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AFSPA section 4(A): लोगों की सोच बदलने के लिए सरकार के पास है बेहतरीन मौका

यह लेख उन अपुष्ट मीडिया रिपोर्ट्स को लेकर है जिनमें कहा जा रहा है कि AFSPA के सेक्शन 4(ए) को कमजोर बनाने की कोशिश की जा रही है

Syed Ata Hasnain

मैं हमेशा मानता आया हूं कि मौजूदा परिस्थितियों में, बिना AFSPA के सेना, जम्मू-कश्मीर में काम नहीं कर सकती. जो लोग ऐसा नहीं मानते, उन्हें फिलहाल अपने चिंतन को विश्राम देना चाहिए क्योंकि मेरी ये विचारधारा लंबे समय से है. हालांकि मेरे जैसे आदमी के लिए, जिसने AFSPA के तहत मिली ताकत का इस्तेमाल सामरिक स्तर से लेकर किसी अभियान के स्तर तक किया है और भावनात्मक मुद्दों को लेकर भी खासा सक्रिय रहा है, इस विचारधारा का है कि AFSPA को लेकर कोई भी फैसला खुली बहस और विचारों के आदान-प्रदान के बाद ही किया जाना चाहिए.

यह लेख उन अपुष्ट मीडिया रिपोर्ट्स को लेकर है जिनमें कहा जा रहा है कि AFSPA के सेक्शन 4(ए) को कमजोर बनाने की कोशिश की जा रही है. इस सेक्शन के ही तहत सेना अपने किसी अभियान के तहत किसी भी संदिग्ध को मार सकती है.


क्या कहता है सेक्शन 4 (ए)?

इस तरह के एकतरफा फैसले हुए, तो भविष्य में फिर मुश्किलें सामने आ सकती हैं. जिन लोगों ने AFSPA 1958 को तैयार किया, उन्हें दोष नहीं दिया जाना चाहिए. ये एक्ट उस युग में बनाया गया था जब मानवाधिकारों को लेकर लोगों में उतनी जागरूकता नहीं थी, जितनी आज है. तब माना जाता था कि सेक्शन 4 (ए) किसी संदिग्ध को मारने की मनमानी ताकत नहीं देता है, लेकिन आज ऐसा माना जाता है कि सेक्शन 4 (ए) के मुताबिक-

‘सेना के किसी भी कमीशंड ऑफिसर, वॉरंट ऑफिसर, नॉन-कमीशंड ऑफिसर या उसके बराबर की रैंक के किसी भी सेना अधिकारी को, अगर किसी अशांत इलाके में कानून की स्थिति बनाए रखने के लिए जरूरी लगता है, तो वह पहले आवश्यक चेतावनी देने के बाद, किसी भी व्यक्ति पर गोली चला सकता है, या बल प्रयोग कर सकता है, बेशक इससे किसी की मृत्यु ही क्यों न हो जाए.’

इस लाइन कि ‘चाहे किसी की मृत्यु ही क्यों न हो जाए’, को बहुत सकारात्मक तरीके से अब तक लिया जाता रहा है. लेकिन ये लाइन इसलिए नहीं लिखी गई है कि ये किसी को मार देने का अधिकार दे देती है. बल्कि इसमें यह अर्थ सन्निहित है कि बल प्रयोग ठीक तरीके से किया जाए. वास्तविकता ये है कि कई लोगों को AFSPA की भाषा में आक्रामकता दिखती है, तो अशांत इलाकों में काम कर रहे सेना के लोगों के दिमाग में ये सोच आती ही नहीं, क्योंकि उनका पूरा ध्यान अपना लक्ष्य पूरा करने पर रहता है. इस ऐक्ट की भाषा में जो आक्रामकता है, उसका गलत ढंग से इस्तेमाल भी खूब हुआ है, खासकर भारत और भारतीय सेना को बदनाम करने की देशद्रोही ताकतों की ओर से. कोशिश होती है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को बदनाम किया जा सके कि ये देखो भारत में कैसे बेरहम कानून हैं.

AFSPA पर फैसले लेना भारतीय सेना की ट्रेनिंग का अहम हिस्सा

लेकिन सच बात ये है कि AFSPA में बेरहमी जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि इसके इस्तेमाल में कोई तानाशाही नहीं बरती जाती, फैसला करने से पहले परिस्थिति की जांच-परख करना भारतीय सेना की ट्रेनिंग का अहम हिस्सा है. लेकिन अगर सैनिकों की बेहतरी के लिए इस ऐक्ट के कानूनी दांव-पेंच में कुछ संशोधन किया जाता है, तो इसे लेकर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए. इस मौके का इस्तेमाल केंद्र सरकार को होशियारी से कुछ इस तरह करना चाहिए कि AFSPA को लेकर जो गलत तस्वीर सरकार और भारतीय सेना को बदनाम करने के लिए बनाई जा रही है, वह कोशिश बेकार हो सके.

सन 1958 से, खासतौर पर 1990 से, जब दुनिया भर में मानवाधिकारों की हिफाजत करने वालों की बाढ़ सी आई, भारत सरकार, भारतीय सेना और सुप्रीम कोर्ट, ये तीनों देश के भीतर होने वाले झगड़ों और संघर्षों के संदर्भ में मानवाधिकारों को लेकर कदम उठाते रहे हैं. 1993 में तो सबसे पहले भारतीय सेना ने अपने हेडक्वार्टर में मानवाधिकार सेल खोल दिया. इसके बाद कॉर्प्स हेडक्वार्टर में सेनाधिकारियों की पोस्टिंग होनी शुरू हुई और बाद में राष्ट्रीय राइफल्स फोर्स हेडक्वार्टर्स में भी तैनातियां होने लगीं. ये सब सिर्फ इसलिए कि मानवाधिकार के दृष्टिकोण से सेना की भूमिका साफ बनी रहे.

इस सिस्टम से, जिसमें मानवाधिकार को सैन्य अधिकारियों की ट्रेनिंग का अहम हिस्सा बनाया गया, अधिकारियों को संवेदनशील बनाने में बड़ी मदद भी मिली है. 1994 में तो नॉर्दर्न कमांड के मुख्यालय ने बाकायदा एक मानक या पैमाना, ‘स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर’ तैयार किया, जिसे विभिन्न अभियानों के लिए समय-समय पर तराशा जाता रहा है. सेना की टुकड़ियों को स्पष्ट आदेश दिए गए कि उन घरों में, जिनमें महिलाएं मौजूद हों, घर की तलाशी तभी लें, जब सेना के साथ महिला पुलिसबल मौजूद हो, या फिर कोई पादरी या मौलाना.

इसी तरह आम लोगों के घरों में तलाशी के लिए अलग से निर्देश भी जारी किए गए. 1997 में सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी के बाद ऐसे निर्देशों का एक सेट भी जारी किया गया, जिसमें बताया गया था कि सेना को तलाशी या ऐसे किसी दूसरे अभियान के समय क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए. इनमें यह बात भी शामिल है कि जब सेना सर्च ऑपरेशन शुरू करे, तो स्थानीय नागरिक प्रशासन और पुलिस के लोगों को भी अपने साथ रखे.

मिलिटरी-सिविक परियोजना

हालांकि कुछ ऐसे मौकों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सेना को छूट भी दी है, जहां तलाशी के वक्त स्थानीय प्रशासन के लोगों का तुरंत आ पाना मुमकिन न हो. 1993 में तो अशांत क्षेत्रों में सेना के कामकाज के तरीके पर उस समय के सेनाध्यक्ष ने सेना को निर्देश भी जारी किया था. बाद में इन निर्देशों को ‘टेन कमांडमेंट्स’ के नाम से भी जाना गया. इन दस निर्देशों के आधार पर कई और निर्देश भी सेना के कमांडर्स को दिए गए. 1997 में तो सेना ने ‘मिलिटरी-सिविक एक्शन’ परियोजना के तहत ‘ऑपरेशन सद्भावना’ को भी आधिकारिक तौर पर अपना लिया. इसके तहत कोशिश थी कि अशांत इलाकों में सेना स्थानीय लोगों का दिल भी जीते और अपने अभियानों में वहां के लोगों को अपने साथ लेकर भी चले.

सेना की ओर से ऐसे लोगों को पहचानकर अपने साथ लेकर चलने का काम तो जारी है ही, वह ये भी सुनिश्चित करती चलती है कि स्थानीय लोगों का सेना पर इतना यकीन बना रहे कि वे लोगों की बेहतरी के लिए काम कर सकें. देश के अशांत इलाकों में ऑपरेशन सद्भावना, इसके लिए मुहैया कराए गए फंड और सेना की ओर से शुरू किए गए भाईचारे की मुहिम का बड़ा मानवीय असर पड़ रहा है.

खासी संख्या में सेना के गुडविल स्कूलों की मौजूदगी, मेडिकल और वेटरिनरी कैंपों में स्थानीय लोगों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण का बहुत सकारात्मक असर पड़ा है. दरअसल ये कदम आतंक के खिलाफ शुरू किए गए अभियानों का ही हिस्सा हैं. 2011 में सेना ने ऑपरेशन सद्भावना से एक कदम और आगे जाकर ‘हार्ट्स डॉक्टरीन’ अपनाया और इसके तहत जम्मू-कश्मीर में काम करने वाले हर फौजी को मानवाधिकारों के प्रति जागरूक करने का बीड़ा उठाया.

अब ये सर्वोच्च स्तर पर फैसले लेने वालों पर निर्भर करता है कि AFSPA मे संशोधन करते वक्त वे एक परिशिष्ट जरूर डालें, जो एक्ट की शब्दावली का ही हिस्सा हो. इस परिशिष्ट में वे सारे तथ्य होने चाहिए, जिनकी चर्चा ऊपर हमने अभी की है. कोशिश ये हो कि जो भी शख्स AFSPA को पढ़े, वह ये भी समझे कि देश की सरकार और इसके संस्थान किस तरह बड़ी शिद्दत के साथ मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं और इन मूल्यों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध भी हैं. ऐसा हो तो शायद मानवाधिकारों को लेकर सेना पर लगाए रहे झूठे आरोपों की कलई भी खुले.

(लेखक सेना से रिटायर्ड लेफ्टिनेंट-जनरल हैं. साथ ही 15 और 21 कॉर्प्स के जनरल कमाडिंग ऑफिसर भी रह चुके हैं)