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यह अंबेडकर के सपनों का भारत नहीं है

अंबेडकर के सपनों में ऐसा भारत था जहां दलित, स्त्रियां, पिछड़े, वंचित, मजदूर, किसान, आदिवासी सब सुरक्षित रहते

Krishna Kant

डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय महापुरुषों में अकेली ऐसी विभूति हैं, जिन्हें हर पार्टी अपने नारों में जगह देती है. इसकी वजह साफ है. समाज का बहुसंख्यक तबका, जिसमें दलित और पिछड़े शामिल हैं, अंबेडकर को अपना नायक मानता है. इसके अलावा जो भी प्रगतिशील विचार के लोग हैं, जो भी संविधान को मानने वाले लोग हैं, वे स्वाभाविक तौर पर अंबेडकर के निकट दिखते हैं.

यह अंबेडकर की दूरदृष्टि थी कि जिन मुद्दों को भारतीय राजनीति में जगह पाने में दशकों लगे, अंबेडकर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के समय ही प्रमुखता से उठा रहे थे. अब उनके परिनिर्वाण के छह छशक बाद हालात बेहद दिलचस्प हो गए हैं. जिन विसंगतियों पर बात होती थी, उन्हें कम से कम उठाया जा रहा है, लेकिन अंबेडकर को अपना कहने के लिए होड़ लगी है.


जब कोई पार्टी या नेता आंबेडकर को अपना नायक कहते हुए उनके सपनों और विचारों की बात कहता है, तो सहज सवाल मन में आता है कि आंबेडकर कैसा भारत चाहते थे?

सामाजिक अंतर्विरोधों की चिंता 

संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के तौर पर संविधान सभा में वाद-विवाद को समाप्‍त करते हुए बाबा साहेब ने कहा था कि '26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करेंगे. राजनीति में समानता होगी तथा सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी. राजनीति में हम 'एक व्‍यक्‍ति एक मत' और 'एक मत एक आदर्श' के सिद्धांत को मान्‍यता देंगे. हमारी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्‍यक्‍ति एक आदर्श के सिद्धांत को नकारेंगे. कब तक हम इन अंतर्विरोधों का जीवन जिएंगे? कब तक हम हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर लंबे समय तक ऐसा किया गया तो हम अपने राजनैतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल देंगे. हमें जल्‍द से जल्‍द इस अंतर्विरोध को समाप्‍त करना चाहिए वरना असमानता से पीड़ित लोग उस राजनैतिक लोकतंत्र की संरचना को ध्‍वस्‍त कर देंगे जिसे सभा ने बड़ी कठिनाई से तैयार किया है. कैसे कई हजारों जातियों में विभाजित लोगों का एक राष्‍ट्र हो सकता है?'

डॉ. अंबेडकर के यह सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं और यह समस्या अपने बदले रूप में बरकरार. वे इन अंतर्विरोधों को ध्वस्त करने के वंचित वर्गों और महिलाओं के लिए हमेशा प्रयासरत रहे.

भाईचारे पर टिका समाज

अंबेडकर का सपना एक ऐसे समाज का था जो समानता और भाईचारे पर टिका हो, जहां सबके लिए समानप अवसर हों, जहां सबको आर्थिक सुरक्षा हो, जहां कोई जाति या धर्म के आधार पर बड़ा-छोटा, पवित्र या अछूत न हो.

ऐसा नहीं है कि परिस्थितियां बदली नहीं हैं, लेकिन अंबेडकर की कल्पना का भारत अभी भी बहुत दूर दिखाई देता है.

प्रो. अपूर्वानंद बीबीसी पर अपने एक लेख में खिलते हैं, 'भारतीय संविधान की आत्मा है बराबरी और इंसाफ. 2015 एक ऐसे साल के रूप में याद किया जाएगा जब भारत के अल्पसंख्यक सबसे अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे थे. भारत के संविधान की बुनियादी प्रतिज्ञा अल्पसंख्यकों के सारे अधिकारों की हिफाजत और उन्हें मुल्क पर बराबरी का हक देने की है. आज दिन ऐसा है कि उनके भीतर की इस असुरक्षा की बात करने को देशद्रोह जैसा बड़ा अपराध भी घोषित कर दिया गया है.'

अंबेडकर के सपनों का भारत तो वह था जहां दलित और अल्पसंख्यक सब समान रूप से सुरक्षित होते. फिर वे कौन लोग हैं जो बाबा साहेब के सपनों का भारत बनाने का नारा लगा रहे हैं?

पिछले सालों में दलितों पर हमलों की तमाम गंभीर घटनाएं हुईं. मरी हुई या जिंदा गाय के बहाने दलितों को प्रताड़ित करने का सिलसिला यहां तक पहुंचा कि गुजरात के दलितों ने जिला मुख्यालय के सामने मरे हुए पशुओं के ढेर लगा दिए और मरे हुए जानवर उठाने से इनकार कर दिया.

जिस समय गुजरात के दलित मरे हुए पशुओं को उठाने के बदले अपमान झेलने से इनकार करके आंदोलन कर रहे थे, जिस समय उत्तर प्रदेश या हरियाणा के दलित हमले झेल रहे थे, उसी समय आंबेडर का 125वां जन्म शताब्दी वर्ष भी मनाया जा रहा था.

अंबेडकर होते तो आज क्या करते?

उसी दौरान यह भी सवाल पूछा गया कि क्या अंबेडकर होते तो आज क्या करते? क्या दलितों के नारकीय जीवन के लिए संघर्ष करने वाले अंबेडकर ने कभी ऐसे भारत की कल्पना की थी?

अंबेडकर जिस भारत का सपना देख रहे थे, वह समानता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के उच्च आदर्शों पर आधारित एक ऐसा देश था, जहां दलित, स्त्रियां, पिछड़े, वंचित, मजदूर, किसान, आदिवासी सब सुरक्षित रहते और सबके लिए समान अवसर होता.

संविधान आज भी वही है, लेकिन अंबेडकर की वह आशंका अपने मूर्तरूप में सामने है, जहां वे कह रहे थे कि 'हमारा संविधान कैसा है यह इस पर निर्भर करता है कि इसे लागू करने वाले कैसे होंगे?'

अंबेडकर आधुनिक भारत के अकेले ऐसे नेता हैं जिन्होंने दलितों के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया. इस क्रम में उन्होंने हिंदू धर्म और उसमें व्याप्त संस्थानिक अमानवीयता की धज्जियां उड़ाकर रख दीं.

सामाजिक न्याय के पक्षधर अंबेडकर हमेशा धर्म और जातीय जकड़बंदी से मुक्त होने को छटपटाते रहे. उन्होंने चेताया था कि भारत अगर हिंदू राष्ट्र बना तो यह तबाही लाने वाला होगा. आज हिंदू राष्ट्र के पैरोकारों द्वारा भी अंबेडकर के नाम का नारा लगाना काफी दिलचस्प है.

आंबेडकर हिंदू हैं या नहीं 

जिन अंबेडकर ने शपथ ली थी कि वे एक हिंदू के रूप में नहीं मरेंगे, उन्हीं अंबेडकर को राष्ट्र स्वयंसेवक संघ ‘एक महान हिंदू’ के रूप में पेश करता है.

अंबेडकर के 125वें जयंती वर्ष पर संघ परिवार ने न सिर्फ व्यापक आयोजन किया, बल्कि उसमें भापजा के शीर्ष नेता और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस आयोजन में शामिल हुए.

हिंदू धर्म से विद्रोह करते हुए अंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपना लिया था. संघ उस बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म का ही एक संप्रदाय कहता है. मजेदार बात यह है कि उनके आदर्शों को अधिकतम लागू करने की बात कोई पार्टी नहीं करती.

अंबेडकर समाज के सभी वर्गों को धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर समान स्थान और समान अवसर देने के लिए लड़ाई छेड़ी.

महाड सत्याग्रह, मंदिर प्रवेश आंदोलन, महार वतन आंदोलन, जाति उन्मूलन, मनुस्मृति दहन आदि आंदोलनों के पीछे सबको समानता और एक जैसी मानवीय गरिमा प्रदान करने का लक्ष्य था. समाज में व्याप्त धर्म, जाति आदि के आधार पर भेदभाव को खत्म करने का विचार उनके संघर्षों का मूल था.

अंबेडकर के सपनों को दरकिनार करके उनको अपनाने की होड़ क्यों है, इस सवाल पर जीबी पंत संस्थान, इलाहाबाद के शोधार्थी रमाशंकर कहते हैं, ‘जब भी सामाजिक न्याय की बात होगी या सबको आर्थिक रूप से सक्षम बनाए जाने की बात की जाएगी, आंबेडकर संदर्भवान हो उठेंगे. आज पूरी दुनिया को न्यायपूर्ण होने के साथ एक लोकतांत्रिक व्यवस्था होने का वादा पूरा करना है. स्त्रियों, दलितों, मजदूरों और किसानों के लिए एक ऐसी दुनिया बनानी है जिसमें उनके लिए कानूनी रूप से सुरक्षित जगह हो. एक करुणा आधारित समाज बनाया जा सके जिसमें हिंसा न हो. आंबेडकर इसके लिए बेहतरीन नायक हैं. यह बात नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, मायावती के साथ भारत के अन्य नेताओं और नौजवानों को पता है.’

अंबेडकर का सपना अब तक अधूरा

नवभारत टाइम्स में चिंतक चंद्रभान प्रसाद लिखते हैं, 'भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. अंबेडकर के सपने थे कि भारत जाति-मुक्त हो, फूड सरप्लस हो, औद्योगिक राष्ट्र बने, पूरी तरह शहरी हो, सदैव लोकतांत्रिक रहे. उनका एक और सपना भी था कि दलित धनवान बनें. वे हमेशा नौकरी मांगने वाले ही न बने रहें, नौकरी देने वाले भी बनें.'

इस तथ्य से कौन इनकार करेगा कि भारतीय समाज में अभी आर्थिक या सामाजिक आधार पर भेदभाव मौजूद है. दलित और अतिदलित जातियां मौजूद हैं. भारतीय समाज महिलाओंं, दलितों और वंचितों के लिए एक हिंसक समाज है. आधुनिक भारत के शिल्पी डॉ. अंबेडकर का सपना अब तक अधूरा है. हम अंबेडकर के सपनों का भारत हासिल करने के लिहाज से फिलहाल काफी पीछे हैं.