view all

अरुण शौरी की आलोचना में तर्क कम खीझ ज्यादा है

मंगलवार को एनडीटीवी पर शौरी के इंटरव्यू के दौरान घृणा का जो रूप सामने आया वो अचंभित करने वाला था

Sreemoy Talukdar

भावना में बहकर अरुण शौरी को नरेंद्र मोदी के खिलाफ आग उगलते देखना निराश करने वाला है. बेशुमार प्रतिभा वाला ये बुद्धिजीवी इन दिनों इतनी कड़वाहट से भरा हुआ है कि वो अपनी निष्पक्षता के बीच में बार-बार नापसंदगी को आने देता है. एक समय शौरी को मोदी में कोई खोट नजर नहीं आती थी. अब उन्हें प्रधानमंत्री की छाया में भी साजिश की बू आती है.

मंगलवार को एनडीटीवी पर शौरी के इंटरव्यू के दौरान घृणा का जो रूप सामने आया वो अचंभित करने वाला था. इंटरव्यू में उन्होंने अर्थव्यवस्था को लेकर एनडीए सरकार के तौर-तरीकों की आलोचना की. मोदी के लिए उनकी घृणा छुरा घोंपने जैसी तीव्र थी. यहां तक कि इंटरव्यू लेने वाला भी, जो मोदी के आलोचकों के रूप में पहचाना जाता है, शौरी की आक्रामकता को लेकर हैरान था. पूरे कार्यक्रम के दौरान छिपा हुआ क्रोध और परिहास सामने आता रहा जहां विश्व बैंक के पूर्व अर्थशास्त्री ने बार-बार प्रधानमंत्री का मजाक उड़ाया और दावा किया कि सरकार की नीतियां मोदी की बौद्धिक कमजोरी को दर्शाती है.


शौरी की ओर से आलोचनाओं में कुछ भी गलत नहीं है. इस सरकार की ऐसी आलोचना और होनी चाहिए. लेकिन विपक्ष में अलग-अलग राजनीतिक ताकतों का मिश्रण है और मोदी के प्रति नफरत के लिए एकजुट हुआ है, वो पहले से ही बदनाम है. उनकी आलोचनाएं लोगों में शायद ही भरोसा पैदा करती हैं. कांग्रेस, जो वंशवाद के अंदर बचे रहने के लिए जद्दोजहद कर रही है, राजनीतिक रूप से इतनी कमजोर हो चुकी है कि उसकी आवाज को अब गंभीरता से नहीं लिया जाता है.

तीन साल से कुछ अधिक वक्त में बीजेपी ने राष्ट्रीय क्षितिज पर नाटकीय तरीके से अपनी मौजूदगी बढ़ाई है. अब वो उन राज्यों में भी है जहां पहले उसकी मौजूदगी न के बराबर थी. अब राज्यसभा में भी बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है. 2019 के लोकसभा चुनाव पर बात करना अभी मुफीद नहीं है क्योंकि राजनीति में एक सप्ताह का समय भी अधिक होता है, लेकिन इस वक्त बीजेपी के प्रभाव ने एनडीए को नीति निर्धारण में खुली छूट दे दी है. हालांकि कोई भी एनडीए पर नीतियों में शिथिलता का आरोप नहीं लगा सकता है, लेकिन उसने कार्रवाई करने में गलती की है, उसने कई ऐसे विध्वंसकारी कदम उठाए हैं, जिसने अर्थव्यवस्था को पीछे धकेल दिया है.

यहां रचनात्मक आलोचनाओं के लिए काफी स्थान है. जैसा कि उदयन मुखर्जी ने इंडियन एक्सपेस में लिखा है, 'कई क्रांतिकारी कदम उठाए गए हैं, शायद अच्छी नीयत से-अगर उन्हें साहसिक होने के पैमाने पर नापा जाए तो ये प्रभावशाली हैं. दिक्कत ये है कि इनमें से कई नीतियों को बनाते समय बड़ी कमियां रह गई हैं, इन पर पूर्ण रूप से विचार-विमर्श नहीं हुआ और गलत तरीके से लागू किया गया. उसमें, सरकार पर निश्चित रूप से प्रचंड खुश होने का आरोप लगाया जा सकता है. हमारा देश गरीबों का है, संभलकर चलने की जरूरत है. नहीं तो आप लोगों के जीवन, आजीविका और उम्मीदों से खिलवाड़ का जोखिम ले रहे हैं.'

आलोचनाओं में भी मार्गदर्शक बन सकते हैं शौरी  

शौरी वाजपेयी के कैबिनेट में काबिल लोगों में से एक थे. वाजपेयी के साथ उन पर दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों को लागू करने की जिम्मेदारी थी. अपनी बौद्धिकता और अनुभव के साथ, शौरी आलोचनाओं में भी एक मार्गदर्शक हो सकते थे. इसलिए उन्हें शुद्ध निजी हमलों में शामिल होते देखना दोहरा पीड़ादायक है, और वास्तव में ये मोदी को कम करके आंकना है.

किसी बहस में पराजित होने का सबसे आसान तरीका यह है कि विचार की बजाय व्यक्ति पर हमला किया जाए. इसमें बौद्धिक आलस्य की बू आती है. मोदी के खिलाफ अपने क्रोध में, शौरी को शायद उनके आरोपों में तर्कसंगत असंगति का एहसास नहीं हुआ.

उन्होंने नोटबंदी को 'मनी-लॉन्ड्रिंग की अब तक की सबसे बड़ी स्कीम बताया, जिसे सरकार ने बनाया और पूरी तरह लागू किया.' इसका एक परोक्ष अभिप्राय होगा. यह मोदी सरकार के सर्वोच्च स्तर पर भ्रष्टाचार का संकेत देता है. इसका मतलब प्रधानमंत्री ने (शौरी की दलीलों के मुताबिक) भ्रष्टाचारियों को काले धन को सफेद करने का एक मौका देने की 'अनुमति' दी, यानी वो भ्रष्टाचारियों से मिले हुए थे. यह मनमोहन सिंह के इन आरोपों से मेल खाता है कि नोटबंदी 'संगठित लूट और कानूनी डाका है.' यह एक तरह से मोदी की बड़ी चालाकी का गुणगान है कि उन्होंने सफलतापूर्वक एक भ्रष्ट योजना को नैतिकता का जामा पहनाया और चुनाव जीतने में सफल रहे.

यह, हालांकि, शौरी की अगली टिप्पणी के खिलाफ था कि नोटबंदी 'आत्मघाती कदम' था. क्या ये सभी साजिश वास्तव में एक आत्मघाती योजना थी? कोई भी एक ही वक्त में चालाक लोमड़ी और मूर्ख नहीं हो सकता है!

ये बातें हमें एक बड़े मुद्दे की ओर ले जाती हैं. नीति निर्माण में खामियों की तरफ इशारा करने की बजाए मोदी की ईमानदारी पर हमला कर और उनके बौद्धिक कौशल पर सवाल खड़े कर, लगता है शौरी ने मोदी को लार्जर-दैन-लाइफ फिगर बना दिया है. शौरी जितने बुद्धिमान हैं, वो आर्थिक सुस्ती से निकलने का रास्ता बता सकते थे. इसकी जगह, वह प्रधानमंत्री पर एक अनपेक्षित महानता थोपने में कामयाब रहे, जिसे मोदी खुशी से स्वीकार करेंगे, क्योंकि यह ठीक उसी तरह की अंधी, भद्दी आलोचना है जिससे मोदी ने अपने राजनीतिक जीवन का निर्माण किया है.

या तो शौरी ने मोदी के आलोचकों की दुर्दशा से सबक नहीं लिया है, जिन्होंने निजी हमले किए जो चुनाव से पहले ही उलटे पड़ गए. हमें अरविंद केजरीवाल से आगे देखने की जरूरत नहीं है. या फिर शौरी मोदी के छिपे हुए प्रशंसक हो सकते हैं.

शौरी अब मोदी में उन्हीं जगहों पर कमियां देख रहे हैं, जहां पहले वो उन्हें मजबूत मानते थे. उदाहरण के लिए, द इकोनॉमिक टाइम्स को 2014 में दिए इंटरव्यू में, तब वो मोदी कैबिनेट में शामिल होने के उम्मीदवार थे, उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री की प्रशासनिक क्षमताओं की तारीफ की थी, अब वो इसी चीज के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं.

मोदी के काम करने के तरीके से जुड़े अखबार के सवाल पर शौरी ने कहा था: 'हर कोई चर्चा करता है और एक विचार पर पहुंचता है और फिर फैसला होता है. फाइल जाती है और हर कोई एक पखवाड़े के भीतर जवाब देता है. मोदी के काम करने का यही तरीका है. वो फैसले तेजी से हो सकेंगे. तेजी से फैसला लेना. वो फॉलो-अप पर भी ध्यान देते हैं. काम के लिए समयसीमा होती है. दूसरी चीज वो ये कर सकते हैं कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भारत के शासन में साझेदार बना सकते हैं.'

लेकिन अब शौरी मोदी को 'सत्तावादी' मानते हैं, जो कि पहले दक्ष थे. बीजेपी पर मोदी के प्रभाव पर उन्होंने तब कहा था, 'पार्टी प्रबंधकीय रूप से पहले से ज्यादा दक्ष हो जाएगी. यह एक मशीन के रूप में काम करेगी. मोदी की सरकार और उनके काम करने के तरीके से बीजेपी की विचारधारा आधुनिक हो जाएगी. हमेशा की तरह मेरी सलाह होगी कि राम मंदिर और समान नागरिक संहिता जैसे विवादित मुद्दों को छोड़ दिया जाए. सुशासन देने के लिए मोदी को अकेला छोड़ दिया जाए. बाकी सब चीजों का ध्यान रखा जाएगा.'

एक साल बाद, यह एहसास होने पर कि शौरी के लिए मोदी की कोई योजना नहीं है, उनको 'मार्गदर्शक मंडल' में जगह देने के अलावा, प्रधानमंत्री के खिलाफ उनका आक्रमण तीखा होता गया. शौरी ने 2015 में एक किताब के लोकार्पण के दौरान कहा था कि मोदी का पीएमओ 'अब तक का सबसे कमजोर' है.

मंगलवार को, उन्होंने मोदी को तानाशाह बताया, जो कि ठीक वैसा नहीं हो सकता जैसा कि एक 'कमजोर पीएमओ' को काम करना चाहिए. उन्होंने अमित शाह को 'नामचीन अर्थशास्त्री' कहकर उनका मजाक उड़ाया. मोदी पर इल्हाम के जरिए शासन करने का आरोप लगाया और एनडीए सरकार को ढाई लोगों का बताया.

खास तौर पर शौरी का अतार्किकता की हद तक पहुंच जाना इस तथ्य से पता चलता है कि उन्होंने आंकड़ों के साथ बात करने की जरूरत तक नहीं समझी. उन्होंने दावा किया कि भारतीय अर्थव्यवस्था बर्बाद हो चुकी है और ये महज 3.7 फीसदी की दर से बढ़ रही है. जबकि विश्व बैंक ने पिछले ही महीने शानदार वृद्धि दर के लिए भारत की तारीफ की. विश्व बैंक एक ऐसी संस्था है, जिसे शायद शौरी भी मान्यता दें.

20 सितंबर को ब्लूमबर्ग ग्लोबल बिजनेस फोरम में विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम ने भारत में तेज विकास की बात मानी थी और इस साल मजबूत वृद्धि दर की संभावना जताई थी.

शौरी की स्थिति साल 2000 में रामचंद्र गुहा के एक लेख की याद दिलाती है. गुहा ने द हिंदू में अपने लेख में लिखा था, 'अंध देशभक्त और अंध देशविरोधी लगभग एक ही तरह की पद्धति का इस्तेमाल करते हैं. दोनों ही पूरी तरह एक ही दायरे में सोचते हैं. दोनों सौ शब्दों का उपयोग करते हैं जबकि काम 10 में चल जाएगा. दोनों नैतिकता का प्रमाणपत्र बांटने को अधिकार समझते हैं. जो शौरी की आलोचना करते हैं उन्हें देशविरोधी बताया जाता है, जो रॉय के खिलाफ बातें करते हैं उन्हें राज्य का एजेंट बताया जाता है. दोनों ही मामलों में, भावनाओं और गुस्से की अधिकता तथ्यों को डुबो देती है.'

शौरी को इस तरह का बताना किसी के लिए भी दुखद है लेकिन मोदी के खिलाफ असंतुलित गुस्से में ये महसूस नहीं किया कि जिन सशक्त और संभ्रांत गुट के खिलाफ उन्होंने जिंदगी भर लड़ाई लड़ी वो अपने प्रोपेगेंडा को बढ़ाने के लिए उनका ही इस्तेमाल कर रहे हैं. ये गुट, जिसने अब शौरी को अपना लिया है, वो उसी वक्त उनका साथ छोड़ देंगे जब शौरी की कटुता उनके किसी काम की नहीं रह जाएगी. उनके शब्द इस 'उदार' इको चैंबर के बाहर शायद सुनाई न दें- और शायद राजनीतिक रूप से मोदी को फायदा पहुंचाए-लेकिन ये निश्चित रूप से एक बड़े आदमी की गरिमा को खत्म कर देंगे.