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सिर्फ जवान ही नहीं, किसान की जंग भी भारत की जंग है

जंतर मंतर पर बैठे किसान सरकार से अपने हक की मांग कर रहे हैं

Pallavi Rebbapragada

‘जय जवान जय किसान’

-लाल बहादुर शास्त्री, 1965


क्या अंतर होता है देश के लिए मरने में और देश की वजह से मरने में? दोनों परिस्थितियों में लोग अपना जीवन खो देते हैं और परिवार हमेशा के लिए टूट जाते हैं. लेकिन किसान की क्रांति जवान की क्रांति की तरह नहीं होती क्योंकि उसमें देशभक्ति का सार नहीं घुला होता,कहीं तिरंगा नहीं झुकाया जाता और तोपों की सलामी की आवाज नहीं उठती.1995 से 2013 तक 2,96,438 किसानों ने गरीबी और भुखमरी से मजबूर होकर आत्महत्या जैसा कदम उठाया. 2016 के इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार भारत के 17 प्रदेशों में पांच लोगों वाले किसान परिवारों की सालाना औसत आय 20,000 है.

पिछले महीने मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में एक अजीब घटना घटी. कर्ज माफी की मांग करते 6 किसानों को पुलिस की गोलियों ने ढेर कर दिया. गृह मंत्रालय में दर्ज की गई एक रिपोर्ट के अनुसार इन विरोधियों ने महोऊ-नीमुच हाईवे पर 25 ट्रक और दो पुलिस की गाड़ियों में आग लगा दी थी.

दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए कृषि प्रदर्शन ‘मै भी किसान की संतान’ में मृत किसानों की तस्वीरों पर हार चढ़े हुए थे और उन्हें कविताओं और नारों में भगत सिंह और मंगल पांडे से जोड़ा जा रहा था. इनके शहीद होने का यह असर हुआ की मंदसौर में एक किसान मुक्ति संसद बनाई गई और 6 जुलाई से एक किसान मुक्ति यात्रा शुरू की गई जिसमें देश के कोने-कोने से किसान अब हिस्सा ले रहे हैं.

सी.पी.एम के कृषि विभाग अखिल भारतीय किसान सभा ने इस मोर्चे को सहयोग करते हुए कहा ‘हम 300 संस्थाओं से जुड़े हैं और नीयेमित तौर से कृषिकर्म करती महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के निर्माण के लिए काम करते हैं.’ नेता सीताराम येचुरी भी मंच पर आए और स्वराज के योगेंद्र यादव और नर्मदा बचाओ आंदोलन शुरू करने वाली मेधा पाटकर का साथ दिया.

मंदसौर से आए किसानों ने फर्स्टपोस्ट को बताया, ‘हम 500 लोगों की तादात में मंदसौर से आएं हैं अपने उन साथियों के लिए जो पुलिस की गोलियों में शहीद हुए थे और उस किसान के लिए भी जिसे थाने ले जाकर लाठियों से मारा गया था. अब हम अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं. सरकार ने हमारी बात अभी तक नहीं सुनी है. हमारी मांग है कि हमारी उपज का सही दाम दिया जाए और स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू की जाए जिससे पैदावार की लागत से 50 प्रतिशत अधिक मुनाफा सुनिश्चित किया जा सके’.

गरीबी और लाचारी से जन्म लेती है क्रांति

एक तरफ सड़कों पर भगत सिंह, मार्क्स और लेनिन पर लिखी किताबें बिक रहीं थी, वहीं पेड़ों पर आंबेडकर की तस्वीरें लटकी हुई थीं. मंच पर लगे लाउड स्पीकर्स से यह नारा सुनाई पड़ा: ‘अब सिसक-सिसक के मरने का वक्त चला गया है. और उठकर लड़ने का वक्त आ गया है. दुख को छोड़ दो और उठकर हक के लिए लड़ो’

पंजाब के सांसद धर्मवीर गांधी भी मंच पर दिखे. उनका कहना था कि ‘पिछले तीन महीनों में 150 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है और लगभग तीन लाख लोग अपनी जान खो बैठे हैं क्योंकि सरकार की कृषि-संबंधित नीतियां बेजान हैं’. वो यह पूछते हैं कि आज भी छोटे-बड़े व्यवसायी खुद ही कृषि उपज का दाम क्यों तय कर लेते हैं. किसान को न्यूनतम मूल्य की ढाल क्यों नहीं मिलती? गांधी ने केंद्र सरकार पर पूंजीवादियों के झुकाव में फैसले लेने का आरोप लगाया.

सी.पी.एम के जनरल सेक्रेटरी येचुरी ने जनता को याद दिलाया की भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने लेजिस्लेटिव असेंबली पर बम फेंका था और आज का किसान भी सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रही है. जे.डी.यू के सांसद शरद यादव भी वहां आए. उन्होंने किसानों को आश्वासन दिया कि संसद में किसानों के मुद्दों पर आवाज उठाई जाएगी.

हर राज्य की अलग कहानी है

गुजरात से आए 1,000 किसानों का कहना था कि उसने मृत किसानों के मुआवजे के लिए सर्वोच्च अदालत में याचिका पेश की लेकिन सरकार ने इस मामले में कोई फैसला नहीं लिया. ‘1998 में गुजरात में लगभग एक करोड़ 11 लाख किसान थे और आज केवल 58 लाख ही बचे हैं. नर्मदा का पानी खेत में मिलता नहीं और 2012 में अंदर अकाल पड़ा फिर भी मुआवजा नहीं मिला. हमारा मोदी से यह कहना की अगर जवान बॉर्डर पर शहीद होता है तो किसान खेतों में शहीद होता है. उनकी आवाज भी सुनी जाए’.

किसान आंदोलन में उत्तर प्रदेश से भी कई किसान आए. उन्होंने राज्य सरकार की नीतियों का खुलकर विरोध किया. यूपी से आए किसानों ने कहा‘आपने (योगी आदित्यनाथ) वादा किया था की 23 अप्रैल तक किसानों को चीनी मिलों से उनका भुगतान मिल जाएगा. लेकिन कई मिलें ऐसी हैं जो नई मिलें होते हुई भी इस वादे पर खरी नहीं उतरीं.

प्रधानमंत्री मोदी जी ने लोकसभा चुनाव के समय स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने का वादा किया था. इस रिपोर्ट में सी-2 कोस्ट और सी-3 कोस्ट का प्रावधान है. इस योजना से किसानों को लाभ होगा. हमें क्रेडिट नहीं इनकम चाहिए. आसानी से लोन की व्यवस्था नहीं चाहिए पर ऐसे हालात चाहिए जिनमें हमें लोन लेने की आवश्यकता ही न पड़े’.

एक दिल दहलाने वाला सच

शोरगुल के बीच तमिलनाडु के किसान तन पर केवल हरे रंग के कपड़े लपेटे कंकालो और हड्डियों के बीच हाथों में बेड़ियां पहने दिखाई दिए. उन्होंने कहा ‘हमने 14 मार्च से 23 अप्रैल तक अपने राज्य में एक आंदोलन चलाया था जिसमे कावेरी के पानी की उपलब्धि से लेकर बूढ़े किसानों को पेंशन देने तक की मांग की थी. सरकार नें हमारी सुनी नहीं और इसीलिए हम दिल्ली में प्रधानमंत्री तक अपनी तकलीफों पहुंचाना चाहते हैं. हमारा हौसला अब टूट चुका है’.

इसी झुंड में लक्ष्मी नाम की एक महिला अपने मृत पति के कंकाल को पकड़कर बैठी हुई थी. कैसा जीवन होगा उस विधवा का जो अपने पति की खोपड़ी को एक डब्बे में डालकर तमिलनाडु के एक छोटे से गांव से लेकर दिल्ली आई होगी.यदि उसका पति सेना का शहीद जवान होता को क्या वह इसी तरह एक विरोध प्रदर्शन में सड़क के किनारे बैठी होती? शायद जवाब किसी के पास नहीं है, न सरकार के पास, न राष्ट्रवादियों के पास और न ही खुद को लिबरल बुलाने वालों के पास.

लक्ष्मी को दिल्ली के जंतर-मंतर पर शहीद की विधवा बुलाया जा रहा था. वहां पर जमा हुए किसानों का कहना था कि अब यह लड़ाई टुकड़ों में नहीं लड़ी जा सकती. संगठित होकर एक ऐसा आंदोलन चलाने का वक्त आ गया है जिसके बारे में सुनकर लोगों में वही जज्बात और वही आक्रोश पैदा हो जो देशभक्ति में होते हैं.