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#MeToo: शर्मीले और अक्खड़ पत्रकार एमजे अकबर कब 'शिकारी' बन गए?

अगर कोई शख्स गलत व्यवहार करे और उसी वक्त उसके मुंह पर जोरदार तमाचा पड़ जाए, तो संभव है कि उस व्यक्ति को भविष्य का हैवान बनने से रोका जा सकता है

Bikram Vohra

#MeToo कैंपेन की जद में आकर विदेश राज्य मंत्री की कुर्सी गंवाने वाले एमजे अकबर के प्रति लोगों का नजरिया काफी बदल गया है. देश के तमाम बड़े अखबारों और कई नामचीन पत्रिकाओं (मैगजीन्स) के संपादक (एडिटर) रह चुके अकबर के चरित्र का नया पहलू सामने आने के बाद से लोग हैरत में हैं. अकबर के साथ काम कर चुके कई पत्रकारों को यकीन ही नहीं हो रहा है कि एक शर्मीला और सिर्फ अपने काम से मतलब रखने वाला शख्स कैसे एक यौन शिकारी में तब्दील हो गया.

अकबर पर अबतक तकरीबन 30 महिला पत्रकार दुर्व्यवहार और यौन शोषण के आरोप लगा चुकी हैं. आरोप लगाने वाली महिलाओं में नया नाम पल्लवी गोगोई का है. अमेरिका में रहने वाली भारतीय मूल की महिला पत्रकार पल्लवी गोगोई ने अकबर पर रेप का आरोप लगाया है. पल्लवी गोगोई ने वॉशिंगटन पोस्ट अखबार में लेख लिखकर अपनी आपबीती सुनाई. पल्लवी ने बताया कि 23 साल पहले जब वह एक अखबार में अकबर के मातहत काम करती थीं, तब अकबर ने उनके साथ रेप किया था.


अकबर ने पेश की सफाई 

पल्लवी गोगोई के आरोपों पर एमजे अकबर अपनी सफाई पेश कर चुके हैं. अकबर ने कहा कि पल्लवी गोगोई के रेप के आरोप निराधार और झूठे हैं. साल 1994 के आसपास पल्लवी गोगोई और उनके बीच आपसी सहमति से संबंध बने थे. यह संबंध कई महीने तक जारी रहा. बाद में दोनों की राहे जुदा हो गईं थीं. हालांकि अकबर ने यह जरूर माना कि अलगाव के वक्त दोनों के दिल में तल्खी थी.

लेकिन पल्लवी गोगोई ने अकबर के दावों को सिरे से खारिज कर दिया है. अकबर पर पलटवार करते हुए पल्लवी ने कहा है कि उन्होंने अकबर से रिश्ते सहमति से नहीं बनाए थे. पल्लवी के मुताबिक, जोर-जबरदस्ती, शक्ति के दुरुपयोग और रुतबे के रौब के चलते उन्हें अकबर के साथ संबंध बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा था. लिहाजा उसे सहमति से बने संबंध नहीं माना जा सकता है. पल्लवी ने कहा कि, अकबर ने उनका यौन शोषण और उत्पीड़न किया था. वह वॉशिंगटन पोस्ट अखबार में उनके हवाले से छापे गए हर शब्द के साथ अडिग होकर खड़ी हैं.

अकबर पर कई महिलाओं के आरोप

फिलहाल अकबर महिला पत्रकार प्रिया रमानी के खिलाफ अदालत में केस लड़ रहे हैं, ताकि खुद पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों से मुक्ति पा सकें. प्रिया रमानी उन महिला पत्रकारों की अगुवा हैं जिन्होंने #MeToo कैंपेन के तहत अकबर पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए हैं. लेकिन अब पल्लवी गोगोई से रेप के आरोप के बाद अकबर की मुश्किलें बढ़ गई हैं. इस मामले में अकबर के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज हो सकता है. हर कोई जानता है कि वॉशिंगटन पोस्ट जैसे नामचीन अखबार में किसी शख्स के खिलाफ रेप के आरोप वाली खबर छपने पर क्या हो सकता है. जाहिर है कि वह शख्स मुसीबतों के गहरे दलदल में फंस चुका है.

एमजे अकबर जैसी शख्सियत पर लगे आरोपों को सुनकर वाकई हैरत होती है. समझ में नहीं आता कि उन्होंने कैसे 30 से ज्यादा बेबाक, बुद्धिमान और सुशिक्षित महिलाओं से कथित दुर्व्यवहार किया और दशकों तक उन्हें अपनी जुबान बंद रखने को मजबूर किया?

एमजे अकबर 70 के दशक में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया पत्रिका में खुशवंत सिंह की बेहतरीन और प्रतिभावान टीम का हिस्सा बने थे. मैं भी उस टीम में शामिल था. तब मैंने अकबर को नजदीक से देखा और समझा था. उस वक्त अकबर को एक शर्मीले, शांत, मितभाषी और सबसे अलग-थलग होकर हमेशा कोने में दुबके रहने वाले लड़के के तौर पर जाना जाता था. लिहाजा एक शर्मीले और दब्बू शख्स की छवि वाले इंसान का घृणित यौन शिकारी के रूप में कायकल्प होने पर जल्द विश्वास नहीं होता है.

क्या से क्या हो गए!

70 के दशक में जिग्स कालरा, बादशाह सेन, रमेश चंदर और मैंने बतौर सहकर्मी अकबर के साथ मुंबई में काफी वक्त बिताया. हम लोग उन्हें एमजे कहकर पुकारते थे. वह एक खुशनुमा इंसान हुआ करते थे. लेकिन हमारी तरह वह ज्यादा सामाजिक नहीं थे. हालांकि किसी हद तक वह साथियों संग हंसी-ठिठोली करने वाले और हाज़िरजवाब शख्स हुआ करते थे.

प्रिया रमानी ने सबसे पहले एमजे अकबर पर यौन उत्ीड़न का आरोप लगाया था (फोटो: फेसबुक से साभार)

कभी-कभी उनमें एक अकड़ू और अभिमानी शख्स की झलक भी नजर आती थी. जब कभी हम लोग उनसे कहीं बाहर घूमने या पार्टी में जाने को कहते तो वह अजीब प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे. यानी हैंगआउट के हमारे प्रस्ताव पर अकबर की निगाहें यह कहती हुई नजर आती थीं कि हम लोग बिना मकसद के अपना कीमती वक्त बर्बाद करने के लिए कहीं भी क्यों जा रहे हैं.

अकबर को सार्वजनिक जगहों और सभाओं में बोलने से नफरत थी. वह सोशल गैदरिंग और पार्टियों में जाने से हमेशा बचा करते थे. मुझे याद है कि एक बार हम लोग इंडियन एयरलाइंस के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए औरंगाबाद गए थे, लेकिन कार्यक्रम के संचालकों ने जब अकबर का नाम पुकारा, तो उन्होंने मंच पर जाने से इनकार कर दिया था. मतलब साफ है कि अकबर को मंच पर जाने से डरा करते थे.

क्यों आया यह बदलाव?

यह सुनकर अजीब लगता है कि एन लक्ष्मी, रीना सरकार, बाची करकरिया, दीना वकील और एलिजाबेथ राव जैसी महिला सहयोगियों को अकबर में कभी सुदर्शन और भ्रद पुरुष नजर नहीं आया. आज यह सभी महिलाएं बेहद सफल लेखक हैं. हर शख्स का अपना एक अलग नजरिया, सोच और अनुभव होते हैं. लिहाजा हो सकता है इन लोगों ने अपेक्षाकृत सुरक्षित तरीके से अपनी राय जाहिर की हो. इसलिए मैं इन महिलाओं की अकबर के बारे में राय की कोई गारंटी नहीं ले सकता हूं और न ही उन्हें प्रमाणिक करार दे सकता हूं.

उन दिनों अकबर कई मसलों पर अक्सर निहायत रूढ़िवादी और नीरस हो जाया करते थे. हालांकि हमें शक हुआ करता था कि वह जरूर कोई राजनीतिक एजेंडा रखते हैं. हम लोगों की नजर में अकबर बहुत किताबी (बुकिश) इंसान थे. साथी पत्रकारों के बीच लोकप्रियता के मामले में वह बहुत पिछड़े हुए थे.

अगर कोई शख्स अपनी उम्र के 20वें पड़ाव के आसपास देश की शीर्ष पत्रिका में काम कर रहा होता है, तो समाज में उसकी एक अलग पहचान होती है. तब वह शख्स अपनी उपलब्धि पर इतराता और उसका आनंद लेता हुआ नजर आता है. इसके विपरीत अकबर उस वक्त बेहद गंभीर नजर आते थे. जो हमें खासा हास्यास्पद लगता था.

अकबर को छोड़कर हम सभी लोग अपनी दुनिया में मस्त और व्यस्त रहते थे. अकबर की पहचान ट्रेंड सेटर या यारबाज शख्स के तौर पर नहीं थी. कभी ऐसा नहीं होता था कि हम लोगों ने कहीं जाने का कार्यक्रम बनाया हो और उस लिस्ट में अकबर का नाम शामिल किया हो. हम में से कभी कोई यह नहीं कहता था कि अरे हम अकबर से कहना तो भूल ही गए. चलो उसे भी बुलाते हैं और रात को पार्टी में उसके साथ धमाल मचाते हैं.

सच तो यह है कि, जब हम लोगों ने सुना कि अकबर और मल्लिका शादी करने जा रहे हैं, तो हम सभी लोगों ने लगभग एक जैसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. हमने कहा था कि आखिर मल्लिका ने अकबर में क्या देखा?

इस दौर की मुझे एक भी ऐसी घटना याद नहीं जब किसी ने अकबर के आचरण के बारे में शिकायत की हो. वह खामोशी के साथ अपना काम किया करते थे. हम लोग बखूबी जानते थे कि बाकी सहकर्मियों के बरअक्स अकबर को राजनीति में गहरी दिलचस्पी है.

लिहाजा जिन दिनों हम लोग पार्टियां करने और सैर-सपाटे में व्यस्त रहा करते थे, उन दिनों अकबर रफीक जकारिया जैसे राजनेता, ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता लेखिका कुर्रतुलैन हैदर और खुशवंत सिंह जैसे पत्रकार की शागिर्दी में राजनीति के दांव-पेच और लेखन के गुर सीखा करते थे. राजनीति के आकाश में चमकने के लिए इन कलाओं में पारंगत होना शायद लाजमी होता है.

क्या है सच?

मेरे लिए, इस नतीजे पर पहुंचना अपेक्षाकृत खासा मुश्किल काम है कि मल्लिका से शादी रचाने वाले एक उबाऊ और नीरस इंसान की छवि कैसे अचानक एक घृणित यौन शिकारी के तौर पर तब्दील हुई. मेरे लिए यह हजम करना थोड़ा कठिन है कि कैसे एक शर्मीले और दब्बू शख्स ने अचानक रूस के कुख्यात आध्यात्मिक और सेक्स गुरू रासपुतिन जैसी अपनी नई छवि से सबको आश्चर्यचकित कर दिया.

अकबर ने आखिर कैसे तमाम बुद्धिमान और बिंदास महिलाओं को मूक आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया. हद दर्जे की बेबाक महिलाओं के साथ अकबर ने कैसे यौन उत्पीड़न किया होगा, अगर इसकी कल्पना की जाए तो वह खासी हास्यास्पद लगेगी.

हालांकि यह कतई हास्यास्पद बात नहीं है. यह बेहद गंभीर मुद्दा है और हम इससे बचकर नहीं भाग सकते हैं. लेकिन अकबर पर लगे आरोपों में एक बात ऐसी है जो मुझे लगातार व्याकुल कर रही है. यौन शोषण का आरोप लगाने वाली तकरीबन सभी महिला पत्रकारों का कहना है कि अकबर के रौब के चलते उन्होंने सब कुछ सहा और अपनी जुबान बंद रखी. आरोप लगाने वाली महिलाओं का यह भी कहना है कि अकबर ने उन्हें धमकियां और कई तरह के झांसे भी दिए थे, जिसके चलते वे अपने साथ हुई ज्यादती पर खामोश रहीं.

मैंने और अकबर ने मुंबई में काफी वक्त साथ बिताया है. हम लोग मुंबई के बोरीबंदर स्थित टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग की चौथी मंजिल पर काम करते थे. दफ्तर में हम लोगों की डेस्क साझा थी. उन हालात में मुझे अकबर को समझने-परखने का काफी मौका मिला. लिहाजा मैं कह सकता हूं कि, उस दौर के अकबर और यौन उत्पीड़न के आरोप लगने के बाद नए अवतार में नजर आ रहे अकबर में जमीन-आसमान का फर्क है. अकबर की इन दोनों छवियों के बीच सामंजस्य बैठाना मेरे लिए दुष्कर हो रहा है.

प्रकृति से सच्चे पत्रकार कभी किसी के रौब और रुतबे से नहीं डरते हैं. यही वजह है कि हम लोग कभी खुशवंत सिंह तक के रौब में नहीं रहे. जरूरी नहीं कि हर संपादक हंसमुख और मिलनसार हो. संपादकों का गंभीर होना गलत बात नहीं है. संपादकों के नरम मिजाज और सादगी का पुतला होने की उम्मीद नहीं की जाती है. उसी तरह पत्रकारों से चकाचौंध से प्रभावित होकर लड़कपन के व्यवहार की अपेक्षा नहीं होती है.

पत्रकारों में हर शख्स और हर चीज के बारे में सवाल करने की कुव्वत और हिम्मत होना चाहिए. आलोचनात्मक व्यवहार और सनक की हद तक जुनून हमारे पेशे की सर्वश्रेष्ठ सुरक्षा पॉलिसी है. मुझे नहीं पता कि न्यूज़रूम के कायदे-कानून (मानदंड) इतने कैसे बदल गए हैं कि एक साधारण व्यक्ति को इतनी शक्ति मिल जाती हैं कि, वह तमाम बुद्धिमान लोगों पर अपनी मनमर्जी थोपना शुरू कर देता है. यही नहीं, अपार शक्ति मिलने पर वह व्यक्ति बेखौफ होकर किसी केस भी उत्पीड़न तक पर उतर आता है.

अकबर के लिए खेद है मुझे

अकबर के व्यवहार के लिए मैं न तो खेद प्रकट कर सकता हूं और न ही बहाना बना सकता हूं. लेकिन मुझे आश्चर्य है कि क्या रौब, धौंस और चापलूसी की वजह से उस शख्स का कायाकल्प हुआ है. जब आप लोगों से दूरी बनाकर रखते हैं, तब आप आक्रामक और आत्मकेंद्रित होने का तमगा पाकर खुद के असामाजिक होने की भावना की भरपाई कर लेते हैं. खासकर अगर आपको एक झटके में कोई बड़ा पद मिल जाए तो आपके व्यवहार में बड़ा परिवर्तन आ जाता है.

उन हालात में कई बार साथियों को आपका आदेशात्मक व्यवहार नागवार लगने लगता है. तब अगर आप उनसे गलत व्यवहार करते हैं और उससे बचकर निकल जाते हैं, तब आपकी हिम्मत और बढ़ जाती है. यानी धीरे-धीरे आप खुद को अपराजेय और सर्वोपरि समझने लगते हैं. नौकरी में अक्सर कई लोगों को ऐसे अधिकार मिल जाते हैं. और वे लोग अपनी मनमानी को नौकरी का हिस्सा समझने की भूल कर बैठते हैं.

इलस्ट्रेटेड वीकली के बाद अकबर और मेरे करियर ने अलग-अलग मोड़ ले लिया. लेकिन 80 के दशक के आखिर में और 90 के दशक की शुरुआत कभी-कभी मेरी और अकबर की मुलाकातें होती रहीं. हम लोग कुछेक बार सामाजिक समारोहों में मिले थे. मैं बताना चाहूंगा कि, अकबर ने एक बार मुझे कोलकाता में अपने खूबसूरत घर में डिनर पर आमंत्रित किया था. तब मैंने पाया था कि अकबर में अहंकार आ गया है और वह हमेशा अपने अक्खड़पन में मगन रहने लगे हैं.

इसके बाद हमारी मुलाकात जेनेवा में इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (ILO) के कार्यक्रम में हुई. अकबर वहां पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ पहुंचे थे. उस मुलाकात में भी मैंने अकबर के व्यवहार में खास बदलाव महसूस किया था. तब तक उनका अहंकार और ज्यादा बढ़ चुका था. उस वक्त मुझे लगा था कि जिस नीरस और उबाऊ अकबर को हम जानते थे, वह अब पहले जैसा नहीं रहा. वह शायद तब उस मित्र मंडली से दिली नफरत करने लगे थे, जिनके साथ उन्होंने कई साल तक काम किया था. मुझे महसूस हुआ था कि अकबर तब शायद खुद को पेशेवर और बौद्धिक तौर पर हम बाकी साथियों के मुकाबले ज्यादा परिपक्व और अग्रणी समझने लगे थे.

एमजे अकबर पर जिन महिला पत्रकारों ने यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए हैं, उनमें तकरीबन सभी ने अकबर के मातहत एशियन एज अखबार में काम किया है. यानी महिलाओं के मुताबिक, एशियन एज में बतौर संपादक अकबर ने उनका यौन उत्पीड़न किया था. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि, अकबर पर जिस रुतबे के रौब का आरोप लगा है, उस रुतबे के बल पर अकबर एशियन एज को अखबार की दुनिया में कोई खास ऊंचा मकाम नहीं दिलवा सके.

हालांकि अकबर ने स्टेट्समैन को उठाने की भी चुनौती कुबूल की थी, लेकिन वहां भी वह उसे राष्ट्रीय मीडिया में फिर से उचित स्थान पर स्थापित करने में नाकाम रहे. यहां तक कि स्टेट्समैन अखबार की कोलकाता तक में लोकप्रियता घट गई थी. हालांकि बाद में स्टेट्समैन डूबने से बच गया.

कहावत है कि वक्त के साथ लोग बदल जाते हैं. शायद बदल जाते हों. लेकिन निश्चित रूप से हमें किसी शख्स के शुरुआती रंग-ढंग, तौर-तरीकों और आचार-व्यवहार पर गौर करना चाहिए. अगर कोई शख्स गलत व्यवहार करे और उसी वक्त उसके मुंह पर जोरदार तमाचा पड़ जाए, तो संभव है कि उस व्यक्ति को भविष्य का हैवान बनने से रोका जा सकता है.