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क्या भ्रष्टाचार पर नए कानून से भ्रष्टाचारियों पर लगेगी लगाम?

प्रिवेंशन ऑफ करप्शन अमेंडमेंट एक्ट 2018 दोनों सदनों से पास करा लेने के बाद सरकार इसे भ्रष्टाचार रोकने की कड़ी में एक बड़ा कदम मान रही है

Pankaj Kumar

प्रिवेंशन ऑफ करप्शन अमेंडमेंट एक्ट 2018 दोनों सदनों से पास करा लेने के बाद सरकार इसे भ्रष्टाचार रोकने की कड़ी में एक बड़ा कदम मान रही है. सरकार का दावा है कि सिस्टम को साफ सुथरा बनाने और उसमें पारदर्शिता लाने में इस कानून से बड़ी मदद मिलेगी और कानून में मौजूद कई कड़े प्रावधान भ्रष्टाचार निवारक का काम करेंगे.

दरअसल सरकार कई प्रावधानों में फेरबदल कर और नए प्रावधान को समाहित कर ऐसा मान रही है कि प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट 2018 प्रधानमंत्री के उन दावों को पुख्ता करता है जिसके तहत उन्होंने कहा था कि भ्रष्टाचारियों को उनके कृत्यों के लिए कड़ी सजा का दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. साथ ही ईमानदार और मेहनतकश लोगों के लिए भयमुक्त वातावरण का माहौल बनाकर उन्हें बेहतर काम करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे.


प्रिवेंशन ऑफ करप्शन अमेंडमेंट एक्ट 2018 की मुख्य बातें

बिल में मौजूद कई प्रावधान जैसे रिश्वत देने वाले और लेने वालों पर आरोप सिद्ध होने के बाद सजा का प्रावधान 3 साल से 7 साल तक जुर्माने के साथ कर दिया गया है जिसके लिए पहले महज 6 महीने की सजा भर थी और अधिकतम सजा का प्रावधान 3 साल का था. इतना ही नहीं अभ्यस्त अपराधियों (Habitual Offenders) को कम से कम 5 साल और  ज्यादा से ज्यादा 10 साल तक की सजा प्रावधान किया गया है वो भी जुर्माने के साथ .

सरकार कानूनी पारिश्रमिक ( LEGAL REMUNERATION ) के अलावा किसी भी तरह के फेवर को जैसे किसी भी प्रकार का गिफ्ट, अनुचित लाभ या बुरी नियत से स्वीकार किए जाने वाले पैसे या गिफ्ट को भ्रष्टाचार की परिधि के भीतर रखा है. वहीं रिश्वत लेने वालों के साथ-साथ रिश्वत देने वालों को भी समान रूप से दोषी माना है. सरकार सिर्फ उन लोगों को सजा के प्रावधान से बाहर रख रही है जिनसे रिश्वत जबरन वसूली जाएगी और वो सात दिनों के भीतर रिश्वत दिए जाने की सूचना संबंधित विभाग को दे पाने की हिमाकत कर सकेंगे.

इस कानून में कॉरपोरेट घरानों के लिए भी सजा का प्रावधान है जिनके एजेंट और इंप्लॉय उनकी सहमति से रिश्वत देने का काम कॉरपोरेट के फायदे के लिए करेंगे. साथ ही कानून स्थापित करने वाली संस्थाएं और ताकतवर होकर गैर कानूनी संपत्ति को संलग्न और जब्त करने का काम करेंगीं. किसी भी अवैध संपत्ति रखने वाले सरकारी कर्मचारी के खिलाफ प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्डरिंग एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज किए जाने कानून है. साथ ही अवैध संपत्ति रखना ही उन्हें प्रॉसिक्यूट करने लिए प्रयाप्त कारण माना जाएगा.

किसी भी आरोपित सरकारी कर्मचारी का ट्रायल और जांच 2 साल के भीतर किया जाएगा जो कि बढ़कर अधिकतम 4 साल हो सकेगा.

इतना ही नहीं किसी भी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ जांच करने से पहले संबंधित विभाग से या फिर सरकार से उस बाबत परमिशन ली जाएगी और ऐसा सर्विस और सेवानिवृत सरकारी कर्मचारियों के साथ समान रूप से पालन किया जाएगा. इन कर्मचारियों के खिलाफ जांच करने की परमिशन 3 से चार महीने के भीतर देना अनिवार्य माना गया है.

जाहिर है सरकार मानती है कि उसके इस कदम से सरकारी कर्मचारी सशक्त होंगे जो भय के माहौल में ईमानदारी से काम करने में डरने लगे थे और उन्हें डर था कि उन्हें भी जटिल कानूनी प्रक्रिया के शिकंजे से कभी भी गुजरना पड़ेगा भले ही उनकी नीयत और निष्ठा पूरी तरह से साफ ही क्यूं न हो. इसलिए सरकार इस कदम को पॉलिसी पैरालाइसिस से बचाने में काफी मददगार मानती है.

केन्द्र सरकार में कार्यरत एक सीनियर आईएएस अधिकारी कहते हैं, ' जांच प्रक्रिया में बदला लेने के नीयत भी शामिल हो गई थी. सीबीआई की हालत सबको पता है. पहले डिसीजन मेकिंग में ज्वाइंट सेक्रेट्री और उसके ऊपर के अधिकारी के खिलाफ जांच के लिए लिए परमिशन लेने की बात थी. जिसे आर्टिकल 14 का हवाला देकर हटा दिया गया. फिर हरिश चंद गुप्ता साहब को सजा हो गई जबकि उनके खिलाफ रिश्वत लेने का कोई सबूत नहीं था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके फैसले से किसी कंपनी को लाभ पहुंचा. ठीक उसी तरह जैसे जज साहब के एक फैसले से किसी को लाभ तो दूसरे को नुकसान होता है.अगर ऐसा चलेगा फिर क्यूं कोई अधिकारी फैसला लेने की सोचेगा.'

दरअसल ये अधिकारी नए सेक्शन 17 (A) का हवाला देते हुए कह रहे हैं कि सरकारी किसी भी कर्मचारी के खिलाफ जांच करने से पहले सरकार या डिसीप्लीनरी अथॉरिटी से परमिशन लेने की बात भयमुक्त माहौल बनाने के लिए की गई है. क्योंकि कोल ब्लॉक में सजायाफ्ता हरिश गुप्ता या फिर अन्य कुछ अच्छे अधिकारियों को फैसले लेने की वजह से दंडित होना पड़ा है. खासकर तब जब न तो उनके पास आय से अधिक संपत्ति बरामद हुई न ही रिश्वत लेने का छोटा प्रमाण तक मिला.

कोल ब्लॉक स्कैम की जांच सीबीआई के द्वारा की गई. जिसमें गलत आवंटन करने का गंभीर आरोप लगा और इसकी जांच सीबीआई के द्वारा की गई. इसी जांच में तत्कालीन कोल सेक्रेटरी दोषी करार दिए गए और उन्हें जेल भी जाना पड़ा. इस फैसले के बाद ब्यूरोक्रेसी में फैसले न लेने की होड़ सी लग गई जिसे पॉलिसी पैरालिसीस का नाम दिया गया. इसलिए 13 (1) (D) को अमेंडेंड बिल से हटा दिया गया है.

वहीं वीआरएस ले चुके आईपीएस अधिकारी सचिन श्रीधर भी कहते हैं, 'सेक्शन 13 (1) (D ) का हटाया जाना स्वागत योग्य कदम है और अच्छी नियत से लिए गए फैसले भले ही गलत साबित हों पर उसके लिए किसी अधिकारी को दंडित करना पॉलिसी पारालिसीस को बढ़ावा देने के समान है.'

वो ये भी कहते हैं, ' दुनिया तेजी के साथ बदल रही है और इसे निर्णय क्षमता वाला माहौल चाहिए जो लचीला और समय के साथ बदल रहा हो. हमारे सिविल सर्वेंट्स कितने भी कुशाग्र हों वो हमेशा सीएजी, सीबीआई, कोर्ट और सीवीसी से भय में रहते हैं. अधिकारियों के साथ कई बार अन्याय भी हुआ है जो कोई छिपी हुई बात नहीं है. '

बिल के विरोध की प्रमुख बातें

लेकिन प्रिवेंशन ऑफ करप्शन बिल 2018 का विरोध करने वालों की संख्या भी कम नहीं है. ब्यूरोक्रेसी के अंदर ही आईपीएस और कई आईआरएस इसे प्रिवेंशन ऑफ करफ्शन बिल की जगह प्रोटेक्शन ऑफ करप्शन बिल 2018 की संज्ञा देते हैं.

दरअसल आर्टिकल 311 सरकारी कर्मचारी और आर्टिकल 312 में ऑल इंडिया सर्विसेज के तहत आने वाले लोगों को काफी सुरक्षा प्रदान की गई है.

एक सरकारी अधिकारी के मुताबिक, 'आर्टिकल 311 और 312 के बाद भी अतिरिक्त सुरक्षा का मतलब 100 फीसदी निश्चिंतता है जिससे उनके खिलाफ कुछ भी नहीं किए जाने की गारंटी हो. पर इससे 20 फीसदी ईमानदार भले ही कभी मुसीबत में न आएं लेकिन 80 फीसदी रिश्वतखोर बिना किसी डर के चांदी काट रहे होंगे.

केन्द्र सरकार में कार्यरत एक सीनियर आईपीएस अधिकारी कहते हैं, ' ये एक्ट कुछ स्वयंभू ईमानदार लोगों को सर्टिफिकेट देने के लिए है ताकी वो स्वछंद रूप से फैसला ले सकें. लेकिन इससे करप्ट लोगों को भी खूब मदद मिलेगी.'

दरअसल आपत्ति की वजह सभी सरकारी कर्मचारियों को इम्यूनिटी देने को लेकर है.पॉलिसी निर्धारण में कुछ लोगों का रोल होता है फिर छोटे बाबू से लेकर टॉप लेवल तक के लोगों के लिए 17 (A) के प्रावधान को लेकर गहरी निराशा भी है. सबसे पहले परमिशन लिए बगैर इनक्वायरी तक नहीं करना और फिर गलत नियत या फिर QUID PRO QUO ( किसी फैसले के एवज में कुछ पाना या लेना ) साबित करना बेहद मुश्किल होगा. और जब तक ये साबित नहीं होगा तब तक जांच की प्रकिया की अनुमति नहीं दी जाएगी. ऐसा करने से भ्रष्टाचार पर नियंत्रण हो सकेगा. इसको लेकर अधिकारियों और प्रबुद्ध लोगों में गहरी आशंका है.

एक सेवानिवृत डी.जी के मुताबिक, 'ये सच है कि 13 (1) (D) का बेजा इस्तेमाल होने की संभावना थी. लेकिन इसके तहत कितने अधिकारी पकड़े गए ये भी उंगलियों पर गिना जा सकता है.और ऊपर से 17 (A) का समावेश भ्रष्ट अधिकारी के खिलाफ जांच शुरू करवा पाने में काफी मुश्किल पेश करेगा.'

दरअसल 13 (1) (D) जो कि क्रिमिनल मिसकंडक्ट को परिभाषित करता था. इसके तहत किसी अधिकारी ने निजी लाभ के लिए या फिर जनहित के खिलाफ अपने पद का दुरुपयोग किया है तो वो क्रिमिनल मिसकंडक्ट के दायरे में आता था भले ही रिश्वत लेने का आरोप सिद्ध न हो. इसी सेक्शन के तहत कोल सकैम और टू जी में लोगों को सजा भी हुई थी. लेकिन नए संशोधन में क्रिमिनल मिस कंडक्ट को ही हटा दिया गया है. नए संशोधन में रिश्वत का प्रमाण और गलत नीयत से लिया फैसला सिद्ध करना जरूरी होगा. तभी जांच की अनुमति दी जा सकेगी. वहीं 17 ( A) के मुताबिक जांच करने से पहले सरकार अथवा हायर अथॉरिटी की परमिशन आवश्यक बताई गई है.

प्रशांत भूषण

सुप्रीमकोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के मुताबिक, 'जांच के बगैर अपराध सिद्ध कैसे होगा.और जांच के जरिए ही सबूत इकट्ठे किए जा सकते हैं. नए कानून में तो पहले सबूत देना होगा फिर सरकार जांच की अनुमति देगी. इससे भ्रष्टाचार में निवारण तो दूर इससे बढ़ावा मिलेगा. हम इस एक्ट को कोर्ट में चुनौती देंगे.'

दरअसल पहले भी सीबीआई मैन्यूअल में ज्वाइंट सेक्रेटरी और उसके ऊपर के अफसरों के खिलाफ जांच से पहले परमिशन की बात कही गई थी जिसे हवाला केस में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था. उसके बाद सीवीसी और सीबीआई के कानून में बदलाव कर ये बात लाई गई जिसे सुप्रीम कोर्ट ने फिर से रद्द किया.

सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण के मुताबिक, ' ये तीसरी दफा सरकार ऐसा प्रयास कर रही है.जो कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ है.'

इसी तरह आय से अधिक संपत्ति को लेकर बनाए गए संशोधित कानून पर भी सवाल उठ रहे हैं. संशोधित कानून में ये साबित करना होगा कि आय से अधिक संपत्ति गलत नीयत से गलत तरीके से बनाए गए हैं.

इतना ही नहीं रिश्वत देने वाले पर रिश्वत लेने वालों के बराबर मुकदमा चलाए जाने को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. दरअसल पहले ये लोग सरकारी गवाह के तौर पर सरकारी एजेंसियों की जांच में मददगार होते थे. लेकिन नए कानून में 7 दिन के बाद दोनों समान रूप से जिम्मेदार माने जाएंगे. ऐसे में रिश्वत लेने और देने वाले कभी भी एक दूसरे का भंडाफोड़ करने से हिचकिचाएंगे.क्योंकि कानून की नजर में दोनों समान रूप से दोषी करार दिए जाएंगे. नए संशोधन के बाद सीबीआई और राज्य की विजिलेंस की स्थिति में गिरावट की आशंका जताई जा रही है. ऐसा माना जा रहा है कि इनकी ताकत कम हो जाएगी क्योंकि हर जांच से पहले परमिशन लेने की कवायद सीबीआई से लेकर विजिलेंस को भ्रष्टाचारियों के गिरेबान से कोसों दूर रखेगी.