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मलकानगिरी में 102 बच्चों की मौत: क्या है वजह?

'पहले बच्चे की मौत 9 सितम्बर को हुई थी. उसके बाद से 102 मौतों की रिपोर्ट की गई है, असली आंकड़े इससे ज्यादा हो सकते हैं.'

Kangkan Acharyya

चार साल की शांति अपने पिता से कमजोर आवाज में कहती है, 'मुझे मेडिकल नहीं जाना.' शांति और उसके पिता उड़ीसा के मलकानगिरी जिले में रहने वाले ‘कोया’ आदिवासी समुदाय से आते हैं. इस समुदाय के लिए यह गहरी उदासी भरा वक्त है. किसी अज्ञात बीमारी की वजह से पिछले दो महीनों के भीतर 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है.


इस समुदाय के लिए तो यह तकलीफदेह वक्त है ही, लेकिन थोड़ा शांति के पिता के बारे में भी सोचिए, जिनके दो बच्चों की जान इसी बीमारी से जा चुकी है और अब तीसरी बेटी इसी बीमारी से जूझ रही है. वह घुटी हुई आवाज में कहते हैं, 'मेरे दो बच्चे मेडिकल में मर गए. अगर तीसरे का भी यही हाल हुआ तो मैं क्या करूंगा?'

'9 सितम्बर को हुई थी पहले बच्चे की मौत' 

अस्पताल को लेकर इस बच्ची का प्रतिरोध बहुत देर तक टिक नहीं पाया. मजिस्ट्रेट के सुदर्शन चक्रबर्ती समय रहते बीमार बच्ची को मेडिकल देख-रेख में ले आए. यह अज्ञात बीमारी उनके प्रशासन के लिए रोजमर्रा की लड़ाई का हिस्सा बन चुकी है जो अब आदिवासियों के बीच फैलती जा रही है.

इलाके के सामाजिक कार्यकर्त्ता आर श्रीनिवासन राव कहते हैं कि, 'जिला प्रशासन पिछले तीन महीनों से मलकानगिरी के आदिवासी गांवों में बच्चों की मौतों में हो रही अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी के मामले से जूझ रहा है. प्रशासन की कोशिशों के बावजूद भी लोगों के बीच भय पसरा हुआ है.' स्थानीय पत्रकार देबब्रत सना बताते हैं कि, 'पहले बच्चे की मौत 9 सितम्बर को हुई थी. उसके बाद से 102 मौतों की रिपोर्ट की गई है, असली आंकड़े इससे ज्यादा हो सकते हैं.'

'मौतों के सरकारी और वास्तविक आंकड़ों में अंतर'

राव कहते हैं कि, 'अगर इलाके में मौतों के सरकारी और वास्तविक आंकड़ों में अंतर पाया जा रहा है तो इसका कारण कई आदिवासी समुदायों का स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के लिए पारंपरिक दवाओं पर निर्भर रहना है. राव के अनुसार, 'गांवों के ज्यादातर लोग अस्पताल नहीं जाते हैं. इसकी जगह वे स्थानीय ओझाओं के पास जाते हैं जो कथित तौर पर मन्त्रों से उनका इलाज करते हैं. इस तरह के इलाज के वक्त हुई मौतें कभी-कभार ही दर्ज हो पाती हैं.'

कोया आदिवासी समुदाय के सदस्य

अतिरिक्त जिला चिकित्सा अधिकारी डॉ कल्याण कुमार सरकार बताते हैं कि, 'भर्ती हुए बहुत से मरीजों में जापानी इंसेफलाइटिस से मिलते-जुलते लक्षण पाए गए हैं. सरकार के अनुसार, 'अस्पताल में भर्ती किए गए मरीजों में से 36 के अंदर जापानी इन्सेफलाइटिस पॉजिटिव पाया गया. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, जिन मरीजों में जापानी इन्सेफेलाइटिस पॉजिटिव नहीं पाया गया, उनमें भी लक्षण वैसे ही थे. बीमारी की वजह का पता नहीं लगाया जा सका है.'

जापानी इंसेफलाइटिस से मिलते-जुलते लक्षण

सना के अनुसार, 'वे मरीज जिनमें जापानी इंसेफलाइटिस से मिलते-जुलते लक्षण पाए गए हैं, उन्हें तीव्र इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से ग्रस्त बताया जा रहा है. मलकानगिरी तीव्र इंसेफलाइटिस सिंड्रोम का केंद्र भी बनकर उभरा है. देश-विदेश से वैज्ञानिक जिले की नई स्वास्थ्य स्थितियों की जांच के लिए आ चुके हैं.'

'चकुंडा बीज है इन मौतों की वजह'

डॉ कल्याण कुमार सरकार बताते हैं कि, 'डॉ ई जैकब जेम्स के नेतृत्व में तमिलनाडु के एक अस्पताल से वैज्ञानिकों की टीम इस पहेली की अनोखी व्याख्या लेकर आई. उनकी राय थी कि मलकानगिरी के ग्रामीण जंगल से लाए गए बीजों के खाने से शायद अज्ञात लक्षण बच्चों में आ गए. यह बीज यहां चकुंडा नाम से जाना जाता है और इसमें जहरीली चीजें पाई जाती हैं. इसे खाने से जापानी इंसेफलाइटिस जैसे लक्षण पैदा हो सकते हैं और अचानक ग्लूकोज की कमी हो जाती है जो जानलेवा हो सकता है.'

राव के अनुसार, 'बहुत कम ग्रामीण ही इस व्याख्या पर भरोसा करते हैं, बल्कि उनका कहना है कि चकुंडा बीज बहुत लंबे समय से स्थानीय आदिवासियों के खान-पान का हिस्सा रहा है और कभी किसी को यह जानलेवा नहीं लगा. चकुंडा बीज लंबे समय से यहां के आदिवासियों के बीच दाल के रूप में प्रयोग होता रहा है और अपने औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है. अचानक से यह जहरीला कैसे हो सकता है?'

'सरकार की नाकामियां छिपाने का तरीका'

राव को लगता है कि यह व्याख्या जिले के गरीब आदिवासियों को स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं उपलब्ध कराने में फेल रही सरकार की नाकामियों को छिपाने के लिए दी जा रही है. राव सवाल पूछते हैं, 'अगर वाकई में ये मौतें चकुंडा बीज से हो रही हैं तो केवल कुपोषण का शिकार बच्चे ही क्यों मर रहे हैं?' राव आगे कहते हैं, 'दरअसल यह उड़ीसा के आदिवासियों की सरकार द्वारा की जाने वाली उपेक्षा का पारंपरिक मामला है.'

इसी जिले के निवासी सना ने भी यह स्वीकार किया कि उन्होंने कभी यह नहीं सुना कि चकुंडा बीज के खाने से लोगों की मौत हो रही है.

लेकिन सरकार के पास इसका जवाब है. उनका कहना है कि, 'चकुंडा बीज जंगलों में हर साल सितंबर के बाद होते हैं और लोग इसे खाते हैं. साल के इस वक्त मौतें लंबे समय हो रही हैं. लेकिन ऐसा पहली बार है कि इन मौतों के कारणों की जांच हो रही है.'

'2012 के बाद से इस इलाके में 7493 बच्चों की मौत'

ग्रामीणों को प्रभावित करने वाले मुद्दों से जुड़े आंकड़े उपलब्ध कराने वाली वेबसाइट दलित कैमरा के अनुसार 2012 के बाद से इस इलाके में 7,493 बच्चों की मौत हुई है, जिसमें पिछले 2 महीनों में हुई 128 मौतें भी शामिल हैं. लेकिन स्थानीय लोग इस आंकड़े को शक की निगाह से देखते हैं.

उड़ीसा के इस सुदूरवर्ती गांव को दहला रही बच्चों की मौतों के बढ़ते जाने की चाहे जो व्याख्या दी जाए, यह तथ्य अपनी जगह बरकरार है कि जिला प्रशासन ने इस चुनौती का सामना करने के लिए दो आयामी कदम उठाए हैं. सरकार बताते हैं, 'क्योंकि जापानी इंसेफलाइटिस भी कई मरीजों में पाया गया है, इसलिए इस वायरस को फैलने से रोकने के लिए लोगों में जागरुकता फैलाने की हम भरपूर कोशिश कर रहे हैं. इसके अलावा कई और तरीके भी अपनाए जा रहे हैं. मसलन, दूसरे तरीकों के तौर पर हमने चकुंडा बीज से होने वाली बीमारियों को लोगों के बीच प्रचारित करना शुरू किया है और इन्हें न खाने की चेतावनी दी है.'

हालांकि, बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने दवाईयों पर भरोसा नहीं होने के कारण और पिछले कुछ दिनों में हुई मौतों की संख्या को देखते हुए अपने बच्चों को अस्पताल में भर्ती कराने से मना कर दिया है. फिर भी, कुछ बच्चों के लिए दवाईयां वरदान हो सकती हैं, 4 साल की शांति को ही देख लें जो समय पर इलाज मिलने की वजह से बच गई.