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सिख दंगों पर 34 साल बाद आए फैसले पर जश्न क्यों? अभी ऊपरी अदालतों का 'इंसाफ' बाकी है

राजधानी में 1984 सिख विरोधी दंगों पर पढ़िए दिल्ली हाईकोर्ट के दबंग रिटायर्ड जज की ही मुंहजुबानी सच के आर-पार की कहानी. बिना किसी संपादन या लाग-लपेट के

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

ये जगजाहिर है कि हिंदुस्तान में सजा सुनाए जाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है गवाह और सबूत. जिन आपराधिक मामलों में दोनों मौजूद हों. उसके बाद भी सजा में 30-35 साल का लंबा वक्त लग जाए, मामले के गवाह कानून और न्याय के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के बाद भी फैसले के इंतजार में लाइन में लगे रहें, न्याय पाने की बाट जोहते हजारों पीड़ित स्वर्गवासी हो जाएं, तो इन सबका दोषी या सजा का हकदार भी तो कोई तय होना चाहिए? इस लेट-लतीफी का ठीकरा कभी किसी के सिर क्यों नहीं फूटता? न्याय में देरी भी तो जघन्य अपराध की श्रेणी में शुमार करना चाहिए?  हालांकि ऐसा अमूमन होते हुए देखा-सुना नहीं. आखिर क्यों?

मंगलवार को राजधानी में 1984 सिख विरोधी दंगों में हुए ‘सजा-ए-मौत’ के ऐलान के बाद ऐसे ही तमाम सवाल किसी के भी जेहन में कौंधना लाजिमी है. खासकर यह सवाल जब, कल तक खुद ही फांसी की सजा सुनाने वाला कोई ‘मी-लॉर्ड’ यानि न्यायाधीश (वरिष्ठ जज) करने लगे तो, यह कानून और देश की आने वाली पीढ़ियों के लिए और भी घातक हो सकता है. पढ़िए दिल्ली हाईकोर्ट के दबंग रिटायर्ड जज की ही मुंहजुबानी सच के आर-पार की कहानी. बिना किसी संपादन या लाग-लपेट के.


न्याय में देरी, जिम्मेदार कौन? सरकार या जांच एजेंसी?

‘मैं मानता हूं कि, देश में जो मौजूदा हालात देखे जा रहे हैं उनमें कब कहां किसके साथ क्या हो जाए? कह पाना मुश्किल है. देश की सबसे बड़ी एजेंसी सीबीआई में चल रही धींगा-मुश्ती इसका ताजा-तरीन नमूना है. कल तक जिस सीबीआई के नाम से अपराधियों के हलक सूखते थे. वे ही अब सीबीआई में शुरू हुए दंगल पर घर बैठे जश्न मना रहे हैं. ऐसे वातावरण में पुलिस को कोसने से पहले भी बहुत कुछ सोचना होगा.

मसलन 1984 के सिख विरोधी दंगों में दिल्ली पुलिस की भूमिका हमेशा संदिग्ध रही है. मैं इसके पीछे सीधे-सीधे दिल्ली पुलिस को दोषी नहीं मानता. पुलिस सरकार की नौकरी करती है. सरकार किसी की नौकरी नहीं करती. ऐसे मैं जैसे सरकार चाहती है वैसे पुलिस और सीबीआई 'दांव' या 'चाल' चलना-बदलना शुरू कर देती है. 1984 सिख दंगा इसका सबसे बड़ा उदाहरण रहा है मेरे पूरे न्यायिक सेवा काल में.’

एक FIR में 200 कत्ल दर्ज! आखिर क्यों?

‘उन दिनों मैं ‘टाडा- स्पेशल कोर्ट’ का जज था. टाडा के साथ-साथ ही मुझे 1984 सिख विरोधी दंगों का भी ‘विशेष-जज’ बना दिया गया. मेरी तैनाती पूर्वी दिल्ली की कड़कड़डूमा कोर्ट में थी. 1995 से 1998 के बीच वहां तैनाती रही. यहां उल्लेखनीय है कि देश में सबसे ज्यादा सिखों की हत्यायें पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी-कल्याणपुरी इलाके में ही हुई थीं. चार्ज मिलते ही मैने पहली बार, सिख विरोधी दंगों की फाइलें देखीं तो माथा चकरा गया.

खुद को जरूरत से ज्यादा का काबिल समझने वाली दिल्ली पुलिस ने एक ही एफआईआर में करीब 200 से ज्यादा हत्याएं दर्ज कर रखी थीं. क्यों भई ऐसा करने की पुलिस को क्या जरूरत थी? एक एफआईआर में 2-4-6-10 तक कत्ल तो लिखना समझ में आता है. 200 कत्ल एक एफआईआर में देखे तो समझ गया कि, कहीं न कहीं कोई खेल जरूर है.’

दिल्ली पुलिस डाल-डाल तो मैं पात-पात

‘दंगों की फाइलें देखते ही मैं समझ चुका था कि, हो न हो दिल्ली पुलिस कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी के(संभवत: आला-सरकारी- हुक्मरान) बेहद दबाव में जरूर है. पुलिस ने ज्यादा चतुर बन कर या फिर खुद की खाल बचाने के लिए एक एफआईआर में 200 से ज्यादा हत्याएं लिख दीं. मैने जैसे ही पकड़ा तो मैं पुलिस से चार कदम आगे बढ़ गया. मतलब पुलिस 'डाल-डाल तो मैं पात-पात' वाली कहावत पर आगे बढ़ने लगे.

हां एक और महत्वपूर्ण बिंदु यहां यह भी नहीं छोड़ा जा सकता कि, मेरे चार्ज लेने से पहले हुई लंबी अदालती प्रक्रिया में मुझे देखने को मिला कि, 15 साल में ( सिख विरोधी दंगे होने वाले दिन के बाद से) अक्सर कोर्ट की फाइलों पर कभी गवाह नहीं आ रहे थे. गवाह आता तो मुलजिम गैर-हाजिर या फिर कभी दोनो ही नदारद होते!  मुझे ताज्जुब हुआ कि देश-दुनिया को हिला देने वाला इतने बड़े नरसंहार में यह सब क्या तमाशा हो रहा है?’

जब चित हो गई ‘चतुर’ दिल्ली पुलिस

‘मेरे चार्ज लेने के दो-चार दिन बाद ही दिल्ली पुलिस की समझ में आ गया कि, मैं क्या और कैसा इंसान हूं? दरअसल दिल्ली पुलिस मुझे समझ यूं सकी कि, मैंने सिख दंगों की फाइलों को पढ़ने के बाद 'काला-सफेद' सब ताड़ लिया. जिसका असर यह हुआ कि मैंने एक एफआईआर में 200 से ज्यादा कत्ल के मामलों में दिल्ली पुलिस को आर्डर किया कि वो, हर कत्ल में चालान (आरोप-पत्र या चार्जशीट) स्पेशल-कोर्ट में अलग-अलग दाखिल करे. साथ ही मैंने ऑर्डर किया कि, पुलिस हर केस के आरोपियों को मेरे सामने अलग-अलग पेश करेगी.

34 साल बाद आये फैसले पर जश्न मत मनाईये अदालतें अभी और भी बाकी हैं 'मी-लॉर्ड'...एस.एन. ढींगरा, रिटायर्ड जज दिल्ली हाईकोर्ट

बस फिर क्या था. खुद को जरूरत से ज्यादा चतुर साबित करने में जुटी दिल्ली पुलिस के आला-अफसरों से लेकर थानेदार दरोगाओं तक के चेहरे सफेद पड़ गए, क्योंकि वे मेरी मंशा भांप चुके थे. उन्हें अंदाजा हो चला था कि, जिस ट्रैक पर वे चल रहे हैं, वो ज्यादा वक्त तक उनकी गाड़ी आगे नहीं खींच पाएगा. मेरी इस कोशिश का परिणाम यह हुआ कि, दिल्ली पुलिस हर केस के मुलजिमों को अलग-अलग पेश करने लगी. मुझे ट्रायल चलवाने में आसानी हो गई.’

मेरी ‘जुगत’ ने पुलिस का ‘जंग’ छुड़ा दिया

‘मेरी रणनीति इस कदर कामयाब रही कि, मेरे सामने अदालत में 1984 सिख विरोधी दंगों के जितने भी केस रखे गए, सबमें बाकायदा ट्रायल हुआ. इससे मुझे आत्मिक संतुष्टि मिली. मुजरिमों को सजा और पीड़ितों को न्याय. हां, मेरी उस कसरत ने दिल्ली पुलिस में, 1984 सिख विरोधी दंगों की जांच को लेकर लग चुके 'जंग' को भी जरुर खत्म कर दिया. यहां मैं सीधे-सीधे पुलिस को भी 'कटघरे’ में खड़ा नहीं करना चाहूंगा. वजह यह है कि, इस तरीके के मामलों में कहीं न कहीं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से जांच एजेंसियों (सीबीआई, एनआईए या फिर पुलिस) पर सरकारी दबाब की प्रबल संभावनाएं बनी रहती हैं. इसका जीता-जागता नमूना है देश की सबसे बड़ी इकलौती जांच एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो यानि सीबीआई के भीतर चल रही धींगामुश्ती.’

पहली नहीं छठी फांसी है, 5 तो मैं सुना आया था

'20 नवंबर 2018 को यानि कल ही दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट के एडिश्नल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज ने एसआईटी की रिपोर्ट पर यशपाल सिंह को फांसी और उसके साथी मुजरिम नरेश सहरावत को उम्रकैद की सजा मुकर्रर की है. देश भर का मीडिया लिख और चीख-चिल्ला रहा है कि 1984 सिख विरोधी दंगों में यशपाल सिंह को सुनाई गई फांसी की सजा पहली है. मुझे तरस आता है ऐसे, चंद कथित बुद्धिजीवी पत्रकारों के ऊपर जो इसे पहली फांसी की सजा बता रहे हैं.

त्रिलोकपुरी में हुए 5 पांच लोगों की हत्या के मुख्य आरोपी कसाई किशोरीलाल को मैंने फांसी की पांच अलग-अलग सजाएं दी थीं. तो फिर कल पटियाला हाउस कोर्ट द्वारा सुनाई गई यशपाल सिंह को फांसी की सजा पहली कैसे हो गई? यह तो छठी फांसी हुई. पत्रकार बंधु पहली-फांसी, पहली फांसी चीख-लिख रहे हैं. किशोरीलाल को 24-25 साल पहले मिली पांच फांसियों का तो मीडिया में कहीं जिक्र ही नहीं आ रहा है. यह अलग बात है कि किशोरीलाल की फांसी की सजा को बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उम्रकैद में तब्दील कर दिया था.’

फैसले पर जश्न क्यों? अभी 2 अदालतें बाकी हैं !

‘1984 सिख विरोधी दंगों पर गठित विशेष जांच प्रकोष्ठ (S.I.T.) पर दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत ने 20 नवंबर 2018 को फैसला सुना दिया. दक्षिणी दिल्ली के महिपालपुर गांव के निवासी दो पड़ोसियों को 34 साल बाद निचली अदालत ने (ट्रायल कोर्ट) ने सजा मुकर्रर कर दी. दोनो मुजरिम करार दिए गए शख्स तकरीबन हम-उम्र हैं. यशपाल सिंह को सजा-ए-मौत यानि फांसी. उसके साथी नरेश सहरावत को उम्रकैद की सजा मिली है. मुजरिमों का खेमा फैसले को गलत बता रहा है. पीड़ित पक्ष फैसले का स्वागत करते हुए उम्रकैद की सजा पाए नरेश सहरावत को भी मौत की सजा दिए जाने की मांग को लेकर कुलांचें भर रहा है.

फ़र्स्टपोस्ट हिंदी से बेबाक बातचीत करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस एस.एन. ढींगरा

एक मुजरिम को फांसी की सजा मिलने से, पीड़ित पक्ष में जश्न का सा माहौल है. इसे वो 'विजयश्री' सा महसूस कर रहे हैं. यह उनकी भावनाएं हो सकती हैं. मैं तो इस मौके पर सिर्फ इतना ही कहूंगा कि मंजिल अभी दूर है. वजह मुजरिम खुद के बचाव में दिल्ली हाईकोर्ट और फिर वहां से सुप्रीम कोर्ट चले जाएंगे, जोकि उनका कानूनी हक है. अंदाजा लगाइए कि, ट्रायल कोर्ट का फैसला आने में 34 साल लग गए. ऐसे में हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में कितना वक्त लगेगा? वहां निचली अदालत का फैसला किस करवट बैठेगा? यह दोनों ही सवाल हाल में इस मामले में आए ट्रायल-कोर्ट के फैसले से कहीं ज्यादा विचारणीय और महत्वपूर्ण हैं.’

वो केस जो 44 साल से कोर्ट में पैंडिंग पड़ा है

‘1984 सिख विरोधी दंगों के मामले में चलिए फैसला 34 साल बाद आ गया. जरा ललित नारायण मिश्रा हत्याकांड की तो सोचिए. देश को हिला देने वाला वो मामला सन् 1975 (करीब 43 साल से) अभी तक न्याय की उम्मीद में अदालत में ही फाइलों में बंद भटक रहा है. आखिर क्यों? जहां तक मुझे ध्यान आ रहा है शायद ललित नारायण हत्याकांड में एक मुलजिम तो स्वर्गवासी भी हो चुका है. बाकी शायद सभी आरोपी जेल से बाहर जमानत पर हैं. वजह वही कि ट्रायल कोर्ट का फैसला ऊपरी यानि अपीली अदालत में खुद पर 'सहमति' की अंतिम मुहर लगवाने की बाट जोह रहा है वो भी 4 दशक से.

भले ही मैं तमाम साल दिल्ली न्यायिक सेवा का अहम हिस्सा (दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस पद से रिटायर) रहा हूं. सच तो मगर मैंने भी करीब से देखा है. कभी कभी नहीं अक्सर ही महसूस करता हूं कि, मौजूदा सुस्त जुडिशरी सिस्टम को ढोना हिंदुस्तानी नागरिक की मजबूरी सा बन गया है. अगर यह कहूं तो गलत नहीं है.’

आखिर कौन है यह सब दो-टूक कहने-सुनने वाला?

यह शख्शियत है अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व (रिटायर्ड) जज एस.एन. ढींगरा यानि शिव नारायण ढींगरा. वही शिव नारायण ढींगरा जिन्होंने स्पेशल-जज रहते हुए, 1990 के दशक में 1984 सिख दंगा विरोधी नरसंहार में दिल्ली के त्रिलोकपुरी कल्याणपुरी में हुई 200 से ज्यादा हत्याओं में से 5 कत्लों में सजा-ए-मौत यानि फांसी की सजा सुनाई थी.

इतिहास गवाह है कि, एस.एन.ढींगरा ने 5 कत्ल के मुजरिम इकलौते कसाई किशोरीलाल को 1984 सिख विरोधी दंगों में पहली फांसी की सजा दी थी. यह अलग बात है कि, सुप्रीम कोर्ट ने बाद में उनके द्वारा मुकर्रर सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया. ऊपर बताई गई पूरी कहानी पेश थी उन्हीं एस.एन. ढींगरा के बयान के आधार पर जिन्होंने, कालांतर में कल्पनाथ राय जैसे दबंग केंद्रीय मंत्री को ‘टाडा’ में गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल में डलवा दिया था.

वही एस.एन. ढींगरा जिन्होंने सीबीआई के डिप्टी एसपी को हड़काते हुए समझा दिया था कि, अगर अगली पेशी पर तुम्हें मंत्री जी (कल्पनाथ राय) हाथ न लगें तो, अपने एसपी साहब को गिरफ्तार करके मेरे सामने कोर्ट में पेश कर देना. ढींगरा की इसी खुली चेतावनी के फलस्वरुप हड़बड़ाई सीबीआई ने अगली पेशी पर मंत्री जी को गिरफ्तार करके कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया था.

(एसएन ढींगरा से हुई एक्सक्लूसिव बातचीत पर आधारित. लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार हैं)