स्वागत करने पहुंचे थे. पहली बार अयोध्या राष्ट्रीय मीडिया के लिए खबर बन चुका था.

अयोध्या में प्रस्तावित राम मंदिर का मॉडल (फोटो: रॉयटर्स)

राजीव गांधी की गलती ने भी इस मुद्दे को उछाला

ये यात्रा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के कारण रोक देनी पड़ी. एक ओर अयोध्या के बारे में दिल्ली में चर्चा होने लगी थी तो दूसरी ओर शाहबानो के केस पर राजीव गांधी ने मुस्लिम संगठनों के सामने घुटने टेक दिए थे. ऐसे में अपने हिन्दू वोट बैंक को बचाने का सबसे आसान उपाय उनको यही लगा कि मस्जिद का ताला खुलवाने का ये जो वीएचपी का आन्दोलन है, इसको भी मान लिया जाए.

1 फरवरी 1986 को मस्जिद का ताला खुला जिसको दूरदर्शन ने लाइव दिखाया. रातोंरात अयोध्या की बाबरी मस्जिद देश भर का मुद्दा बन चुकी थी. अब ये कुछ अखबारों से निकल कर घरों में टीवी तक आ गई थी. अब इसको राजीव गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता ही कहेंगे की उन्होंने इस गलती से सबक लेने के बजाए एक और गलती कर दी.

विरोधी दल के वी पी सिंह जैसे नेता उनको भ्रष्टाचार के आरोपों पर घेर रहे थे. परन्तु उन्होंने उनका जवाब देने के बजाए एक सांसद वाली भारतीय जनता पार्टी का जवाब देना जरूरी समझा. अाडवाणी ने 1989 के चुनाव का प्रचार अयोध्या से शुरू किया तो राजीव ने भी उनकी नकल कर डाली और प्रचार की शुरुआत रामराज्य के वादे से की. नतीजा ये हुआ की राजीव की पार्टी सत्ता से बाहर हुई और बीजेपी के सांसद 1 से बढ़कर 88 हो गए.

खैर इससे आगे की कहानी, रथयात्रा, कारसेवकों पर गोली, आडवाणी की गिरफ्तारी और फिर मस्जिद का गिरना ये सब तो आप हजार बार सुन चुके हैं.

कहने सुनने में जो नहीं आती

वो भी इक दास्तान है प्यारे

(जिगर मुरादाबादी)

(लेखक एक स्वतंत्र टिप्पणीकार और इतिहासकार हैं)