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आरा में महिला को निर्वस्त्र घुमाने वाले 'भाइयों' को जवाब देना होगा

अगर हर भाई को अपनी बहन को कोई तोहफा देना हो तो सिर्फ यही दे कि कम से कम औरत को इंसान समझे. नाक का सवाल नहीं. और अगर वो ऐसा नहीं कर सकते तो हर बहन को बिगुल फूंकना चाहिए

Rimmi

देखते देखते कल राखी भी खत्म हो गई. अब भारत में तो सभी को पता है कि राखी कौन सा त्योहार है. तो राखी खत्म हो गई. भाइयों द्वारा बहनों की रक्षा करने का संकल्प लेने वाला त्योहार राखी. बहन को इंसान नहीं जिम्मेदारी समझने वाला त्योहार राखी. हर घर में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला त्योहार राखी.

खैर राखी का तो एक साल से पता था कि 26 अगस्त को ही आनी है. लेकिन राखी आने के ठीक एक हफ्ते पहले देश में दो फोटो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई.


पहली तस्वीर थी बिहार के आरा जिले की बिहिया से. यहां एक महिला को सरे बाजार निर्वस्त्र सड़क पर घुमाया गया. पूरे रास्ते पर लड़कों का हुजूम था. उनमें तमाशबीन भी थे और संस्कृति के ठेकेदार भी.

दूसरी तस्वीर थी एक बच्ची और उसकी दादी की. कहा गया कि वो बच्ची स्कूल की तरफ से वृद्धाश्रम गई थी वहां उसे अपनी दादी दिख गईं. वो दादी जिनके बारे में पूछने पर बच्ची के पापा कहा करते थे कि वो रिश्तेदार के घर रहने चली गई हैं. लेकिन इस सच्चाई को हम भूल गए कि आखिर उस महिला के पास रास्ते कया थे? वृद्धाश्रम जाने के अलावा कोई और रास्ता क्या उनकी जान के लिए सुरक्षित था? अगर वो अकेले रहने का फैसला लेतीं तो रोज इस डर में मरती कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए. वो बीमार पड़ेंगी तो देखभाल कौन करेगा. वृद्ध समझकर कहीं कोई उन पर हमला न कर दे.

हां तो ये तो आप सभी को पता ही है. फिर आखिर मैं क्यों आज हफ्ते पुरानी बात दोहरा रही हूं?

तो बात ये है कि समाज का चाल चरित्र और चेहरा रोज हमारे सामने खुलता है. एकबार फिर यही खुलासा हुआ है. बस राखी से जोड़कर इसलिए लिख रही हूं क्योंकि ये इकलौता ऐसा त्योहार है जिसमें लड़की की जरूरत होती है. बहन न होगी तो भाई आखिर किसकी रक्षा करेंगे? बहन न होगी तो आखिर भाई को अपने भाई होने का एहसास कैसे होगा?

चलिए तो अब दोनों तस्वीरों पर फिर से लौट चलते हैं. दूसरी तस्वीर जब सोशल मीडिया पर वायरल हुई तो लोगों ने वृद्ध महिला के बेटे बहू की लानत मलामत करने में सेकेंड नहीं लगाए. संस्कार, संस्कृति की दुहाई देने लगे. नैतिकता अनैतिकता का पाठ पढ़ाने लगे. सभी के पास एक ही सवाल था कि आखिर कैसा समाज बना रहे हैं हम? हालांकि ये खबर बाद में पुरानी निकली और अब जो खबर आई उसमें पता चला कि दादी पोती सभी खुश हैं. एक साथ हैं.

वहीं जब पहली तस्वीर वायरल हुई तो भी लोगों ने विरोध किया. किसी ने दबी जुबान में, किसी ने खुलकर. मेरे ज्यादातर दोस्तों ने इसका विरोध ही किया. लेकिन उस महिला के बारे में जैसे ही ये सच्चाई सामने आई कि वो एक डांसर थी और वेश्यावृति में लिप्त थी कईयों के सुर बदल गए. किसी महिला को सरे बाजार निर्वस्त्र करके परेड कराने में भी लोगों को अनैतिक नहीं लगा.

क्या हमारी सोच दोगली हो गई है?

बस यहीं हमारी दोगली सोच सामने आ गई. एक महिला को जब दिन के उजाले में भरे बाजार के सामने नंगा करके घुमाया जा रहा था तो संस्कृति के उन तथाकथित ठेकेदारों को अपनी मर्दानगी दिखाने का मौका दिख रहा था. वहीं उस पूरे रास्ते पर खड़ी सैंकड़ों तमाशबीनों की वो भीड़ इसे, दूसरे के मामले से हमें क्या, सोचकर अपना पल्ला झाड़ रही थी.

इसी भीड़ में मौजूद और महिला के कपड़े फाड़ने वाली भीड़ में मौजूद 'मर्दों' ने भी अपनी सगी, दूर की या फिर मुंहबोली बहनों से राखी बंधवाई होगी. तमाशबीन बने सैंकड़ों लोगों के साथ भी यही सच्चाई होगी. कल उनकी भी कलाई राखियों से सजी होगी. और बहुत मुमकिन है कि ज्यादातर ने अपनी बहन के साथ या फिर राखी भरी अपनी कलाई को दिखाते हुए पूरे स्वैग में सोशल मीडिया पर अपनी फोटो डाली होगी.

लेकिन उनमें से एक भी इंसान की आंख में इस बात की रत्ती भर भी शर्म नहीं होगी कि इधर एक महिला की रक्षा का संकल्प ले रहे ये लोग वही कमजोर, मुंहचोर, बुजदिल और काहिल लोग हैं जो किसी भी महिला के कपड़े फाड़ने, किसी की इज्जत तार करने या होते देखते हैं तो काठ बनकर खड़े रहते हैं या फिर उसका हिस्सा बन जाते हैं.

इन्हें जरा भी ये शर्म नहीं आती कि कोई महिला अगर वेश्या है तो उसका ग्राहक एक 'मर्द' ही होता है. किसी महिला का अगर रेप होता है तो रेपिस्ट 'मर्द' ही होता है. जिस वृ्द्धा और बच्ची की रोती हुई तस्वीर देख जो समाज, संस्कृति और संस्कार की दुहाई देने लगता है, मौका पड़ने पर वही समाज, उसी सुसंस्कृत समाज का कोई बाशिंदा उस बूढ़ी औरत का रेप कर देता है. या फिर उस छोटी बच्ची को अपनी हवस का शिकार बना लेता है.

जब सात साल की छोटी उम्र की बच्चियों से देह व्यापार कराने वाला आरोपी कानून पर ठहाके मारकर हंसता है और सारे तथाकथित संस्कारी भाई आंखें फाड़े देखते रहते हैं. कोई निर्भया दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में सड़क पर नंगी खुन से लथपथ दिखती है. कोई बच्ची मंदिर में गैंगरेप का शिकार होती है और इसकी हड्डियां तक बेरहमी से तोड़ दी जाती हैं.

ये राखी त्योहार नहीं हमारे समाज का एक और ढोंग है, जिसमें लड़की को उसकी औकात बताई जाती है कि भाई छोटा हो या बड़ा, रहना उसे भाई के नीचे ही है. रक्षा भाई ही करेगा. क्योंकि इज्जत और नाक का सवाल हमेशा लड़की ही रहेगी. ऐसे घटिया समाज पर लानत है.

भाई बहन के प्यार को दिखाने के लिए किसी दिन की जरूरत नहीं होती. इसलिए अब अगर हर भाई को अपनी बहन को कोई तोहफा देना हो तो सिर्फ यही दे कि कम से कम औरत को इंसान समझे. नाक का सवाल नहीं. और अगर वो ऐसा नहीं कर सकते तो हर बहन को बिगुल फूंकना चाहिए.

हर लड़की को इस इरादे के साथ खड़े होना चाहिए कि कल जो औरत सड़क पर निर्वस्त्र घुमाई जा रही थी वो भी किसी की बहन है. जिन बच्चियों को हैवानियत का शिकार बनना पड़ता है वो भी किसी की बहनें होती हैं. इसलिए जबतक कोई भी औरत इस समाज में बेइज्जत किसी 'भाई' की वजह से होती है तबतक हम बहनें भाई से रक्षा का संकल्प नहीं दिलवाएंगी बल्कि उन्हें उनका फर्ज याद कराएंगी.