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अ'स्वस्थ तंत्र पार्ट 2 : 65 वर्षीय चुनी हुई सरकार बनाम 65 वर्षीय इंसेफेलाइटिस

आश्चर्य का विषय यह है कि भारत सरकार इंसेफेलाइटिस के सही कारणों को जानने में अभी तक नाकाम रही है

Ashutosh Kumar Singh

(नोट: यह लेख पूर्वांचल में इंसेफेलाइटिस से मरते मासूम बच्चों की मौतों पर सीरीज की  दूसरी किस्त है. इस सीरीज में इंसेफेलाइटिस के अलावा हमारी बीमार स्वास्थ्य व्यवस्था की तहकीकात कर रहे हैं अाशुतोष कुमार सिंह)

भारत जैसे देश किसी भी नई बीमारी के पालनहार आसानी से बन जाते हैं. सवा अरब से ज्यादा जनसंख्या को लेकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे भारत में जब कोई बीमारी आयात होती है, तो उसकी खातिरदारी घर आए मेहमान की तरह की जाती है. उसके प्रति हमारा नजरिया और उसको रोकने के उपाय ठीक वैसे ही होते हैं जैसे घर आए दामाद खुद से चले जाएं तो ठीक है, नहीं तो उन्हें कौन कहे कि आप अपने घर चले जाइए.


ऐसी बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि बीमारियों के फलने-फूलने के लिए जरूरी खाद-पानी यहां पर भरपूर मात्रा में उपलब्ध है. यहां पर नई बीमारियों की खेती करने में पूरा तंत्र सहयोग करता है. कैंसर, एड्स, स्वाइन फ्लू और इबोला जैसी बीमारियों की खेती यहां पर खूब हो रही है. इनकी ब्रांडिंग कर के कुछ यहां की कुछ दूसरे मुल्कों की संस्थाएं अपने आर्थिक स्वार्थों को पूर्ण करने में सफल भी हो रही हैं. वहीं दूसरी तरफ स्वस्थ मानव संसाधन की रीढ़ की हड्डी तोड़ने की कोशिश साकार होती दिख रही है.

इंसेफलाइटिस की बीमारी जोरों पर है

इन सब बातों की चर्चा यहां पर इसलिए की जा रही है क्योंकि इन दिनों एक और बीमारी की ब्रांडिंग जोरों पर है. वर्षों से इस बीमारी के जो हमने बोए थे वे अब फलदायी हो गए हैं. अब पहले से ज्यादा मारक हो गई है यह बीमारी. अब मौतों की संख्या बढ़ाने में इस बीमारी ने महारत हासिल कर ली है. अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किस बीमारी की इतनी तारीफ किए जा रहा हूं. यह बीमारी है जापानी इंसेफलाइटिस (जेई).

इस बीमारी ने भारत के कई क्षेत्रों को अपना निशाना बनाया है, और आज उसका हरेक निशाना सही लग रहा है. देश के नौनिहालों को निगलने में यह बीमारी बहुत ही सफल रही है. गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में हो रही मौतों का सिलसिला थमा भी नहीं था कि यह झारखंड के जमशेदपुर में हाहाकार मचाने में सफल रही.

बगल के रांची में भी इसने कोहराम मचा रखा है. बिहार के मुजफ्फरपुर का क्षेत्र हो अथवा गोरखपुर, पश्चिमी चंपारण, गोपालगंज और सीवान का भूगोल. इन क्षेत्रों में इंसेफलाटिस ने अपने आप को खूब फैलाया है.

अब यहां पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर इंसेफलाइटिस होता कैसे है? और भारत में इसने कब कदम रखा? इसकी मजबूती का राज क्या है? उत्तर प्रदेश में इंसेफलाइटिस पर पिछले दिनों एपीपीएल ट्रस्ट ने एक अध्ययन किया था. उस अध्य्यन में कहा गया है कि यह रोग फ्लावी वायरस के कारण होता है. यह भी मच्छर जनित एक वायरल बीमारी है. जिसमें सिर में अचानक से दर्द शुरू होता है, शरीर कमजोर पड़ने लगता है. इसका लक्षण भी बहुत हद तक सामान्य बुखार जैसा ही होता होता है.

बीमारी का इतिहास

इसका असर शरीर के न्यूरो सिस्टम पर पड़ता है. यही कारण है कि इस बीमारी ने या तो बीमारों को मौत की नींद सुलाया है अथवा उन्हें विकलांग कर दिया है. इस बीमारी को फैलने वाले क्षेत्र के बारे मे इस शोध में कहा गया है कि धान की खेती और सुअर-पालन जिन क्षेत्रों में होता है, वहां पर यह बीमारी आसानी से फैलती है. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इसका फैलाव व्यक्ति से व्यक्ति के रूप में नहीं होता है. यह बात तो इस बीमारी के लक्षण की हुई.

भारत में यह बीमारी कब आई यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है. आज से 65 वर्ष पूर्व यानी 1952 में पहली बार महाराष्ट्र के नागपुर परिक्षेत्र में इस बीमारी का पता चला. वहीं 1955 तमिलनाडु के उत्तरी एरकोट जिला के वेल्लोर में पहली बार क्लिनकली इसे डायग्नोस किया गया. 1955 से 1966 के बीच दक्षिण भारत में 65 मामले सामने आए. धीरे-धीरे इस बीमारी ने भारत के अन्य क्षेत्रों में भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया.

भारत में पहली बार इस बीमारी ने 1973 फिर 1976 में पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा तबाही मचाई. पंश्चिम बंगाल के बर्दमान और बांकुरा जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हुए. 1973 में बांकुरा जिला में इस रोग से पीड़ित 42.6 फीसदी लोगों की मौत हुई. 1978 आते-आते यह बीमारी देश के 21 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में फैल गई.

इसी दौरान भारत के उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में 1002 मामले सामने आए जिसमें 297 मौतें हुईं. सिर्फ यूपी की बात की जाए तो 1978 से 2005 तक यह बीमारी 10,000 से ज्यादा मौतों का कारण बनी. 2005 में जो हुआ उसने इस बीमारी की ताकत से देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को परिचित कराया. सिर्फ गोरखपुर में 6061 केस सामने आए जिसमें 1500 जानें गईं.

इसी तरह 2006 में 2320 मामलों में 528 बच्चों को अपनी जान गंवानी पड़ी. 2007 में 3024 मामलों में 645 मौत. इस तरह 2007 तक देश में 103389 मामले सामने आए जिसमें 33,729 रोगियों को नहीं बचाया जा सका.

इस शोध में यह बात भी कही गई है कि 597,542,000 लोग जापानी इंसेफलाइटिस प्रभावित क्षेत्र में रह रहे हैं और 1500-4000 मामले प्रत्येक वर्ष सामने आ रहे हैं.

यहां पर यह भी ध्यान देने वाली बात है कि अभी तक हम लोग जिन आंकड़ों की बात कर रहे हैं, वो सब रिपोर्टेड हैं. बहुत से मामले ऐसे भी होंगे जिनकी रिपोर्ट ही नहीं हुई होगी. ऐसे में जब बिना रिपोर्ट किए गए मामलों की नजर से इस बीमारी को हम देखें तो पता चलेगा कि यह बीमारी कितनी ताकतवर हो चुकी है.

नेशनल वेक्टर बोर्न डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम (एनवीबीडीसीपी) जिसे पहले हमलोग राष्ट्रीय एंटी मलेरिया प्रोग्राम (एनएएमपी) के नाम से जानते थे, इन दिनों भारत में जेई के मामले को मॉनिटर कर रही है. अभी तक देश के 26 राज्यों में कभी-कभार तो 12 राज्यों में अनवरत यह बीमारी अपना कहर बरपा रही है.

आज तक नहीं हो पाया बीमारी पर काबू

1951-52 में पहली बार भारत में लोकसभा चुनाव हुआ था. तब से लेकर अभी तक तमाम प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री बने और चले गए लेकिन 1952 से चली आ रही इस बीमारी का ईलाज नहीं ढूंढ पाए. लोग मरते रहे और आज भी मर रहे हैं.

इंसेफलाइटिस की जड़ों को अगर हम ढूंढें तो पता चलता है कि इसका जन्म सबसे पहले जापान में हुआ था. शायद यही कारण है कि इसे जापानी इंसेफलाइटिस कहा जाता है.

आज से 146 वर्ष पूर्व जापान में यह बीमारी सबसे पहले पहचान में आई. 53 वर्षों के बाद इस बीमारी ने अपना विकराल रूप दिखाया और 1924 में जापान में 6000 केस पंजीकृत हुए. यहां से इसका फैलाव एशिया के देशों में हुआ.

1960 के दशक में चलाए गए टीकाकरण अभियान के कारण इस पर कुछ हद तक नियंत्रण पाया गया. जापान के अलावा, कोरिया, ताइवान, सिंगापुर जैसे देशों में इसने अपने पैर पसारे फिर जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है 1952 में इसका प्रवेश भारत में हुआ.

गोरखपुर है जांच का फोकस

आश्चर्य का विषय यह है कि भारत सरकार इंसेफेलाइटिस के सही कारणों को जानने में अभी तक नाकाम रही है. अभी जांच का फोकस गोरखपुर बना हुआ है. जबकि इस बीमारी का फैलाव देश के लगभग प्रत्येक कोने में है. दक्षिण भारत में यह बीमारी पहले आई लेकिन वहां पर वह उतनी सफल नहीं हुई जितना उत्तर भारत में दिख रही है.

ऐसे में शोध का बिंदु दक्षिण भारत भी होना चाहिए. इतना ही नहीं जांच का बिंदु एशिया के तमाम देश भी होने चाहिए जहां पर यह बीमारी अपना पांव पसार चुकी है. शायद तब जाकर हम इस बीमारी के कारणों की तह में जा पाएंगे एवं इलाज ढूंढ पाने के नजदीक पहुंचेंगे.

अभी तो ऐसा लगता है कि सरकार चाहती ही नहीं है कि इस बीमारी का ईलाज संभव हो सके नहीं तो गर हमारी सरकारों ने इस बीमारी की भयावहता को पहले ही भांप कर समुचित कदम उठाया होता तो बीआरडी अस्पताल में जो चीख-पुकार सुनने को मिल रही है शायद वह नहीं मिलती.

(लेखक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं. हाल ही में स्वस्थ भारत अभियान के तहत 'स्वस्थ बालिका-स्वस्थ समाज' का संदेश देने के लिए 21000 किमी की भारत यात्रा कर लौटे हैं. )