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सहारनपुर हिंसा पर ग्राउंड रिपोर्ट (पार्ट 1): एक साल पहले लगी थी आग, क्या राख के अंदर अब भी कुछ सुलग रहा है?

दोनों ही समुदायों के लोग कहते हैं कि वो समझौता करना चाहते हैं लेकिन दूसरा पक्ष समझौते को राजी नहीं होता. एक साल बाद दलित और ठाकुर दोनों ही एकदूसरे पर भरोसा करने से हिचकते हैं

Vivek Anand

एडिटर नोट: बीजेपी, इसकी वैचारिक शाखा आरएसएस और दलितों से पहचानी जानी वाली पार्टियां यहां तक कि बीएसपी भी, पिछले कुछ महीनों में दलित समुदाय से दूर हो रही है. इस समुदाय ने भारतीय राजनीतिक पार्टियों और समाज में खुद को स्थापित करने का नया रास्ता खोजा है. फ़र्स्टपोस्ट यूपी में घूमकर दलित राजनीति का जायजा लेगा. गांवों, शहरों और कस्बों में क्या है दलित राजनीति का हाल, जानिए हमारे साथ :

शब्बीरपुर गांव में दाखिल होते ही धर्मपाल से मुलाकात होती है. वो अपने इलाके में एक अनजान आदमी की घुसपैठ पर मुझे टोकते हैं. हालांकि जैसे ही मैं ये कहता हूं कि एक साल पहले आपके यहां जो हुआ था, उसकी जानकारी लेने आया हूं. वो आश्वस्त हो जाते हैं.


60-65 साल के धर्मपाल एक साल पहले की कहानी कुछ इस तरह से बताने लगते हैं मानो उन्होंने ये कहानी न जाने कितनों को सुनाई हो. मैं उनकी बातों से एक साल पुराने वाकये को समझने की कोशिश कर ही रहा होता हूं कि सामने से पुलिस की दो जिप्सियां आती दिखती हैं. जिप्सी में बैठे पुलिसवाले हमें गहरी नजरों से देखते हुए निकल जाते हैं. पांच-सात मिनट के दौरान ही बात समझ में आ जाती है. फिलहाल यहां शांति है लेकिन हर नजर किसी आंशका की आहट से बेचैन दिखती हैं.

5 मई, 2017 को हुई थी दलितों और ठाकुरों में जातीय हिंसा

ये शब्बीरपुर गांव है. सहारनपुर से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर बसा वही गांव जहां 5 मई 2017 को दलितों और ठाकुरों के बीच जातीय हिंसा हुई थी. इस हिंसा में पहले एक ठाकुर समुदाय के युवक की जान गई फिर एक दलित की. पहले दलितों की बस्तियों में आग लगाई गई फिर ठाकुरों की. पहले इस छोटे से इलाके में जातीय तनाव फैला फिर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में. दलितों के खिलाफ हिंसा के विरोध में दिल्ली तक जबरदस्त प्रदर्शन हुए. मायावती के इस इलाके का दौरा करने के बाद शुरू हुई राजनीति ने पूरे मामले का रुख ही बदल दिया. भीम आर्मी का नाम सामने आया और एक एक करके उसके नेताओं की गिरफ्तारियां हुई.

इस पूरे घटनाक्रम ने दलितों पर अत्याचार के बढ़ते मामलों पर पहले से ही घिरी केंद्र की बीजेपी सरकार को इतना मजबूर कर दिया कि उसे दलितों को अपने साथ बनाए रखने की रणनीति में बदलाव करना पड़ा. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सांसदों मंत्रियों और विधायकों को निर्देश दिया कि वो अपने संसदीय क्षेत्र में कम से कम एक रात दलित बस्तियों में गुजारें. उनके साथ खाना खाएं, उनकी समस्याएं सुनें, उनमें सरकार के प्रति भरोसा जगाएं. एक साल बाद इस पूरी कवायद की जमीनी असलियत जानने के लिए शब्बीरपुर से अच्छा गांव और कौन हो सकता है.

धर्मपाल (फोटो/विवेक आनंद).

'आगे की सोचकर डर लगता है'

शब्बीरपुर गांव में दाखिल होते ही दलितों की बस्तियां शुरू हो जाती हैं. पहला ही घर है राजवीर का. 5 मई 2017 राजवीर के घर से ही दंगाइयों ने दलित बस्तियों में आग लगानी शुरू की. जब वो राजवीर के घर को आग लगा चुके थे, उसके बाद जाकर पता चला कि राजवीर दलित नहीं पिछड़ी जाति से है. राजवीर के घर को जलता छोड़कर वो आगे निकल गए. राजवीर बताते हैं कि उसके बाद से तो कोई अनहोनी नहीं हुई है लेकिन डर लगा रहता है. उस घटना के ठीक एक साल बाद जातीय नफरत की वर्षगांठ मनाने के लिए पता नहीं क्या प्लान किया जा रहा हो? राजवीर को राज्य सरकार की तरफ से 40 हजार का मुआवजा मिला है. उन्होंने अपने घर की मरम्मत करवा ली है. वो दुआ करते हैं कि पहले वाला अमनचैन फिर से बहाल हो.

शिवराज इसी गांव में रहने वाले एक दलित हैं. मिलने पर छूटते ही कहते हैं कि ये मनुवादी हमें जीने नहीं देंगे, इन्होंने हमारे बच्चों को जेलों में ठूंस दिया है. आरोपी खुलेआम घूम रहा है और वो निर्दोषों को सता रहे हैं. हमारी सुनने वाला कोई नहीं है. मैं पूछता हूं कि आप मनुवादी किसे कहते हैं. शिवराज कहते हैं, ‘वही जो सरकार चला रहे हैं, सत्ता में हैं, पुलिस-प्रशासन सब उनके ही हाथ में है. आप देखिए अभी हम कुर्सी पर बैठे हैं. वो ये देख नहीं पाते कि हम कुर्सी पर भी बैठ सकते हैं. वो आज के वक्त को भी पहले वाला जमाना ही समझ रहे हैं.’ शिवराज अभी मेरे सामने कुदाल लेकर खेत से लौटे हैं. सफेद कुर्ते पायजामे को मिट्टी के दाग ने कई जगह से मटमैला कर रखा है. कुर्सी पर बेतकल्लुफ और कुछ हद तक बेतरतीब तरीके से बैठते हैं. लेकिन बातें बिलकुल साफगोई से करते हैं.

शिवराज. (फोटो/विवेक आनंद)

ये था घटनाक्रम

शिवराज से ये पूछने पर कि आखिर 5 मई 2017 को हुआ क्या था. वो बताते हैं कि इलाके के ठाकुर समुदाय के लोग महाराणा प्रताप जयंती का जुलूस निकल रहे थे. जुलूस में डीजे भी लगा था. पुलिस ने डीजे को रोक दिया. इसी के बाद बवाल बढ़ा और गुस्से का शिकार बने दलित. उन्होंने दलितों के घरों में आग लगा दी. जले हुए मकानों की मरम्मत तो कर ली गई है लेकिन बस्ती के जले हुए पेड़ों के ठूंठ अब भी दिख जाते हैं.

शब्बीरपुर की दलित बस्ती से थोड़ा आगे बढ़ते हुए ठाकुरों की बस्ती शुरू होती है. यहां मिले-जुले घरों के बीच अपेक्षाकृत थोड़े बड़े घर दिख जाते हैं. एक बड़े फाटक वाले घर के सामने चार-पांच चारपाइयों पर कुछ बड़े बुजुर्ग लेटे दिखाई देते हैं. बातचीत शुरू होती है फाटक के पास खड़े मोहर सिंह से. मोहर सिंह युवा हैं और किसी पास के इलाके में ही नौकरी करते हैं. छूटते ही कहते हैं,‘ भई जनरल की कोई सुनता नहीं. सब दलितों की ही बात कर रहे हैं. लेकिन ये कोई पहले वाले दलित नहीं हैं. हमारे भी घरों में आग लगाई गई है. मगर ये कोई नहीं देखता.’

लाल टीशर्ट में मोहर सिंह (फोटो/विवेक आनंद)

'भीम आर्मी वालों ने लगाई ठाकुर बस्तियों में आग'

मोहर सिंह बताते हैं कि 5 मई की घटना के बाद 23 मई को बीएसपी अध्यक्ष मायावती इलाके का जायजा लेने आई थीं. उनके साथ भीम आर्मी के 3-4 हजार लोग थे. उस दिन ठाकुर जाति के लोगों ने घरों के भीतर रहने का फैसला किया था. उनलोगों ने हंगामा किया, नारे लगाए और ठाकुर बस्ती के कुछ इलाकों में आग भी लगा दी. हालांकि आग लगने की निशानी के बतौर ज्यादा कुछ नहीं दिखता.

शब्बीरपुर में दलितों और ठाकुरों के बीच हुई जातीय हिंसा के बाद पुलिस ने दोनों समुदायों से 9-9 लोगों को गिरफ्तार किया. इनमें से कुछ नाबालिग भी थे. उन्हें भी करीब ढाई महीने तक जेल में रहना पड़ा. कुछ लोग हाल- फिलहाल जेल से छूटकर आए हैं. 2 दलित और 4 ठाकुर जाति के लोग अब भी जेलों में बंद हैं. दलित कहते हैं कि पुलिस प्रशासन ठाकुरों के पक्ष में है और उनके लोगों के खिलाफ कार्रवाई हो रही है.

शांति चाहते हैं लेकिन भरोसा नहीं कर पाते

वो पूछते हैं कि एक ही मामले में सिर्फ दलितों के खिलाफ ही क्यों रासुका लगाई गई. जबकि ठाकुर अपने साथ हो रहे पक्षपात पर गुस्सा जाहिर करते हुए कहते हैं कि झगड़े के बाद दलितों की खैर खबर लेने सारे नेता आए लेकिन ठाकुरों की बस्ती में कोई नहीं आया. सिर्फ एक बार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सचिव आए थे, मुआयना करके चलते बने.

हालांकि इस दौरान दोनों ही समुदायों के लोग कहते हैं कि वो समझौता करना चाहते हैं लेकिन दूसरा पक्ष समझौते को राजी नहीं होता. एक साल बाद दलित और ठाकुर दोनों ही समुदाय के लोग शांति चाहते हैं. लेकिन एकदूसरे पर भरोसा करने से हिचकते हैं. मैं पूछता हूं वजह- दोनों तरफ के लोग कहते हैं- राजनीति.