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ट्रैप्ड रिव्यू: थोड़ा है लेकिन बहुत कुछ की जरूरत है

ट्रैप्ड बहुत उम्मीदें जगाने वाली फिल्म है और शुरुआत भी दिलचस्प है.

Anna MM Vetticad

ये मेरे लिए शर्मिंंदगी भरा था कि विक्रमादित्य मोटवानी की ट्रैप्ड देखते हुए मैं चौंक गई और एक काल्पनिक चूहे को अपने पैर से छिटक दिया. बाद में एहसास हुआ कि जिसे मैं चूहा समझ रही थी वो मेरा हैंडबैग जिसे बैठते हुए मैंने ही पैर के नजदीक रख दिया था.

इस डर से उबरते हुए, मैंने नजर बचाकर शर्मिंदगी से आस-पास देखा कि कहीं किसी ने मेरी इस हरकत को देख तो नहीं लिया था. शुक्र की बात है कि ऐसा नहीं हुआ था.


इस तरह की प्रतिक्रिया किसी फिल्म को तब मिलती है जब वो दर्शकों के अपने डर को निशाना बनाती है. खास तौर पर वो डर जिनसे हमें जवानी में कदम रखते हुए छुटकारा पा लेना चाहिए था लेकिन हम नहीं कर पाते. सभी के डर होते हैं. मुझे चूहों, छिपकलियों और अंधेरे कमरे में परदे के पीछे खड़े भूतों से डर लगता है, हां इस उम्र में भी लगता है.

मोटवानी ने चूहे का इस्तेमाल किया और फिल्म को देखते हुए लगने वाले डर को बढ़ा दिया.

ट्रैप्ड शौर्य नाम के एक नौजवान की कहानी है जो एक खाली पड़ी ऊंची इमारत में बंद हो जाता है. पानी, बिजली और खाने की गैरमौजूदगी में, जमीन से 35 मंजिल ऊपर वो जिंदा रहने के लिए कई दिन तक संघर्ष करता है, जब तक उसे बचने का रास्ता नहीं मिल जाता.

शुरू में यह सब देखना बड़ा दिलचस्प लगता है कि किन अनूठे तरीकों से शौर्य जिंदा रहने की कोशिश करता है.

सिनेमैटोग्राफर सिद्धार्थ दीवान हमें उसके इतने पास ले आते हैं कि लगता है कि हम उसे देख नहीं रहे बल्कि उसके साथ चल रहे हैं. जब कैमरा दूर जाता भी है तो एक खास मकसद से जाता है, आम तौर पर शौर्य (राजकुमार राव) की कमजोरी को दिखाते हुए. तब हमें एहसास होता है कि ये राणा दग्गुबती या जॉन अब्राहम या कोई पारंपरिक हीरो नहीं है; यह एक छोटा सा आदमी है जो बहुत बड़े शहर में छोटी सी जगह में खोया हुआ है और बहुत बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है.

शौर्य की ज़िंदा रहने की कोशिशें काबिल-ए-तारीफ़ हैं लेकिन जिस ढंग से उन्हें दिखाया गया है वो एक समय के बाद बहुत बेजान सी लगने लगती हैं और वैसी हैरान नहीं करती जैसी करनी चाहिए. जैसे ही जरूरत का तकाजा गायब होता है ट्रैप्ड मुसीबत में फंस जाती है.

इसके अलावा, एक हद के बाद तो तर्क भी जवाब दे जाता है. उदाहरण के लिए इतना कम खाना उपलब्ध होने और अपने आप को ढालने के बावजूद शौर्य थकान के मारे बेहोश क्यों नहीं होता? कोई शक नहीं कि आज की शहरी ज़िंदगी के बारे में एक बात रखी जा रही है और ये बताने की कोशिश हो रही है कि महानगरों के लोग कितने अलग-थलग हो सकते हैं, लेकिन फिर भी यकीन नहीं होता कि उसका कोई परिचित उसकी खोज-खबर लेने की कोशिश नहीं करता.

राव शानदार अभिनेता हैं, ये हमें पता है. शौर्य के किरदार में वो संयत अभिनय करते हैं, लेकिन लगातार यह दिखे कि कोई अनहोनी होने वाली है और साथ ही उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति भी नजर आए, दोनों ही ऐसी फिल्म के लिए जरूरी हैं, ऐसा सिर्फ दमदार कहानी और निर्देशन से संभव है, केवल अच्छे अभिनय से नहीं.

शौर्य की दोस्त नूरी बनी गीतांजलि थापा ठीक-ठाक असर डालती हैं. खुशबू उपाध्याय को शौर्य की पड़ोसी के बतौर कुछ ही सेकेंड मिले हैं, लेकिन ये कुछ सेकेंड ही ये जानने के लिए काफी हैं कि वो ऐसी कलाकार हैं जो स्क्रीन पर मौजूदगी रखती हैं और ज्यादा की हकदार हैं.

यह मोटवानी की बतौर निर्देशक तीसरी फिल्म है और साफ है कि कम से कम में ज्यादा कहना उनका स्वाभाविक स्टाइल है. उनकी पहली फिल्म उड़ान को भारत में कई अवॉर्ड मिले और वह कैन्स के अनसर्टेन रिगार्ड सेक्शन में आधिकारिक तौर पर चुनी गई थी. फालतू के झंझटों में न पड़ते हुए कहानी कहने की उनकी शैली की वजह से गुस्से से भरी हुई यह फिल्म और ताकतवर लगी थी. लुटेरा बांधे रखने वाली फिल्म थी, सोनाक्षी सिन्हा और रणवीर सिंह ने खुद को फिल्म के दायरे में लाने के लिए अपना कद घटा लिया था. हालांकि ट्रैप्ड में मोटवानी बिना झंझट की अपनी इस शैली को कुछ आगे ही ले जाते हैं.

बड़ी भावुकता से बचना अलग बात है लेकिन फ़िल्म को बेजान बना देना बिल्कुल ही अलग. ट्रैप्ड बहुत उम्मीदें जगाने वाली फिल्म है और शुरुआत भी दिलचस्प है लेकिन 102 मिनट 56 सेकेंड तक वो दिलचस्पी बरकरार नहीं रह पाती.