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अनुच्छेद 35 ए: कश्मीर में हालात सामान्य बनाने का इकलौता तरीका है विषाक्त कानून का खात्मा

जवाहर लाल नेहरू एक महान व्यक्ति थे. लेकिन वह एक अल्प-दृष्टि राजनेता भी थे. उनके निधन को 50 साल से ज्यादा बीत जाने के बाद, देश अभी भी अपने पहले प्रधानमंत्री की कश्मीर पर समझदारी की कमी की भारी कीमत चुका रहा है.

Sreemoy Talukdar

जवाहर लाल नेहरू एक महान व्यक्ति थे. लेकिन वह एक अल्प-दृष्टि राजनेता भी थे. उनके निधन को 50 साल से ज्यादा बीत जाने के बाद, देश अभी भी अपने पहले प्रधानमंत्री की कश्मीर पर समझदारी की कमी की भारी कीमत चुका रहा है. नेताओं का सिर्फ नेक होना पर्याप्त नहीं है. उन्हें दूरदर्शी भी होना चाहिए. अफसोस की बात है, नेहरू नहीं थे.

निश्चित रूप से उन्हें शेख अब्दुल्ला ने एक दुश्वार मसौदा सौंपा था, जो जम्मू-कश्मीर का नेता बनने की कोशिश करने के बजाय ‘आजाद’ घाटी पर शासन करने की अपनी महत्वाकांक्षा को कभी छोड़ नहीं सके ( पढ़ें ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में लेखक संदीप बामजई का लेख). लेकिन यह एक प्रधानमंत्री के काम का हिस्सा है कि वह समग्र तस्वीर को देख पाने की दृष्टि खोए बिना जटिलताओं से निपटे.


अगर आज कश्मीर भारत की राजनीति में रिसता नासूर बन गया है, तो इसके जिम्मेदार नेहरू भी हैं, जो या तो इस मुद्दे की जटिलता को समझने में नाकाम रहे थे या ‘विभाजन के अपराधबोध’ से ग्रस्त थे और भारत की असुरक्षा की चिंता के बजाय कठोर निर्णय लेने पर दुनिया के सामने भारत की (और अपनी) छवि को लेकर ज्यादा चिंतित थे.

तस्वीर- विकीमीडिया

'उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल को बातचीत से बाहर रखा और बिना पोर्टफोलियो के मंत्री गोपालस्वामी अयंगर को जिम्मा सौंपा, जो शेख अब्दुल्ला के सामने कहीं नहीं टिकते थे. कश्मीर पर नेहरू द्वारा पटेल (शेख अब्दुल्ला के एक बड़े आलोचक) की उपेक्षा का जिक्र अन्य लोगों के साथ ही मेजर जनरल शेरू थपलियाल (सेवानिवृत्त) ने भी किया है.

इंडियन डिफेंस रिव्यू में लिखे लेख ‘अनुच्छेद 370: द अनटोल्ड स्टोरी’ में मेजर जनरल थपलियाल, पीएचडी, पटेल के निजी सचिव के रूप में काम कर चुके आईएएस वी. शंकर, द्वारा रखे गए रिकॉर्ड्स का संदर्भ देते हुए लिखते हैं, 'इन रिकॉर्ड्स से यह साफ है कि नेहरू ने पटेल को सूचना तक दिए बिना शेख अब्दुल्ला के साथ अनुच्छेद 370 के मसौदे को अंतिम रूप दिया. इसके बाद संविधान सभा की चर्चा में इसका मसौदा पास कराने का जिम्मा अयंगर के गले पड़ा. प्रस्ताव की चिंदियां उड़ा दी गई थीं…'

नेहरू ने, जो उस समय विदेश में थे, विडंबनापूर्ण ढंग से पटेल से, जिनको उन्होंने ड्राफ्टिंग से बाहर रखा था, 'अनुच्छेद 370 को पास कराने के लिए' अनुरोध किया था. यह पटेल की चारित्रिक और नैतिक मजबूती थी कि मसौदे के बारे में अपनी अज्ञानता के बावजूद, 'उन्होंने संविधान सभा के सदस्यों और कांग्रेस पार्टी कार्यकारिणी के सदस्यों को राजी कर लिया. लेकिन उन्होंने वी. शंकर से कहा था: 'जवाहरलाल रोएगा' (जवाहरलाल को अपने फैसले पर अफसोस होगा).

हिंडोलसेन गुप्ता, जिन्होंने सरदार पटेल पर हाल में ‘द मैन हू सेव्ड इंडिया’ समेत आठ किताबें लिखी हैं, लिखते हैं कि पटेल ने पार्टी को 'सहमत' करने का इंतजाम किया था, लेकिन अब्दुल्ला के बारे में उनका संदेह बना रहा जिन्होंने इस पर विचार करने के भारतीय संसद के अधिकार पर भी सवाल उठाया था.' उन्होंने अयंगर से कहा, ‘जब भी शेख साहिब पलटना चाहते हैं, वह हमेशा हमारे सामने अपने लोगों के प्रति अपने कर्तव्य का मुद्दा उठा देते हैं. बेशक, उनका भारत या भारत सरकार के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है, या यहां तक कि निजी तौर पर आप और प्रधानमंत्री (नेहरू) के लिए भी उनका कर्तव्य नहीं है, जिन्होंने उनके लिए गुंजाइश बनाने को सब कुछ किया.

भीम राव अंबेडकर, जिन्होंने इसका मसौदा तैयार करने से इनकार कर दिया था, शेख अब्दुल्ला को कहे उनके शब्द आज भी प्रासंगिक हैं: 'आप चाहते हैं कि भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, उसे आपके क्षेत्र में सड़कों का निर्माण करना चाहिए, उसे आपको अनाज की आपूर्ति करनी चाहिए, और कश्मीर को भारत के बराबर दर्जा दिया जाना चाहिए. लेकिन भारत सरकार के पास केवल सीमित शक्तियां होनी चाहिए और भारतीय लोगों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं होना चाहिए. इस प्रस्ताव को मंजूरी देना भारत के हितों के प्रति एक विश्वासघात होगा, और भारत के कानून मंत्री के तौर मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा.'

पटेल की मौत के साथ ही, शेख अब्दुल्ला का काम आसान हो गया. विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन (वीआईएफ) के प्रतिष्ठित फेलो मक्खन लाल अपने लेख ‘कश्मीर, नेहरू’ज आयडियलिज्म एंड आर्टिकल 370’ में लिखते हैं, 'सरदार पटेल की मृत्यु ने, पंडित नेहरू के कश्मीर मुद्दे से निपटने की सोच पर जो कुछ भी रुकावट थी, उसे खत्म कर दिया. अब पार्टी या कैबिनेट में कोई मित्र या सहयोगी नहीं था जो नेहरू की स्वेच्छाचारिता के खिलाफ सलाह दे सकता था. अनुच्छेद 370 के रूप में, कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया और जो व्यवस्था नेहरू-अब्दुल्ला संधि के साथ, सिर्फ अस्थायी और सिर्फ अल्पकालिक थी, स्थायी हो गई. एक तरह से, अब्दुल्ला को भारत के भीतर एक लगभग स्वतंत्र राज्य दे दिया गया था.'

इस संदर्भ में हमें अनुच्छेद 35ए (अनुच्छेद 370 से उत्पन्न) के समापन पर बहस केंद्रित करनी होगी, जिसे लंबे समय से सार्वजनिक चर्चा में शामिल किए जाने से वंचित रखा गया है. एक गैरसरकारी संगठन वी द सिटिजन द्वारा अनुच्छेद 35ए और अनुच्छेद 370 की वैधता को चुनौती देने वाली जनहित याचिका दायर किए जाने के बाद यह बहस फिर से ताजा हो गई है.

याचिकाकर्ता अनुच्छेदों की संवैधानिकता को चुनौती देते हैं और ध्यान दिलाते हैं कि भारतीय संविधान में इसका मसौदा तैयार करने में चार कश्मीरी प्रतिनिधियों की भागीदारी के बावजूद, किसी भी विशेष दर्जे का कोई जिक्र नहीं है. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि अनुच्छेद 370 एक 'अस्थायी प्रावधान' था जिसका स्थायी रूप से भेदभावपूर्ण संशोधन (अनुच्छेद 35ए) लाने के लिए सहारा लिया गया था, जो 'भारत की एकता की मूल भावना' के खिलाफ था. इसने 'भारतीय नागरिकों के एक वर्ग के भीतर एक वर्ग' बनाया और संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत दिए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

याचिकाकर्ताओं ने राष्ट्रपति की शक्तियों की सीमा और दायरे को भी चुनौती दी है, जिसकी आड़ लेकर नेहरू पीछे के दरवाजे से विवादित कानून लाने में कामयाब हुए थे. यहां बता दें कि अनुच्छेद 370 चर्चा, वार्ता और नेताओं की हेकड़ी और हालात (बाहरी और आंतरिक दोनों) द्वारा आकार दिया गया था, जबकि प्रगतिविरोधी, आदिम, अंधभक्ति और लैंगिक भेदभाव वाले अनुच्छेद 35ए को नेहरू ने संसद को दरकिनार कर अवैधानिक तरीके से शामिल किया गया था, जाहिर है उन्हें डर था कि यह सांसदों के सामने टिक नहीं पाएगा.

1954 में राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से प्रावधान बनाते समय राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद नेहरू कैबिनेट की तरफ से काम कर रहे थे. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के उल्लंघन में बने कानून के इस महत्वपूर्ण हिस्से पर संसद में कभी चर्चा नहीं की गई, जो भारतीय सरकार के अपने नागरिकों के साथ संबंधों को विकृत करता है और अपनी संप्रभुता को भी चुनौती देता है.

जैसा कि राघव पांडे फ़र्स्टपोस्ट में लिखते हैं, 'अनुच्छेद 368 के तहत प्रक्रिया संसद को शामिल करती है, और कुछ मामलों में, राज्य विधायिका भी संविधान में कुछ संशोधन करने के लिए शामिल हैं...संसद इस प्रक्रिया में पूरी तरह से अलग-थलग हो गई थी. हमारे संविधान की अवधारणा के अनुसार, राष्ट्रपति कार्यपालिका के प्रमुख हैं और अनुच्छेद 123 को छोड़कर उनकी बहुत कम विधायी भूमिका है. इसलिए, 1954 का राष्ट्रपति आदेश भी संविधान के अनुच्छेद 368 का उल्लंघन है.'

अनुच्छेद 370 द्वारा प्रदान की गई व्यवस्था पर अनुच्छेद 35ए के तहत ‘विशेष दर्जा’ सृजित किया गया है. कृष्णदास राजगोपाल द हिंदू में लिखते हैं, 'अनुच्छेद 35ए ने जम्मू-कश्मीर राज्य विधानमंडल को राज्य के ‘स्थायी निवासियों’ पर फैसला करने और उनको राज्य की सरकारी नौकरियों में अधिकार और विशेषाधिकार, राज्य के भीतर संपत्ति का अधिग्रहण, छात्रवृत्ति और अन्य सार्वजनिक सहायता और कल्याण कार्यक्रम का फायदा देने का छुट्टा अधिकार दे दिया.' सिर्फ इतना ही नहीं, यह प्रावधान राज्य विधायिका द्वारा बनाए गए कानून को 'भारतीय संविधान या देश के किसी अन्य कानून का उल्लंघन' करने के आधार पर कानूनी चुनौतियों से प्रतिरक्षा भी प्रदान करता है.

नेहरू की मृत्यु के 54 साल बाद हमारे समय की राजनीतिक प्रक्रिया पर यह एक दुखद टिप्पणी है, हम अब भी अपनी सबसे बड़ी गलतियों में से एक पर बहस तक शुरू करने में असमर्थ हैं. बल्कि हम अपने सिर को रेत में दफन कर लेंगे और बीमारी को ठीक करने के बजाय आंतरिक रक्तस्राव और धीमी मौत का चयन करेंगे. किसी अन्य देश में शायद ही ऐसा भेदभाव करने वाला असमानता से भरा कानून बर्दाश्त किया जाएगा, जो भारत से कश्मीर में अलगाव की भावना पैदा करता है, इसके सामान्यीकरण को रोकता है और देश के भीतर विभाजन बनाता है.

आधुनिक राष्ट्रों में विद्रोह आंदोलन अनजाना नहीं है. कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन की उत्पत्ति द्वि-राष्ट्र सिद्धांत से हुई है जो पाकिस्तान के निर्माण का कारण है और आज भी पाकिस्तान की रक्षा और विदेश नीति का आधार है. यह एक अवधारणा पर आधारित है कि धर्म राष्ट्रीयता और राजनीतिक संबद्धता निर्धारित करता है.

राष्ट्र जो अपनी संप्रभुता के लिए इस किस्म की जातीय-धार्मिक चुनौतियों का सामना करते हैं, उन्हें सत्ता में (‘स्वायत्तता’ के माध्यम से) कुछ हिस्सेदारी देते हैं, लेकिन धीरे-धीरे व्यवस्थित तरीके से, जनसांख्यिकीय और मनोवैज्ञानिक परिवर्तन लाने की भी कोशिश करते हैं. ये राजनीति के नियमों का हिस्सा है, क्योंकि कोई भी राष्ट्र अपनी संप्रभुता को चुनौती बर्दाश्त नहीं करेगा, खासकर जब इसकी जमीन पर आतंकवादी आंदोलन को दुश्मन राज्य द्वारा बाहर से पोषित किया जा रहा है.

इसके अलावा, एक बहुजातीय, विविधतापूर्ण राष्ट्र केवल जातीयताओं के एक सामंजस्यपूर्ण फैलाव से उस सोच को फैलने से रोक सकता है, जहां ‘हम बनाम वे’ आकार ले सकता है और परिणामस्वरूप जटिलताएं पैदा होती हैं. ऐसा हो पाया तो व्यापार और निवेश में भी वृद्धि होगी, जिससे रोजगार के अवसरों और समान व स्थिर विकास की राह हमवार होती है.

उदाहरण के लिए, पाकिस्तान ने बलूचिस्तान के अलगाववादी आंदोलन को विफल करने के लिए यहां विभिन्न हिस्सों में पिछले तीन दशकों में '40 लाख लोगों' को बसा दिया है.

चीन ने भी, जो जिंजियांग प्रांत में समस्या का सामना कर रहा है, जहां के उइगर अल्पसंख्यक हान चीनियों की तुलना में धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से मध्य एशिया के तुर्की मुस्लिमों से ज्यादा करीब हैं, इसी तरह की रणनीति को लागू करने की कोशिश की है.

समस्या यह है कि घाटी की पार्टियां और स्वघोषित कश्मीरी आवाजें पूरे जोर से दशकों से डर का ऐसा माहौल बनाने में जुटी हुई हैं कि विषाक्त कानूनों को रद्द करने पर बहस शुरू करना भी असंभव हो गया है.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 27 अगस्त तक याचिकाओं की सुनवाई स्थगित करने से पहले, कश्मीर लॉकडाउन में चला गया था, क्योंकि दो प्रमुख राजनीतिक दल निरस्तीकरण के खिलाफ चेतावनी देना चाहते थे और विडंबना है कि ऐसा करते हुए इसके नेताओं ने खुद को अलगाववादियों के पक्ष में ही खड़ा पाया.

मेजर जनरल (रिटायर्ड) हर्ष काकर डेली ओ में लिखते हैं, 'हकीकत यह है कि घाटी आधारित पार्टियां अपना सपोर्ट बेस खोने से डरती हैं, क्योंकि सालों से उन्होंने जनसांख्यिकीय परिवर्तन के विचार को यहां की आबादी के दिमाग में भरा है, इसलिए वे पीछे नहीं लौट सकते, हालांकि साक्ष्य इसके विपरीत इशारा करते हैं. इसके अलावा, एक छिपा हुआ डर है कि बीजेपी जल्द ही घाटी में एक ताकत बन जाएगी, जिससे उनकी ताकत खत्म हो जाएगी.'

हकीकत को स्वीकार किया जाना चाहिए. अनुच्छेदों को रद्द करने के खिलाफ पैदा किया डर इतना निरंतर और गहरा है कि भारी प्रारंभिक प्रतिरोध होगा. यही वह बिंदु है, जब नेतृत्व को साहस और धैर्य दिखाना होगा. भारत सरकार को 'नतीजे और बर्बादी' का डर दिखाकर हमेशा के लिए बंधक नहीं रखा जा सकता है. इस विमर्श को बदलने और धीरे-धीरे तर्कसंगत चर्चा के लिए अनुकूल माहौल बनाने का हौसला दिखाना होगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)