अर्णब गोस्वामी का ब्रांड तेज ढलान से फिसलकर चकनाचूर हो जाए तो यह त्रासदी कहलाएगा. फिलहाल इस ब्रांड पर अभी खतरा मंडरा रहा है और यह खतरा अपने जैसों से है, यानी उन क्लोन (प्रतिरूप) से जिन्हें ब्रांड अर्णब ने जन्म दिया है.
अर्णब की रिपब्लिक की चिल्लाहट अब आनंद नरसिम्हन और नविका कुमार जैसों के कानफोड़ू शोर के आगे बहुत बौनी नजर आती है. टीवी पर नरसिम्हन और नविका कुमार जैसों की अदायगी ने नफासत और शराफत को मिट्टी में मिला दिया है, इनकी टेलीविजनी अदायगी में नफासत और शराफत अपना सर धुनते नजर आते हैं.
रवीश कुमार वनीला जैसे मीठे
इनकी तुलना में एनडीटीवी पर रवीश कुमार और उनके संगी साथी कुछ उतने ठहरे और मीठे जान पड़ते हैं जैसे कि कोई वनीला आईसक्रीम. दुर्भाग्य कहिए कि एक समय में अलग-अलग मुंह से बराबरी की चीख-चिल्लाहट से भरे शोरगुल को सुनने के आदी हो चले दर्शकों को यह स्वाद अब जंच नहीं रहा. अगर किसी चीज में अब ज्यादा नफासत हो तो उसे उबाऊ मान लिया जाता है.
लोगों में शोर-शराबे को लेकर मंजूरी बढ़ रही है. अब लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि टेलिविजन पर चीख-चिल्लाहट का कोई मुकाबला चल रहा है या फिर किचड़-उछाल प्रतियोगिता, वे बस यह देखना चाहते हैं कि अपनी आक्रामकता में फ्रीस्टाईल कुश्ती के अमेरिकी मुकाबले को मात करते समाचारों के टीवी कार्यक्रम में लोग एक-दूसरे का अपमान कर रहे हैं या नहीं.
हर मिनट मानहानि का मुकदमा दर्ज हो
मिसाल के लिए नविका कुमार अपने कार्यक्रम में शामिल मेहमान को ‘आप अपनी जबान बंद रखिए’ या इससे भी ज्यादा अपमान भरे शब्द कहने से नहीं हिचकिचातीं. नरसिम्हन साहब को अपने कार्यक्रम में बातों की आग सुलगने से पहले निन्दा और उपहास का परिवेश पैदा करने में तनिक भी हिचक नहीं होती. चेहरे और शरीर के हाव-भाव से सामने वाले के प्रति ऐसी दुश्मनी और तिरस्कार झांकता जान पड़ता है कि हर मिनट मानहानि का मुकदमा दर्ज हो. खैर कहिए कि यह जबानी कीचड़-उछाल मुकाबला स्थायी दाग-धब्बे नहीं छोड़ता और हर कार्यक्रम के बाद एक-दूसरे पर आरोप लगाने वाली शैली में होने वाली इस बहस की आंच एकदम से ठंडी हो जाती है. कहा जाता है कि आप किस तरह के मुल्क में रहते हैं इसका पता विज्ञापनों से चलता है.
अपने आप से जरूर पूछें ये सवाल
अब टेलीविजन पर चलने वाली बहसों ने हार्ड न्यूज( खालिस समाचार) का रूप ले लिया है. इससे लोगों के मन-मिजाज का साफ-साफ पता चलता है क्योंकि दोनों के बीच कोई रिश्ता तभी जुड़ेगा जब उनके बीच कोई समानता हो. ऐसे में हमें यह सवाल अपने आप से जरूर पूछना चाहिए कि क्या टीवी पर चलने वाली यह रोजाना की बकझक हमारे ही मन-मानस की झांकी दिखाती है?
यहां तक कि जो लोग टेलीविजन के इन शूर-वीरों की यह कहकर बेधड़क बड़ाई करते हैं कि भई वाह, इन लोगों तो कड़क सवाल पूछकर वीआईपीज् की बोलती बंद कर दी, वे भी अपने से ऐसे सवाल पूछने और उसका जवाब जानने का धीरज नहीं दिखाते.
अगर लोग अपने से सवाल नहीं पूछते और उसका जवाब जानने का धीरज नहीं दिखाते तो इसकी बड़ी वजह यह है कि इस सवाल का कोई उत्तर है ही नहीं. कोई भी रात ऐसी नहीं गुजरती जब टीवी पर डिबेट(बहस) शब्द एक मजाक में तब्दील होता ना जान पड़े.
एंकरों का बददिमागी और अड़ियलपन का मुजाहिरा
मान लीजिए कि जबानी कुश्ती की शक्ल में होनी वाली ऐसी टेलीविजनी बहस को देखने में आपको कोई आनंद नहीं आता, आप इसे सिर्फ उत्सुकतावश देखते हैं. ऐसे में आपको एक बिल्कुल ही अलग बात नजर आएगी.
ऐसे कार्यक्रमों के एंकर जिस बददिमागी और अड़ियलपन का मुजाहिरा करते हैं, उसे देखते हुए आपके मन में सवाल आएगा कि आखिर वह कौन सा सामाजिक कारण है जो टेलीविजन के एक कसे हुए फार्मेट के भीतर हाथ-पांव भांजने के लिए प्रतिभागी इसकी तरफ खिंचे चले आते हैं. क्या उन्हें धन कमाने की लालसा टेलीविजन के दड़बे के भीतर खींच लाती है ? क्या उन्हें शोहरत कमाना होता है ? अगर शोहरत कमाना होता हो तो फिर टीवी के ऐसे कार्यक्रमों में भागीदारी का कोई तुक नहीं क्योंकि यहां तो आप लगातार बेइज्जत किए जाते हैं.
दोष टेलीविजन के ऐसे कार्यक्रमों में भागीदारी करने वालों की लालच का है और यह दोष तब और भी बढ़ा हुआ नजर आता है जब आप इस तथ्य की ओर ध्यान देते हैं कि टेलीविजनी गणित के एतबार से भारत में सिर्फ 40 लोग ऐसे हैं जिन्हें ‘ओपिनियन मेकर’(रोजमर्रा की घटनाओं पर लोगों की राय बनाने वाला) कहा जा सकता है. एक बात यह भी है कि ऐसे कार्यक्रमों के भागीदार एक टेलीविजन चैनल से दूसरे टेलीविजन चैनल तक किसी मेंढ़क के समान छलांग लगाते हैं और ऐसे में टीवी शो की अश्लीलता और भी ज्यादा अश्लील जान पड़ती है.
पाल रखे हैं एक दर्जन पाकिस्तानी भी
टेलीविजनी हंगामे को और ज्यादा जोरदार बनाने के लिए टेलीविजन चैनलों ने अपने अजायबघर में एक दर्जन पाकिस्तानी भी पाल रखे हैं जो समान रुप से लालची और बेवकूफ हैं. हिन्दुस्तानी टेलीविजन चैनल इन्हें टीवी के पर्दे पर जहर उगलने के लिए बुलाते हैं. ये पाकिस्तानी मेहमान जानते हैं कि एंकर उनपर अपना डंक मारने के लिए बुला रहा है और ऐसा करके उनके मुंह से जहर उगलवाना चाह रहा है, तो भी वे एंकर के कार्यक्रम में अपना चेहरा दिखाने चले आते हैं. क्या कहा जाये ऐसे मेहमानों को- ये कुंदजेहन हैं, दूसरे को चोट पहुंचाने में उन्हें मजा आता है, बेहयाई इनके रग-रग में है, इन ढोंगियों ने सच्चाई नाम की चिड़िया कभी सपने तक में नहीं देखी.
मजा देखिए कि इन सारे चैनलों को विज्ञापन हासिल होता है. इसलिए, हमें मानना होगा कि ऐसे कार्यक्रमों को देखने वाला दर्शक-वर्ग मौजूद है और वह ऐसे कार्यक्रमों के कोलाहल में मजा लेता है जिससे टेलीविजन चैनल की रेटिंग बढ़ती है.
आखिर टीवी पर होने वाली इस तूतू-मैंमैं को लोग क्यों देखना चाहते हैं ? ऊपरी तौर पर देखने से एक बात यह जान पड़ती है कि हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में एक अनबोलती निराशा का राज है और टीवी की तूतू-मैंमैं इसी निराशा का विस्तार है. जेहन में जगह बनाती इस निराशा को एक जगह चाहिए जहां वह अपना इजहार कर सके. इस निराशा को अपने इजहार के लिए टेलीविजन से ज्यादा बढ़िया और कौन सा माध्यम हासिल हो सकता है, टेलीविजन आपको शोरगुल का मौका देता है, उस पर रंग-रोगन चढ़ाता है, भड़काऊ साउंडट्रैक के साथ आपकी आवाज में गूंज पैदा करता है, एक निहायत ही अलग दुनिया में ले जाता है जहां गलतियों की सजा किसी और को मिलती है.
क्या है नाकामी की बड़ी वजह
ऐसे कार्यक्रमों की नाकामी की बड़ी वजह यह है कि सारी तूतू-मैंमैं के बाद जमीनी तौर पर कुछ कार्रवाई होती नजर नहीं आती, एंकर और कार्यक्रम के भागीदार एक दूसरे को ठेंगा दिखाने के से अंदाज में थैक्यू-थैक्यू थमाते नजर आते हैं. और, बस इतना ही होता है, कोई भी बात मन पर अपना नक्श बनाती नहीं दिखती. कोई गड़बड़ घोटाला नहीं, मान-अपमान का कोई प्रश्न नहीं, कोई अभियोग और आरोप नहीं, कहीं कोई भ्रष्टाचार नहीं ! गीली चिकनी मिट्टी की तरह सबकुछ सामने वाले के मुंहपर लगकर एकबारगी फिसल जाता है.
एक-दूसरे को दोष देने का चक्कर चलते रहता है और ठीक इसी वजह से एंकर पोली सी जमीन पर पूरी मजबूती से खड़े होकर दर्शकों को लगातार याद दिलाते नजर आते हैं कि हम ही सबसे आगे हैं, हम ही सबसे पहले हैं, हम बाकियों से बेहतर हैं और छल से भरी इस टुच्चई का खेल चलता रहता है. ऐसा कुछ मिनट के अंतराल से बार-बार होता है, भावनाओं को खूब उछाला जाता है और बोलने में व्याकरण की गड़बड़ियां इतनी ज्यादा होती हैं कि सुनने वाला मारे शर्म के अपने कान ढंक ले.
अर्णब की आवाज एक फुसफुसाहट भर है
इस धाराप्रवाह कानफोड़ू शोर के आगे अर्णब गोस्वामी की आवाज अब किसी मिमियाहट की तरह जान पड़ती है, ऐसा लगता है यह आदमी अब भी सामने वाले की बात को तवज्जो देकर चल रहा है. मैंने अपने दिल्ली-प्रवास के दौरान लगातार उनके तीन शो देखे क्योंकि मैं जहां रहता हूं वहां उनके पैरों की आहट अभी नहीं पहुंची है. मुझे लगा कि अपने प्रतिद्वन्द्वियों की तुलना में अर्णब की आवाज एक फुसफुसाहट भर है, उतने भद्देपन या कह लें भौंडेपन तक पहुंचना अर्णब के बूते की बात नहीं. वह कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन उनकी कोशिश कामयाब होती नजर नहीं आती.
अगर शोर-शराबा को कसौटी मानकर चलें तो दूसरे चैनल टेलीविजनी बहसों का मैदान बाआसानी जीतते नजर आ रहे हैं, सामने वाले को गुनाहगार ठहराने और सजा सुनाने के मामले में अब अर्णब आगे नहीं, यह मुकाम दूसरों ने हथिया लिया है.
भारत के लिए अव्वल दर्जे का टॉक शो तैयार करने का अर्णब के लिए यह सही मौका है. अर्णब अपना दायरा बढ़ा सकते हैं, अपनी हाजिरजवाबी, तीखी जबान और कुदरती प्रतिभा के दम पर इस टॉक शो को एक ऐसी घटना में बदल सकते हैं कि दर्शक का ध्यान हर रात सिर्फ उसी टॉक शो में अटका रहे. एक ऐसा टॉक शो जिसमें भौंडापन जरा भी ना हो.