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आरुषि मर्डर केस: क्लासमेट की जुबानी आरुषि की कहानी

आरुषि के क्लासमेट ने उस दिन की कहानी बताई, जब उसे अपनी दोस्त की मौत का पता चला था

FP Staff

फर्स्टपोस्ट ने आरुषि के कुछ बैचमेटस् से मुलाकात की. दिल्ली पब्लिक स्कूल, नोएडा के इन बैचमेटस् में से ज्यादातार ने कुछ भी कहने से साफ मना कर दिया. उनका तर्क था कि हम लोग जांच-परख करने वाले सवालों से तंग आ चुके हैं, इससे हमारा मन बेचैन होता है. आखिरकार आरुषि के एक बैचमेट ने अपना नाम-पहचान न जाहिर करने की शर्त पर फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि भयावह अपराध के साये में उम्र के पड़ावों को लांघते हुए दर्द के इस सफर से गुजरना उसके लिए कैसा साबित हुआ.

हम आठवीं क्लास के कुछ साथी 16 मई, 2008 से ठीक एक दिन पहले तफरीह के खयाल से ग्रेट इंडिया प्लेस मॉल जाने की योजना बना रहे थे. अगली सुबह, लाइब्रेरी जाने का वक्त था कि आरुषि के कुछ क्लासमेट्स हड़बड़ी में पहुंचे और खबर दी कि आरुषि नहीं रही. हमारी रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गई और हम अपनी सीट पर बर्फ की मानिंद मानो जम से गए. उस वक्त हमें यही लगा कि उसकी स्वाभाविक मौत हुई है.


उसी रोज, हममें से कुछ छात्रों का एक छोटा सा ग्रुप मातमपुर्सी (शोक-संवेदना) के लिए उसके घर गया. हमने देखा कि वहां पुलिस की गाड़ी, ओबी वैन, अफरा-तफरी से भरे रिपोर्टर, कैमरापर्सन और तमाशबीनों का जमघट लगा है. हमें अब भी इस बात का कोई अता-पता नहीं था कि आखिर माजरा क्या है. ज्यादा करीब पहुंचने पर हमने वहां जमा लोगों को ‘मर्डर हुआ है, मर्डर किसने किया है’ जैसे जुमले में बात करते सुना. कोई अनहोनी हुई है, यह अहसास अब हमारे भीतर गहरा होता जा रहा था.

और तभी हमें एक खौफनाक मंजर नजर आया, हमने देखा कि आरुषि के परिवार के लोग उसकी देह को एक बड़े से एम्बुलेंस में ले जा रहे हैं. उसकी देह सफेद कपड़ों में लिपटी थी, हमें उसका चेहरा नजर आ रहा था. हमने उसे तकरीबन 100 मीटर की दूरी से देखा. मैं कहूं कि मुझे सदमा लगा तो शायद यह अपनी हालत को बयान करने के लिए कम होगा. हम किशोर लोगों के साथ यह पहला वाकया था जब हमने देखा कि हमारी एक हमउम्र दोस्त की मौत हो चुकी है.

आरुषि की मौत पर यकीन ना कर सका

उस रात अपने माता-पिता को हमने इस वाकये के बारे में बताया. फिर हमने टेलीविजन ऑन किया, हमें पता चला कि दरअसल आरुषि की हत्या हुई है और उसका घरेलू सहायक हेमराज गायब है. मुझे सोने में परेशानी हुई. नींद आने में परेशानी सिर्फ उसी रात नहीं बल्कि पूरे हफ्ते तक जारी रही. आरुषि के चेहरे का दृश्य, टीवी के पर्दे पर छन-छनकर आते विजुअल्स जैसे कि सीढ़ियों पर लगे खून के निशान या फिर छज्जे की दीवार पर उभरा लाल पंजे का निशान...ये सारे खौफनाक दृश्य मेरे मन में घुमड़ते रहे. सवेरे उठने के वक्त मेरे मन में तनाव रहता था, उठने के साथ पहला काम रिमोट तलाशने का था ताकि सवालों के जवाब ढूंढ़े जा सकें.

जब घरेलू सहायक की लाश घर के छज्जे पर मिली तो मामले में सबसे निर्दयी मोड़ आया, यह आशंका उभरी कि उसके मां-बाप ने उसे मारा होगा. ऐसे में स्कूल की उस बिल्डिंग में हमें एक नए किस्म का भय सताने लगा. सीबीआई या फिर मीडिया जो कहानी सुना रहे थे उनपर हममें से किसी को यकीन नहीं था. हमें यह कतई यकीन नहीं था कि मां-बाप उसके हत्यारे होंगे क्योंकि वे किसी और बच्चे के मां-बाप की ही तरह अपने बच्चे से प्यार करने वाले और उसकी फिक्र करने वाले लगते थे. हमलोग उन्हें हमेशा ही पीटीए मीटिंग (शिक्षक और अभिभावक की बैठक) में शिरकत करता देखते थे. वे आरुषि को घर ले जाने के लिए स्कूल आते तो भी हमारी नजर उनपर पर पड़ती थी. हमें इस बात का भी यकीन नहीं था कि उसके घरेलू सहायक के साथ यौन-संबंध होंगे क्योंकि वह बहुत आकर्षक लड़की थी और कई लड़के उसपर लट्टू थे.

मुझे याद आता है कि लगभग दो हफ्ते के बाद सीबीआई और पुलिस दोनों ने हमारे क्लासमेट्स को अपनी जांच में शरीक करना शुरु किया. पुलिस ने उसके फोन को खंगालकर नंबर निकाले थे और मुझे याद है कि जिन क्लासमेट्स को सीबीआई के कॉल्स आए उन्होंने हमें अपने डरे होने की बात बताई थी. ऐसे कई क्लासमेट्स ने तो अपना फोन हफ्तों तक बंद रखा. मैंने भी अनजाने नंबर से आने वाले कॉल्स के जवाब देने बंद कर दिए थे. जरा कल्पना कीजिए कि जब किसी बालिग इंसान को सीबीआई का फोन आता है तो भले ही यह फोन किसी बात की पुष्टी के लिए हो लेकिन उसे चिंता होने लगती है. लेकिन हमारे ये साथी तो अभी नाबालिग थे. उन लोगों ने एक-दूसरे के बीच पूछताछ शुरु कर दी और हमारे बीच कानाफूसी चलने लगी कि किसे फोन आया है और किसे नहीं आया है. अब यही हमारी बातचीत का मुद्दा बन गया जबकि चंद रोज पहले हम आपसे में वीडियो गेम्स, फिल्म या फिर फुटबॉल के बारे में बात करते थे.

रिपोर्टिंग लगातार जारी थी लेकिन रिपोर्टिंग में किसी किस्म का मेल नहीं था और कत्ल की शिकार हुई अपनी क्लासमेट के बारे में हम ऐसी बेमेल रिपोर्टिंग से मायने नहीं निकाल पा रहे थे लेकिन हम आरुषि के बारे में सोचने से अपने को रोक भी नहीं पा रहे थे. सीबीआई के अलावा, मीडिया के लोग भी कोशिश में लगे थे कि हमारे स्कूल को कोई भी मिल जाए तो उससे वाकये के बारे में बात शुरु कर दें. ऐसे में हम अगर अपनी जिंदगी की राह पर आगे बढ़ना चाह भी रहे थे तो हमें इसकी इजाजत नहीं थी. शोर बहुत ज्यादा हो रहा था लेकिन उसमें तुक की बात एक ना थी.

फैसले से हुआ राहत का अहसास

मुझे याद है, हमारे शिक्षक हमें समय-समय पर सलाह देते रहते थे, बताते थे कि अपने को मजबूत बनाए रखना है. हमें दिख रहा था कि शिक्षक भी घटना के असर में हैं, वे तनाव में दिखते थे. धीरे-धीरे हमारे शिक्षकों ने वाकये के बारे में जिक्र करना बंद कर दिया, कम से कम अब वे हमारे सामने ऐसा कोई जिक्र नहीं चलाते थे. हर कोई पूरी कोशिश में लगा था कि जिंदगी आम ढर्रे पर चली आए. हर कोई- शिक्षक और अभिभावक ऐसा बरताव कर रहा था मानो कुछ भी गलत नहीं हुआ हो. जैसे ही मामले को लेकर कोई नई खबर आती हम, उस खबर की रोशनी में हर संभावना पर सोच-विचार करने लग जाते.

उसके बहुत करीब रहे कुछ साथियों ने हमें एक कैंडल-मार्च के लिए जंतर-मंतर पर बुलाया. यही वह पहला मौका था जब हममें से ज्यादातर छात्र किसी सार्वजनिक विरोध-प्रदर्शन में शरीक हुए. हमें लगा कि दुख और शिकायत की इस घड़ी में हम एकजुट हैं. हम सब उस लड़की के लिए इंसाफ चाहते थे जो हमारे बीच की थी और अब कभी हमें नजर नहीं आएगी. हम एक ऐसी उम्र में पहुंच चुके थे कि मां-बाप की देखरेख के बिना, खुद अकेले फिल्म देखने चले जाते थे. सेलफोन के हम सब नए-नवेले मालिक बने थे और दोस्ती के करीबी दायरे बनाने में जुट गये थे. हमारे लिए जो मस्ती और आजादी का वक्त होता उसकी हंसी-खुशी के बीच हमें आरुषि की कमी अखरती थी. वह पढ़ाई लिखाई में अव्वल दर्जे की स्टूडेंट थी, खेल-कूद में भी अच्छी थी और जहां तक मुझे याद आता है, वह अच्छी डांसर भी थी.

धीरे-धीरे सदमे का भाव कमजोर पड़ने लगा, हमने आरुषि के बगैर ही स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली. लेकिन दर्द भरे रहस्य का एक भाव अब भी मन में बना हुआ है. आज जब खबरों से अदालत के फैसले के बारे में पता चला तो मेरे मन में दो बातें उठीं. एक तो राहत का अहसास जागा कि चलो आरुषि की हत्या उसके मां-बाप ने नहीं की थी. दूसरे, मुझे यह भी लगा कि सीबीआई ने अपनी तरफ से मामले को सुलझाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाया, किताबें लिखी गईं, फिल्म बनी और पत्रकारों ने अनगिनत लेख लिखे लेकिन इस सबके बावजूद हमारी दोस्त की मौत को लेकर अभी पूर्णविराम लगना बाकी है. बड़ी नाइंसाफी की बात है कि समाज ने हमसे हमारी मासूमियत तो छीन ली लेकिन उसने अब भी हमें यह जानने से वंचित कर रखा है कि उस रात दरअसल आरुषि के घर में हुआ क्या था. हम सब एक अवसाद भरे रहस्य के भीतर बड़े हुए और शायद हमें इस रहस्य के साये में ही जीना होगा.

(पल्लवी कामाक्षी रेब्बाप्रगडा के साथ स्टूडेंट की हुई बातचीत पर आधारित)