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एंग्री हनुमान की बात कर पीएम मोदी ने स्यूडो-लिबरल्स की दुखती रग पर हाथ रख दिया है

आखिर को निष्कर्ष यही निकलता है कि हिंदू धर्म और इसके मानने वाले उदारवादी कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं- यह उदारवाद दरअसल है तो एक भेड़िया लेकिन उसने भेड़ की खाल ओढ़ रखी है

Sreemoy Talukdar

यह बात तो एकदम तय है कि बहस का मुद्दा नरेंद्र मोदी ही तय करते हैं. जैसा कि मैंने अपने इस कॉलम में पहले भी जिक्र किया है- प्रधानमंत्री को संवाद-कला में महारत हासिल है और वे किसी भी चर्चा का रुख मोड़ सकते हैं.

कुछ ऐसा ही हुआ शनिवार के रोज एक चुनावी रैली में जहां उन्होंने करण आचार्या की सराहना की. ग्राफिक आर्टिस्ट करण आचार्या मंगलुरु के निवासी हैं और इनकी एक खास शैली में बनाई हुई हनुमान की आकृति पूरे देश में प्रचलित हो गई है जो कि उनकी प्रतिभा और रचनाशीलता की मिसाल है. लेकिन मोदी सिर्फ करण आचार्या की सराहना तक नहीं रुके. उन्होंने इससे आगे बढ़ते हुए कांग्रेस और उसके भीतर जारी उस माहौल की आलोचना की जिसकी वजह से एक कलाकार की रचना को बेकार ही विवाद का विषय बना दिया गया है.


मंगलुरु के नेहरु मैदान में हुई एक चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी ने कहा कि 'मैं कलाकार करण आचार्या की सराहना करना चाहता हूं. उनकी बनाई हनुमान जी की छवि पूरे देश में लोकप्रिय हो गई है और उसने अपनी तरह का एक चलन कायम किया है. करण आचार्या की उनकी रचनाशीलता के लिए खूब प्रशंसा होनी चाहिए. मैंने देखा कि सभी टीवी चैनल वाले उनसे इंटरव्यू लेने के लिए कतार लगाए खड़े हैं. यह उनकी कला, प्रतिभा और कल्पना की जीत है. मंगलुरु को उनपर गर्व है.' मोदी ने इन बातों के सिलसिले में कटाक्ष के तौर पर यह भी कहा कि : 'बहरहाल, कुछ लोग इन बातों के कारण बड़े बेचैन नजर आ रहे हैं.'

उन्होंने कहा कि 'कांग्रेस के भीतर का माहौल ही ऐसा है कि वह करण आचार्या की शानदार कला को बर्दाश्त नहीं कर सकती जबकि करण आचार्या की बनाई हनुमान जी की कला-आकृति ने पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा है. कांग्रेस इस लोकप्रियता को पचा नहीं पा रही और इसी कारण वह इसे बदनाम करने पर तुली है, विवाद का विषय बना रही है. कांग्रेस के सदस्यों के दिमाग में रत्ती भर भी लोकतंत्र बाकी नहीं है. … ऐसी पार्टी को अब एक दिन के लिए भी कर्नाटक पर शासन करने का हक नहीं बनता.'

अब तो खैर बहुत से लोग उस कलाकृति के बारे में जान चुके हैं जिसे आचार्य ने 2015 में स्थानीय यूथ क्लब की मांग पर बनाया था. घूरती आखें, तनी हुई भौंह और चेहरे पर आक्रोश वाली हनुमान की इस आकृति को पूरे देश ने हाथों-हाथ लिया, आकृति इतनी मशहूर हुई कि खुद इसका रचनाकार भी चकित रह गया.

भगवा और काले रंग की पृष्ठभूमि में उकेरी गई वह रेखाकृति आपको टी-शर्ट, रियर-व्यू विंडो, विन्डशील्ड, मोटरबाइक, स्मार्टफोन डिस्प्ले, एक्सेसरीज और ऐसी ही अन्य चीजों पर बाआसानी दिख जाएगी. हिंदुस्तान टाइम्स को दिए गए साक्षात्कार में 28 साल के इस कलाकार ने कहा कि उन्हें अब हनुमान जी के आर्टिस्ट नाम से पुकारा जाता है और उन्हें काम के ढेर सारे ऑफर मिल रहे हैं.

"उग्र हिंदुत्व का प्रतीक'

मोदी ने संकेत के तौर पर ‘कांग्रेसी माहौल’ और इसकी ‘बदनाम’ करने की कोशिश का जिक्र किया. वे हाल के उन प्रसंगों पर ध्यान खींचना चाहते थे जिनमें करण आचार्या के रचना-कर्म को ‘उग्र हिंदुत्व’ के ‘क्रोध की अभिव्यक्ति’ कहकर पेश किया गया है. हनुमान की तनी हुई नाक-भौंह वाली उस आकृति को राजनीतिक हिंदुत्व की बड़जोरी के प्रतीक के रूप में पढ़ा जा रहा है जो नंगे बहुसंख्यकवाद के प्रचार-प्रसार पर तुला है. कहा जा रहा है कि इस कलाकृति में हनुमान ‘भक्त’ नहीं रह गए हैं बल्कि एक खास धर्म के बाहुबल के प्रतीक बन चले हैं और कलाकृति का रोजमर्रा की जिंदगी में प्रचलित होते जाना बीजेपी के राजनीतिक और सांस्कृतिक दबदबे का संकेत है.

लेकिन बात इतने पर भी नहीं रूकी. कलाकृति की व्याख्या ने धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पक्ष में तरफदारी करने वाले उन जड़विहीन प्रगतिशीलों को उकसाया जो असहिष्णुता के विरोध में उठ खड़े होने के नाम पर खुद ही असहिष्णु हो उठते हैं. हिंदू-धर्म के पंख कतरने की कोशिशें हुईं, इस धर्म में समाए बहुलतावाद को दोधारी दायरे में सिकोड़ दिया गया और हिंदू धर्म के प्रतीक-चिन्हों को बहुत कुछ उसी तर्ज पर ‘शैतान’ की निशानी बताने की कोशिश हुई जैसा कि पैगम्बरी धर्मों में होता है. और, एक उदार धर्म की अनुदारता भरी इस व्याख्या को उदारतावाद का नमूना कहकर पेश किया जा रहा है, उसपर नैतिक पाठ के मुलम्मे चढ़ाए जा रहे हैं. अगर इसे कोई पहाड़ को राई में तब्दील करने की एक कोशिश के रुप में ना देखें तो और क्या करे भला!

द वायर में प्रकाशित एक बहुचर्चित आलेख में वायरल हुई कलाकृति को हनुमान 2.0 का नाम दिया गया है और इसे उग्र हिन्दुत्व के प्रतीक के रुप में दिखाया गया है. लेख में कहा गया है कि 'हनुमान 2.0 किसी शुभ का संकेतक नहीं. उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं बल्कि आड़ी तिरछी रेखाओं से जाहिर होता गुस्सा है. काले और भगवा रंग की पृष्ठभूमि में यह कलाकृति एक अमर्यादित ऊर्जा के संकेत करती है. इस आकृति से झांकती गर्जना एक खतरे का संकेत करती है. कलाकृति साफ जाहिर करती है कि वह अब सेवक नहीं बल्कि अपने विध्वसंक रूप में है.'

कुछ आलेखों में इसे ‘क्रुद्ध हनुमान’ का नाम दिया गया है और यह बताने की कोशिश की गई है कि ऐसे हनुमान को अपनाने की लोगों में होड़ क्यों मची है.

न्यूज18 के लेख में एक पत्रकार को यह कहते हुए दर्ज किया गया है, 'मैं ये बात समझता हूं कि किसी प्रतीक की व्याख्या कई तरह से की जा सकती है लेकिन इस कलाकृति की व्याख्या को राजनीति और राजनीतिक विचारधारा से जोड़कर ना देखना बहुत मुश्किल है. इस कलाकृति को काले और भगवा रंग की पृष्ठभूमि में उकेरा गया है और यह आकृति बजरंग दल जैसी जमातों का नया चेहरा बन चली है, यह सब बहुत भयावह है.' न्यूज18 के लेख में एक कटेंट राइटर को यह कहते हुए भी दर्ज किया गया है कि, ' जब भी मेरी नजर इस स्टिकर पर जाती है मेरे मन में दो बातें गूंजती हैं- एक तो यह कि यह भगवा राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति है और दूसरे ये कि यह सिर्फ किसी राष्ट्रवादी की अभिव्यक्ति भर नहीं है बल्कि इस अभिव्यक्ति में एक ‘मर्द’ है.'

इस तरह से हो रहा है विरोध

केरलवासी एक लेखक और एक्टिविस्ट ने आह्वान किया है कि जिन सार्वजनिक वाहनों पर क्रुद्ध हनुमान का पोस्टर लगा हो उसका बहिष्कार किया जाए. न्यूज मिनट के एक लेख के मुताबिक ये आह्वान जे देविका ने एक टीवी चैनल पर चल रही एक परिचर्चा में शिरकत करने के दौरान किया. लेख मे जे देविका को यह कहते हुए दर्ज किया गया है कि 'तिरुअनंतपुरम में बहुत से ऑटोरिक्शा चल रहे हैं जिनपर रुद्र हनुमान की तस्वीर लगी है. मुझे दो किलोमीटर भी जाना हो तो मैं ऐसे ऑटोरिक्शा पर ना चढूं. इसके अलावा, जो कोई अतिवादी हिंदुत्व के प्रतीक चिन्हों को धारण करता है मुझे उसके साथ कोई सरोकार नहीं. जो संगठन ऐसा कोई प्रतीक धारण करता है मुझे ऐसे संगठन को लाभ कमाने में मदद देने से इनकार है.'

जे देविका का आह्वान है कि जो कोई संगठन क्रुद्ध हनुमान के प्रतीक का इस्तेमाल कर रहा है, उसका बहिष्कार किया जाए. इस आह्वान को सोशल मीडिया पर बहुत से पैरोकार मिले हैं. कुछ ने ये सुझाव भी दिया है कि जिस कैब पर यह तस्वीर लगी मिले इसे टैक्सी एग्रीगेटर्स से बाहर कर दिया जाए.

डेक्कन हेराल्ड ने रिपोर्ट छापी है कि बेंगलुरु की मॉडल रेश्मी आर. नायर ने फेसबुक पर हनुमान की आकृति वाले कैब के खिलाफ फेसबुक पर एक पोस्ट लगाई है और ऐसी आकृति को आक्रामक हिंदुत्व की अभिव्यक्ति बताया है. उन्होंने लिखा है कि वे ऐसे कैब पर नहीं चढ़ेंगी और इसे कैंसिलेशन चार्ज भी नहीं देंगी.

क्रुद्ध हनुमान क्यों?

ऐसा जान पड़ता है कि कि कलाकृति को आक्रामक हिंदुत्व की अभिव्यक्ति के रूप में देखने वाले लोगों ने अपने मन में हनुमान की कोई ऐसी छवि गढ़ रखी है जो उनकी धारणाओं की पुष्टि करता है, भले ही इस हनुमंत मूर्ति का हिंदू-संस्कृति में शुभ के प्रतीक हनुमान से कोई लेना-देना ना हो. पहला सवाल तो यही उठता है कि आखिर इस हनुमान को क्रुद्ध या रुद्र हनुमान कहकर क्यों पुकारा जा रहा है.

इसे बनाने वाले कलाकार ने खुद ही स्पष्ट कर दिया है कि बिना मुस्कान वाली हनुमान की उसकी कलाकृति दरअसल किसी क्रोध का इजहार नहीं कर रही. कलाकार का यह भी कहना है कि मुझे नहीं पता, क्यों इस आकृति को रुद्र हनुमान कहा जा रहा है. करण आचार्य का कहना कि उनके बनाए हनुमान में बस एक 'एटीट्यूट' (तेवर) का इजहार है.

लेकिन कला-रचना होने के नाते व्याख्याओं के एतबार से मैदान खुला हुआ है. हनुमान’स् टेल- द मैसेज ऑफ ए डिवाइन मंकी के लेखक प्रोफेसर फिलिप लुट्गेनडॉफ को द स्क्रॉल ने यह कहते हुए दर्ज किया है कि 'हनुमान के प्रति भक्ति-भाव का उभार हाल की सदियों में जारी हुआ और 20वीं सदी में इसने जोर पकड़ा और हनुमान के प्रति भक्ति भाव का जोर पकड़ना शायद उसी तर्ज पर हुआ जैसे कि अन्य धार्मिक गतिविधियों में..इनमें से किसी भी गतिविधि का खास रिश्ता हिंदुत्व के किसी विशेष प्रकार या अल्पसंख्यक-विरोधी संदेश से नहीं है. लेकिन ऐसा आसानी से किया जा सकता है. मेरी इस संभावना को खारिज नहीं करता कि एक व्याख्या ऐसी भी हो सकती है.'

एक समूह गरीबों को भोजन बांटता है और वह हनुमान की इस कलाकृति का इस्तेमाल करता है. समूह का तर्क है कि हनुमान की यह कलाकृति तनिक लीक से हटकर है और लोगों का ध्यान खींचती है. बालाजी कुनबा नाम का यह समूह भुखमरी के खिलाफ काम करता है और वह मानता है कि हनुमान की इस कलाकृति में आक्रोश के भाव हैं लेकिन उसका ये भी कहना है कि आक्रोश का यह भाव भुखमरी और गरीबी के खिलाफ है. यह बात टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में लिखी गई है.

बालाजी कुनबा के फेसबुक अकाउंट से.

कलाकृति का बहिष्कार क्यों?

चलिए मान लेते हैं कि इस कलाकृति में आक्रोश के भाव हैं, यह क्रुद्ध हनुमान की ही छवि है लेकिन इससे यह कहां निकलता है कि कलाकृति का बहिष्कार किया जाना चाहिए. जिस लेख में हनुमान की छवि में अतिवादी हिंदुत्व के संदेश पढ़ने की कोशिश की गई है उसमें एक किस्म का तर्कदोष है, हिंदू धर्म के भगवान के एक अवतार को संदर्भ को रूप में लेते हुए उसे सीमित दायरे में कैद कर दिया गया है. हनुमान शुभता के प्रतीक हैं, वे स्वामीभक्त हैं और सेवक भी लेकिन वे प्रचंड योद्धा भी हैं, वीर सेनानी हैं, उनमें विध्वंस की भयावह शक्ति है और उनका क्रोध एक बार जाग जाए तो उसे शांत करना मुश्किल है. हनुमान की एक गर्जना तीनों लोकों को कंपाने के लिए काफी है. हनुमान का नाम मात्र लेने से विघ्न बाधाओं का नाश होता है- ये बातें किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं तुलसीदास ने लिखी हैं, हनुमान चालीसा में आती हैं.

आपन तेज संभारो आपे-तीन्हूं लोक हांक ते कांपे

भूत पिशाच निकट नहीं आवे- महावीर जब नाम सुनावे.

उदारवादी कट्टरपंथियों के निशाने

हम सबके लिए यह एक सच्चाई है. जिस वीर हनुमान ने लंका-दहन किया उसे किसी एक पक्षीय शुभता के प्रतीक के रुप में सीमित कर देना सिर्फ भ्रामक ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा खराब है क्योंकि लेखक ने हिंदूधर्म की मूल बात को ही नहीं समझा कि वह बहुलता को तरजीह देता है, उसमें किसी एक बात को खास तवज्जो नहीं दी जाती. हिंदू धर्म में एक सत्य नहीं बल्कि अनेक सत्य हैं.

ये भी हो सकता है कि ऐसे विचार रखने वालों की बेचैनी की वजहें हिंदुत्व की वो कोशिशें रही हों जिसके तहत ऐसी धारणाओं का प्रतिकार किया जाता है कि हिंदू धर्म में धर्मांतरण नहीं होता और वह हमेशा अहिंसा के ही सदुपदेश करता है. ऐसी ही धारणाओं के कारण पैगम्बरी धर्मों के लिए भारत में जगह बनी और मुस्कानविहीन हनुमान की वह कलाकृति ऐसी धारणाओं के खिलाफ खड़ी है?

यहां मुद्दा ये नहीं है कि हनुमान की उस छवि में क्रोध, आक्रोश या फिर शुभता का कोई भाव है या नहीं. दरअसल मामला एक धर्म और उसके मानने वालों को ओछा ठहराने का है और यह भी देखें कि दुर्भावना से भरी गुमराह करने वाली व्याख्याओं के आधार पर एक धर्म और उसके मानने वालों को ओछा बताया जा रहा है. हनुमान के उस पोस्टर से अपराध या हिंसा की कोई घटना तो नहीं जुड़ी. ऐसे में हनुमान की खास कलाकृति वाले सार्वजनिक वाहनों के बहिष्कार की बात करना दरअसल असहिष्णुता, भद्रवर्गीय अहंकार, कट्टरता और सांस्कृतिक दबदबे की मिली-जुली दलील कही जाएगी.

वरिष्ठ पत्रकार चार्मी जयश्री हरिकृष्णन ने बहिष्कार के इस नाजायज आह्वान का विरोध करते हुए लिखा है कि, 'भारत में आजादी अब भी बरकरार है और ऐसा कुछ नहीं है जो लगे कि जो लोग हनुमान का एक खास तरह का पोस्टर लगा रहे हैं वे महिलाओं को परेशान करते या फिर उनके साथ बलात्कार करते हैं … और मेहरबानी करके इस बात को कहना बंद कीजिए कि हनुमान को हमेशा मुस्काते नजर आना चाहिए. दरअसल आप लोग उन्हीं लोगों की बड़ी भद्दी नकल कर रहे हैं जिनके खिलाफ होने का आप दावा करते हैं. आप दरअसल भीड़ का इंसाफ कायम करना चाहते हैं और अभिव्यक्ति की आजादी में सेंधमारी करना चाहते हैं. और आपकी यह कवायद भयानक भेदभाव का पता देती है और अपने पूर्वाग्रहों के कारण रोजगार का रास्ता रोके खड़ी है. …' चार्मी जयश्री हरिकृष्णन की यह बात द न्यूज मिनट में छपी है.

हनुमान की कलाकृति की सतही व्याख्या ने संस्कृति के स्तर पर एक लड़ाई को भी जन्म दिया है. विश्व हिन्दू परिषद् के एक कार्यकर्ता की ठीक ही उसके ट्वीट के लिए निंदा की गई. उसने ट्वीट किया था कि ड्राइवर मुस्लिम था इसलिए उसने एक टैक्सी एग्रीगेटर की सेवा लेने से इनकार कर दिया. उसकी इस हरकत को बहुतों ने निशाने पर लिया. कुछ ने कहा कि वीएचपी के इस सदस्य अभिषेक मिश्रा को उसके नफरत फैलाने वाले बयान के लिए दंड दिया जाना चाहिए.

लेकिन बात जब रेशमी नायर की निंदा की आती है तो ये ही लोग चुप्पी साध जाते हैं जबकि बेंगलुरु निवासी रेश्मी नायर ने खुलेआम ऐलान किया कि जिस कैब पर क्रुद्ध हनुमान की मूर्ति लगी होगी उनका बहिष्कार होना चाहिए. हालांकि रेशमी के सामने यह स्पष्ट कर दिया गया था कि हनुमान की इस छवि का रिश्ता किसी हिंसा या अपराध की घटना से नहीं है. दरअसल नफरत का भाव हमारी सामूहिक चेतना के महीन दरारों में आ जमा है.

आखिर को निष्कर्ष यही निकलता है कि हिंदू धर्म और इसके मानने वाले उदारवादी कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं- यह उदारवाद दरअसल है तो एक भेड़िया लेकिन उसने भेड़ की खाल ओढ़ रखी है और नैतिकता के उपदेश देता घूम रहा है. मोदी ने इसी पाखंड पर एक बार फिर से निशाना साधा है.