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क्या एक और बंटवारे के बाद गायब हो जाएगें एएमयू कैंपस से टोपी और दाढ़ी?

क्या भारत का एक और बंटवारा होगा, तब एएमयू कैंपस से बुर्का और टोपी गायब होंगे?

Tufail Ahmad

मैं अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी 25 साल बाद गया था. आर्ट फैकल्टी हो या दूसरे विभाग हर क्लास में मुझे जो खास बात नजर आई वो बुर्का और टोपी पहने हुए छात्र-छात्राएं थे.

जब अस्सी के दशक के आखिर में मैं अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, तो एक भी लड़की बुर्का पहने नजर नहीं आती थी, न ही किसी लड़के के सिर पर टोपी देखने को मिलती थी.


उस दौर से आज तक में बहुत फर्क आ गया है. जो सामाजिक बदलाव हुआ है वो यही है कि छात्रों की जिंदगी में धर्म ने अच्छी-खासी जगह बना ली है.

छात्रों में बढ़ता धार्मिक झुकाव, पूरी दुनिया के मुसलमानों की सोच में आ रहे बदलाव का ही एक हिस्सा है. कई बार कोई लिबास सिर्फ लिबास नहीं होता. उसी तरह बुर्का भी एक विचार हैं, इनकी अपनी राह और रंगत है.

एएमयू में अब लाइब्रेरी में लड़कियों के लिए अलग कमरा बनाया गया है

लाइब्रेरी में नमाज

कुछ साल पहले एशिया की सबसे बड़ी पुस्तकालयों में से एक मौलाना आजाद लाइब्रेरी में कुछ छात्रों ने नमाज अदा करना शुरू कर दिया. जिसके बाद एएमयू प्रशासन को ऐसे धार्मिक छात्रों के लिए लाइब्रेरी में अलग जगह मुकर्रर करनी पड़ी जहां वो नमाज पढ़ सकें.

बाद में बुर्का पहनकर आने वाली छात्राओं के लिए भी लाइब्रेरी में दो अलग कमरे तय कर दिए गए. हालांकि, ऐसा नहीं है कि इन बुर्कापोश छात्राओं को लाइब्रेरी में कहीं और बैठने की इजाजत नहीं थी. ये कहीं भी बैठ सकती थीं. कई तो लड़कों के साथ बैठकर पढ़ती भी थीं.

राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर आफ़ताब आलम, इन बदलावों को पॉजिटिव मानते हैं. वो कहते हैं कि, 'पहले छात्राएं क्लास में छात्रों से अलग बैठती थीं. वो लड़कों से बात भी नहीं करती थीं. अब लड़के और लड़कियां आपस में ज्यादा घुल-मिल रहे हैं. बुर्का पहनकर आने वाली छात्राएं भी लड़कों से बात करती देखी जा सकती हैं.'

आफ़ताब आलम कहते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कैंपस का अपना अलग मिजाज है. यहां परंपरा और तरक्कीपसंद खयाल वाले लोगों का बढ़िया तालमेल देखने को मिलता है. वो कहते हैं कि इस तालमेल की चुनौती का एएमयू ने हमेशा सामना किया है.

एएमयू की स्थापना मुसलमानों के बीच आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए हुआ था

आधुनिक शिक्षा

यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद खां का मकसद मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा देना था, ताकि वो आजाद खयाल हो सकें. मगर आज कैंपस में बढ़ती धार्मिकता यूनिवर्सिटी के बौद्धिक माहौल के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है.

बातों-बातों में जिक्र ब्रिज कोर्स का भी छिड़ गया. ये एक साल का कोर्स होता है. जिसमें मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को अंग्रेजी और सामाजिक विज्ञान पढ़ाया जाता है. इस ब्रिज कोर्स को राशिद शाज चलाते हैं.

राशिद प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया के पूर्व सदस्य हैं. इस कोर्स में गेस्ट लेक्चर भी होते हैं. इसके अलावा एएमयू में तमाम धर्मों के आपसी मसलों और इस्लाम के भीतर के तमाम खयालों पर भी कोर्स हैं.

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मसलन, मुसलमानों के तमाम फिरकों में फर्क का भी यहां एक कोर्स है. मगर इन सब की पढ़ाई राशिद कराते हैं. राशिद की उर्दू में कई किताबें छप चुकी हैं, जो कट्टरपंथ का पाठ पढ़ाती हैं.

किसी के भी जहन में ये सवाल आ सकता है कि धार्मिक कोर्स में जो पढ़ाई राशिद जैसे लोग कराते हैं उनमें और जाकिर नाइक में कोई फर्क है क्या?

दोनों ही मुसलमानों को कट्टरवाद का सबक पढ़ाते हैं. आज की तारीख में सरकार जाकिर नाइक पर कार्रवाई कर रही है. मगर राशिद मजे से अपना एजेंडा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लागू कर रहे हैं.

इतिहासकार इरफ़ान हबीब एएमयू में इस नए चलन का विरोध करते हैं

मदरसे से यूनिवर्सिटी 

इस कोर्स के बारे में इलाहाबाद के करीब जामिया अराफिया मदरसे से आए इसरार अलगी के खयाल सुनिये. इसरार का दावा है कि एएमयू के धार्मिक कोर्स से उनके खयाल बदले हैं. ब्रिज कोर्स करने के बाद अब इसरार बैचलर ऑफ सोशल वर्क का कोर्स कर रहे हैं.

मदरसे से आए इस युवक के लिए यूनिवर्सिटी मे पढ़ना बहुत बड़ा बदलाव है. मुसलमानों में पिछड़ेपन की बात करते हुए इसरार वैसी ही बात करते हैं, जैसी बात दूसरे मुसलमान करते हैं. वे कहते हैं, 'मुसलमानों का अपना राजनैतिक मंच होना चाहिए'.

मैं उससे पूछता हूं कि अगर ऐसे ही राजनैतिक मंच हिंदुओं, ईसाइयों और दूसरे धर्म के लोगों के भी हो जाएं तो? इसरार कहता है, 'सर हम सियासी प्लेटफॉर्म की बात नहीं करते. मगर हिंदुस्तान में मुसलमानों का जो इस्ताहसल हो रहा है, ऐसे हालात में हम क्या करें.'

साफ है...कि जो ब्रिज कोर्स, मदरसे के छात्रों को मुख्य धारा की पढ़ाई से जोड़ने के लिए चल रहा है, वो एएमयू का मिजाज ही बदल रहा है.

इस ब्रिज-कोर्स के बारे में इतिहासकार इरफान हबीब कहते हैं, 'अलीगढ़ यूनिवर्सिटी अपने आधुनिक, तरक्कीपसंद मिजाज से परे हट रही है.'

प्रो. हबीब आगे कहते हैं, 'अगर आप कुल छात्रों का बीस फीसद ही मदरसों से लेते हैं, जो ब्रिज कोर्स के बाद यूनिवर्सिटी का हिस्सा बन जाते हैं, तो आप दूसरे बीस फीसद छात्रों को यूनिवर्सिटी से दूर धकेल देते हैं. प्रो. हबीब के मुताबिक ये ब्रिज कोर्स मुसलमानों के हित में नहीं, बल्कि उनके खिलाफ है.'

यूनिवर्सिटी के 20 फीसद छात्र अब सीधा मदरसे से कैंपस पहुंच रहे हैं

एएमयू के मिजाज पर असर

फिक्र की एक और बात है. मदरसों से आये इन छात्रों को गैरइस्लामिक समझे जाने वाले विषयों जैसे भूगोल, गणित, सामाजिक विज्ञान और भौतिक विज्ञान की जरा भी जानकारी नहीं होती.

आने वाले दशक में ऐसे छात्र पूरी तरह से एएमयू का मिजाज बदल देंगे. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी पूरी तरह से धार्मिकता के रंग में रंगी नजर आएगी.

आजादी के बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बदलाव की जो मुहिम शुरू हुई थी, ये ब्रिज कोर्स उस मुहिम पर भी पानी फेर रहा है.

प्रो. इरफान हबीब बताते हैं, 'पहले यूनिवर्सिटी के मेन कैंपस में छात्राओं को पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में भर्ती नहीं किया जाता था. छात्राएं यूनिवर्सिटी से जुड़े अलग कॉलेज में पढ़ती थीं. मगर आजाद भारत की सरकार ने इस रोक को हटाया और मेन कैंपस के पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में छात्राओं के दाखिले होने लगे.'

एएमयू की रिटायर्ड प्रोफेसर शीरीन मूसवी बताती हैं कि ब्रिज कोर्स की वजह से अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाई का स्तर भी गिर रहा है.

कुछ प्रोफेसर बुर्का और टोपी के बढ़ते चलन को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने और मुसलमानों से होने वाले भेदभाव से जोड़ते हैं. वो कहते हैं कि उसी घटना के बाद से ही मुसलमानों ने अपनी अलग पहचान पर जोर देना शुरू किया.

आज कैंपस में उसी का असर दिखता है. हालांकि, धार्मिकता बढ़ने का ये चलन पूरी दुनिया में दिख रहा है. इसे सिर्फ अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाए जाने से नहीं जोड़ा जा सकता.

पूरी  दूनिया में  धार्मिक कटट्टरता काफी बढ़ी है

50 के दशक में ऑक्सफोर्ड

प्रो. इरफान हबीब कहते हैं कि जब वो पचास के दशक में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे तो फ्रॉक पहनने वाली पाकिस्तानी लड़कियां भारतीय छात्राओं को पुरातनपंथी कहकर चिढ़ाती थीं. मगर आज की तारीख में सिर्फ हिदुंस्तान और पाकिस्तान में नहीं, धार्मिकता पूरी दुनिया में बढ़ रही है.

उनके मुताबिक हिंदुओं में भी धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है. समाज में कई विचार हालात के चलते पैदा होते हैं, भले ही हम उन्हें चाहें या न चाहें.

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बुर्के के बढ़ते चलन की वजह से लाइब्रेरी में बुर्कानशीनों के लिए अलग कमरे की मांग उठी. इसी तरह ब्रिज कोर्स करने वाला इसरार अली, मुसलमानों के लिए अलग राजनैतिक मंच चाहता है.

पिछली सदी के तीस और चालीस के दशक में मुसलमानों के लिए अलग इलाके की मांग हुई, जिसकी वजह से पाकिस्तान बना. आज की तारीख में एएमयू के प्रो. वाइस चांसलर रिटायर्ड ब्रिगेडियर सैयद अहमद अली शिक्षण संस्थाओं में मुसलमानों के लिए अलग से आरक्षण की मांग का अभियान छेड़े हुए हैं.

अहमद ये नहीं बताते हैं कि ओबीसी कोटे से मुसलमानों को पहले ही आरक्षण का फायदा मिल रहा है. वो मुसलमानों के बीच पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण नहीं मांग रहे हैं. वो इस्लाम धर्म को मानने वालों के लिए आरक्षण चाहते हैं.

मुसलमान अपने लिए हर चीज अलग चाहते हैं, क्योंकि इस्लाम उन्हें बाकी दुनिया से अलग कर देता है.

अब जैसे बुर्कापोशों के लिए लाइब्रेरी में अलग कमरे की मांग हुई. इसी तरह आगे चलकर बुर्का न पहनने वाली छात्राओं को भी लड़कों के साथ बैठने से रोका जा सकता है. ये सब इस्लाम की बुनियाद में है. ईरान में जो हुआ वो इसकी मिसाल के तौर पर देखा जाना चाहिए.

ईरान की इस्लामिक क्रांति से पहले महिलाएं वहां खुलेआम स्कर्ट पहना करती थीं

ईरान की इस्लामिक क्रांति

ईरान में 1979 की इस्लामिक क्रांति से पहले लड़कियां खुलेआम स्कर्ट पहनकर घूमती थीं. मगर अयातुल्ला खोमैनी की इस्लामिक क्रांति के बाद उन्हें रातों-रात बुर्का पहनने को मजबूर किया गया. हाल ही में ईरान दौरे में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भी हिजाब पहनना पड़ा था.

अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में कुछ अध्यापक बड़े फख्र से बताते हैं कि कई हिंदू छात्राएं भी बुर्का पहनती हैं. हालांकि, उनके बुर्का पहनने की वजह कुछ और ही है.

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मैंने सामाजिक विज्ञान विभाग के प्रोफेसर अब्दुल वहीद से पूछा कि ये बुर्का और टोपी पहनने का चलन, यूनिवर्सिटी को कहां ले जा रहा है? प्रो.वहीद ने बताया कि 20 और 30 के दशक में खिलाफत आंदोलन के दौरान मुसलमानों के बीच दाढ़ी रखने और टोपी पहनने का चलन तेजी से फैला था. मगर आजादी के बाद वो चलन खत्म हो गया.

यहां ये याद दिलाने की बात है कि पाकिस्तान का आंदोलन एएमयू कैंपस से ही शुरू हुआ था. यहीं पढ़े लिखे मुसलमानों ने एकजुट होकर मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग की आवाज उठाई थी.

प्रो. वहीद के ये शब्द कि बंटवारे के बाद दाढ़ी और टोपी गायब हो गए, मुझे डराते हैं. मेरे जेहन में सवाल उठता है कि क्या भारत का एक और बंटवारा होगा, तब एएमयू कैम्पस से बुर्का और टोपी गायब होंगे?

जरूरी नहीं कि ये बंटवारा जमीन का हो.