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अनुपम मिश्र: गांधीवाद का समर्थ यात्री

गांधी के बताए रास्ते चले और दूसरों को भी प्रेरित किया

Amitesh

गांधी के बताए रास्ते पर चलते रहना और इस पर चलने के लिए दूसरों को भी प्रेरित करना जिनकी जिन्दगी का एकमात्र ध्येय था. जिन्होंने अपने जीवन काल में बड़ी जिम्मेदारी निभाने के बावजूद दूसरों को अपनी जिम्मेदारी और काम का तनिक एहसास न होने दिया. जिनकी सरलता और सहजता ही उनकी पूंजी थी. उसी सादगी से गांधी के अनुयायी अनुपम मिश्र इस दुनिया को अलविदा कह गए.

राजघाट के पास बापू की समाधि के करीब गांधी स्मारक निधि में ही रहने वाले अनुपम मिश्र दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान के लिए पैदल ही आ जाते थे. अगर जल्दी हुई तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल कर लेते.


अनुपम जी की रग-रग में बापू के विचार इस कदर समाहित थे कि समाजवादी लोगों के साथ जुड़े होने के बावजूद उन्होंने कभी सत्ता के समाजवाद को अपने पास फटकने भी नहीं दिया.

अनुपम जी विचारों में मजबूत थे, लेकिन, आक्रामक नहीं थे. किसी के ऊपर अपने विचार थोपने की कोशिश भी नहीं करते. सहजता से अपने काम को अंजाम देने में लगे रहते.

बचपन से था गांधी प्रतिष्ठान से लगाव

गांधी शांति प्रतिष्ठान से उनका लगाव तो बचपन से ही रहा. गांधी मार्ग के संपादक पिता श्री भवानी प्रसाद मिश्र से उनको बहुत कुछ सीखने को मिला. गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत उनको याद करते हुए कहते हैं कि अनुपम मिश्र के अंदर परिवार का संस्कार, साहित्य-कला का संस्कार तो बचपन से ही था जो उनके पिता जी के सानिध्य में मिला.

कुमार प्रशांत

समाजवादी पृष्ठभूमि के अनुपम मिश्र ने बाद में गांधी के विचारों को अपनाया फिर गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े. आगे चलकर ‘प्रजानीति’ में एक पत्रकार के रूप में अपने काम की शुरुआत भी की.

1974 से 1977 के दौरान संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान उन्होंने जेपी के साथ कई दौरे भी किए. कुमार प्रशांत उस दौर को याद करते हुए कहते हैं कि पटना में उन्होंने अनुपम जी को एक टेप रिकॉर्डर थमा दिया था कि उस वक्त जेपी के भाषणों को उसमें रिकार्ड करें, जब वो जेपी के साथ दौरा करें.

लेकिन जेपी के भाषणों में वो उतने मंत्रमुग्ध हो जाया करते थे कि कई बार तो रिकॉर्ड करना ही भूल जाते थे.

कुमार प्रशांत उन्हें याद करते हुए भावुक हो जाते हैं. उनका कहना है कि 'अनुपम जी ऐसे बिरले लोगों में थे जिनकी भरपाई करना काफी मुश्किल है. लेकिन, यह आगे उनके आदर्शों पर बढ़ना जरूरी है.'

जीने और सोचने का जो तरीका गांधी जी ने सिखाया वो कभी खत्म नहीं होगा.जबतक इंसान है तबतक उसी रास्ते पर चलना होगा. अनुपम जी गांधी जी के रास्ते पर चलने वाले एक समर्थ यात्री थे.

हालाकि कुमार प्रशांत उन्हें गांधीवादी नहीं कहना चाहते. वो कहते हैं कि ये तो पूंजीवादी और साम्यवादी की तरह एक नकली शब्द है. गांधीवादी तो कोई शब्द ही नहीं होता. हां गांधी के विचारों को आगे बढ़ने की कोशिश जरूर होनी चाहिए.

1977 से जुड़े थे गांधी शांति प्रतिष्ठान से

1977 से अनुपम मिश्र लगातार गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े रहे. तब से लेकर अपनी अंतिम सांस तक यहां उन्होंने गांधी मार्ग के संपादक, गांधी शांति प्रतिष्ठान के मंत्री या फिर पर्यावरण कक्ष के प्रमुख के रूप में अपने विचारों और अपने कामों से लोगों को प्रेरित किया.

गांधी शांति प्रतिष्ठान

चंबल की घाटी में 500 से ज्यादा डाकुओं के आत्मसमर्पण करने के दौरान उन्होंने प्रभाष जोशी के साथ मिलकर पूरी घटना देखी और चित्रण भी किया. वे एक अच्छे लेखक के साथ –साथ उतने ही अच्छे छायाकार भी थे. उनकी कृति चंबल की बंदूकें, बापू के चरणों में उस दौर का चित्रण करती हैं. सर्वोदय आंदोलन के दौरान भी वो उतने ही सक्रिय रहे.

उन्होंने गांधी मार्ग पत्रिका का जब संपादन किया तो उसमें अपने नाम के साथ संपादक के बजाए संपादन शब्द लिखना बेहतर समझा. क्योंकि, उनका मानना था कि हम तो अलग-अलग लोगों के विचारों का केवल संपादन करते हैं तो इसलिए संपादन शब्द का ही इस्तेमाल किया जाए.

जलसंचयन पर किया उम्दा काम 

पर्यावरण पर उनके काम को भला कैसे भूला जा सकता है. उनके अंदर इस बात को लेकर ललक जगी कि आखिरकार राजस्थान में पीने का पानी नहीं है तो फिर राजस्थान टिका कैसे है? फिर उन्होंने वहां के लोगों से, बड़े–बुजुर्गों से बात की. शोध के बाद पाया कि वहां के समाज ने पानी की व्यवस्था खुद शुरू की थी.

यहां के लोगों ने अपने काम के मुताबिक खुद ही तालाब बनाए और जलसंचय के जरिए अपनी सालों पुरानी सभ्यता और संस्कृति को सहेजकर रखा जिसपर मरुभूमि की तपती हवाओं के झोंके भी कुछ खास नहीं कर पाए.

उनकी रचना 'राजस्थान की रजत बूंदें' उस दौर का सही चित्रण प्रस्तुत करती हैं जो कि पर्यावरण के लिहाज से आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं.

अनुपम जी का मानना था कि हमने अपनी पद्धतियों को लादने की कोशिश की थी जिसके चलते धीरे-धीरे तालाब बिखर गए और हमारे सामने ये संकट खड़ा हो गया जिससे निपटना मुश्किल हो रहा है.

वर्तमान समय में जिस जल संचय के ऊपर सरकार जोर दे रही है. उसको लेकर दुनिया भर में बेचैनी है. लेकिन इसके बारे में अनुपम जी ने पहले ही आगाह कर दिया था.  'आज भी खरे हैं तालाब' के माध्यम से उन्होंने पर्यावरण को लेकर अपने दर्द को दिखाया है.

उन्होंने तालाब को विज्ञान से जोड़ा और पूरे देश में पानी को लेकर एक नई सोच पैदा की. आज दुनिया इस मोड़ पर पहुंची है कि अगर वक्त रहते पर्यावरण को लेकर कदम नहीं उठाए गए तो फिर अपने वजूद को बचाए रखना मुश्किल होगा.

कोई कॉपीराइट नहीं

उनके आदर्श और मूल्यों की कोई सीमा नहीं थी. वो तो ऐसे उदार थे कि उनका सबकुछ सबके लिए था. उन्होंने कॉपीराइट माना ही नहीं. गांधी जी ने भी कहा था कि कॉपीराइट की जरूरत ही नहीं थी और गांधी के सच्चे अनुयायी भला इसका पालन कैसे नहीं करते.

उनकी सादगी के पीछे किसी तरह का कोई दिखावा नहीं था. बल्कि एक ही सिद्धांत था कि अपने संसाधनों का कम इस्तेमाल करें. अनुपम जी ने भी वही किया. कुमार प्रशांत कहते हैं  'गांधी जी ने कहा था कि गरीबी नहीं स्वेच्छा से स्वीकारी हुई गरीबी होनी चाहिए और इसी बात पर अनुपम जी यकीन रखते थे.'

कुमार प्रशांत कहते हैं कि उनकी समझ देखकर मैं हैरान रहता था. आज उनके बाद के खालीपन को देखकर ऐसा लग रहा है कि कोई धुरी टूट गई हो. इस खालीपन को भरना आसान नहीं होगा.