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1984 के दंगा पीड़ितों को न्याय मिलेगा या मिलेगी फिर तारीख?

दंगा पीड़ित सिखों को इंसाफ मिले- इसे लेकर सरकार कितनी गंभीर है?

Aakar Patel

उन्नीस सौ चौरासी के दंगों के शिकार और उस दुख को झेल किसी तरह बच निकले सिखों को इंसाफ मिले- इसे लेकर सरकार कितनी गंभीर है? इस सवाल में हरेक हिन्दुस्तानी की दिलचस्पी होनी चाहिए क्योंकि इसी से जाहिर होना है कि यह देश नरसंहार के मामले में कभी इंसाफ कर पाएगा कि नहीं.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद मचे कत्ले-आम में 3,325 लोगों की जान गई इसमें 2,733 लोग सिर्फ दिल्ली में मारे गए.


कहा गया कि कांग्रेस के कई बड़े नेता इस कत्ले-आम में शरीक थे. उनमें से कुछ जैसे एच के एल भगत, बिना किसी अदालती सुनवाई के आज की तारीख में मौत की नींद सो चुके हैं. ऐसे कुछ नेता मसलन सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर और कमलनाथ अभी जीवित हैं.

आयोग बनते गए, फैसला टलता गया

कत्ले-आम की पहली जांच रंगनाथ मिश्र आयोग ने की थी और आयोग ने इन लोगों के बयान दर्ज करने में गोपनीयता बरती. बयान कत्ले-आम के शिकार लोगों की गैर-मौजूदगी में दर्ज किए और राजीव गांधी सरकार को दंगे की जिम्मेवारी से दोषमुक्त करार दिया.

बीते 32 सालों में केंद्र में एक दर्जन कांग्रेसी और गैर-कांग्रेसी सरकारें आईं और गईं लेकिन दंगे के मामले में न के बराबर प्रगति हुई. वाजपेयी सरकार ने नानावती आयोग बैठाया. इसकी रिपोर्ट मनमोहन सिंह सरकार ने पेश की.

रिपोर्ट से सदमा पहुंचाने वाली कई बातें उजागर हुईं और मनमोहन सिंह ने कांग्रेस की ओर से देश से माफी मांगी. टाइटलर का मंत्रीपद छिना लेकिन दंगा पीड़ितों को इंसाफ नहीं मिला.

एसटीआई की जांच भी अब तक बेनतीजा

नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए गठबंधन की सरकार ने कदम उठाने का वादा किया और मामले में आगे की राह सुझाने के लिए 23 दिसंबर 2014 को जी पी माथुर की सदारत में एक कमिटी बिठाई.

कुछ ही हफ्तों के भीतर माथुर कमिटी की सिफारिश आयी कि दंगे से जुड़े मामलों की जांच के लिए स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (विशेष जांच दल) गठित की जाए. यह टीम पुलिस थाने और पहले गठित की गई समितियों की उन फाइलों को देखेगी जो सबूत जुटाने के गरज से तैयार की गई हैं.

सिफारिश में एक अहम बात यह भी कही गई कि एसआईटी को सबूत मिलने की सूरत में नए सिरे से आरोप तय करने का अधिकार होगा.

इस टीम का गठन 12 फरवरी 2015 को हुआ और टीम ने काम करना शुरु किया लेकिन टीम नए सिरे से चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई. ऐसे में टीम को 2015 के अगस्त से एक साल का समय और दिया गया. लेकिन 2016 के अगस्त तक कोई भी नई चार्जशीट दाखिल नहीं हो पाई. किसी तरह की कोई प्रगति रिपोर्ट सामने नहीं आई है.

विशेष जांच दल का कार्यकाल चूंकि 11 फरवरी को खत्म हो रहा है इसलिए उसे दूसरी बार बढ़ा दिया गया है. अगर एसआईटी के कार्यकाल के दूसरे विस्तार में भी इंसाफ की दिशा में कोई प्रगति नहीं होती और अगली तारीख भी आकर यूं ही निकल जाती है तो यह दंगा-पीड़ितों और उस दुख को झेल किसी तरह बच निकले लोगों के प्रति अन्याय होगा.

कई मामले खत्म, कई की फाइल गुम

गृह-मंत्रालय का कहना है कि 1984 के दंगे से जुड़े 650 मामले दर्ज हुए हैं. इनमें से 18 मामले ‘निरस्त’ हो गए हैं. 268 मामलों की फाइल ‘गुम’ हो चुकी है. एसआईटी इन 268 मामलों की फिर से जांच कर रही है.

2016 के नवंबर में मंत्रालय ने कहा कि 'अभी तक 218 मामलों में जांच का काम अलग-अलग मुकाम पर पहुंचा है. फिलहाल ऐसे 22 मामलों की पहचान हो चुकी है जिसमें आगे और ज्यादा जांच की जरूरत है. एसआईटी ने इन 22 मामलों में और आगे बढ़ने से पहले पब्लिक नोटिस जारी किया है.'

मंत्रालय का कहना है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) गुरमुखी या उर्दू में लिखी गई थी. इस वजह से उनकी छानबीन के काम देरी हो रही है. इस बात पर यकीन करना मुश्किल है क्योंकि इन भाषाओं में लिखी बातों के अनुवादकों की भारत में कोई कमी नहीं.

मंत्रालय ने अपने बयान में कहा है: 'मामले बहुत पुराने हैं, उनकी छानबीन करने और मिलान बैठाने में दिक्कत आ रही है. इस दिक्कत के बावजूद एसआईटी चुनौती को स्वीकार कर मामलों की महीन जांच की कोशिश कर रही है. मामलों की छानबीन में भरपूर सावधानी बरती जा रही है ताकि पीड़ित परिवारों को इंसाफ मिल सके.'

दुर्भाग्य कहिए कि छानबीन के काम में किसी प्रगति का कोई सबूत नजर नहीं आ रहा.

बिना सही जांच के कैसे मिलेगा न्याय?

मैं जिस संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल के लिए काम करता हूं, उसने बीते साल इस मसले पर एक सभा बुलाई थी. इसमें हमलोगों ने दंगा पीड़ित और दंगे का दुख झेलकर बच निकले लोगों की नुमाइंदगी करने वाले कई समूहों के साथ काम किया. इनमें से कोई भी मसले को लेकर गंभीर नहीं था. मिसाल के लिए दंगे में हुए जुर्म के चश्मदीद रहे किसी भी आदमी के पास जाकर यह नहीं कहा गया है कि अपना बयान फिर से दर्ज करवाइए. न ही किसी तरह की और छानबीन के लिए ही इन लोगों तक कोई पहुंचा है. यह बड़ी परेशानी की बात है क्योंकि इससे यही जाहिर होता है कि मामले में दिलचस्पी नहीं ली जा रही या फिर जानते-बूझते अनदेखी की जा रही है.

उचित जांच के अभाव में कैसे कोई नया आरोप तय किया जा सकता है और इसके बिना इंसाफ कैसे मिल सकता है?

देश में बड़े दंगों की एक रीत यह रही है कि सत्ताधारी पार्टी सत्ता में बनी रहती है (दुर्भाग्य कहिए कि ऐसे दंगों के जरिए लोगों को लामबंद करने का काम लिया जाता है) और ऐसे में छानबीन के काम में पलीता लग जाता है. भारत में ऐसा कई दफे हुआ है, ज्यादातर कांग्रेस के शासन में. एक समाज के रुप में हम लोगों ने सामूहिक हिंसा की वजह से जो नुकसान उठाए हैं, उसकी भरपाई करने का अवसर अभी बीजेपी के हाथ में है.

पंजाब में होने जा रहे चुनाव में मुकाबले के लिए उतरी कई पार्टियां अपने घोषणापत्र में 1984 के दंगा पीड़ितों को इंसाफ दिलाने की बात शामिल करने पर रजामंद हैं और यह एक अच्छी बात है.

बहरहाल, इस मसले पर कुछ कर दिखाने की राह केंद्र सरकार के सामने पहले से ही मौजूद है. केंद्र सरकार को एसआईटी का कार्यकाल फिर से न बढ़ाकर प्रगति रिपोर्ट पेश करनी चाहिए. इंसाफ को कयामत के दिन तक टाले रखने की ‘तारीख पर तारीख’ वाली हिंदुस्तानी टेक 1984 के दंगे के मामलों में फिर से दोहराई जाती है तो इसे त्रासद कहा जाएगा.