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Hit Formula : तो ये है छोटे शहरों के बैकड्रॉप में शूट फिल्मों के बड़ी हिट होने की वजह...

बरेली की बर्फी, तनु वेड्स मनु, टॉयलेट एक प्रेम कथा और शुभ मंगल सावधान जैसी फिल्मों को कहानियां देखने के लिए लोग टिकिट विडों पर लाइन लगाए खड़े हैं

Bharti Dubey

छोटे शहरों में फिल्माई गई मूवी दर्शकों को खूब पसंद आ रही है. इसका नया उदाहरण अक्षय कुमार की टॉयलेट एक प्रेम कथा (टीईपीके) और बरेली की बर्फी है. अगर आकार को कसौटी माना जाए तो आज छोटे शहरों की ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बड़ा धमाल मचा रही हैं.

मीडिया कमेंटेटर शैलेश कुमार का कहना है कि "छोटे शहरों में फिल्माई गई और पैन-इंडिया को ध्यान में रखकर बनी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छा बिजनेस कर रही हैं, क्योंकि ये फिल्में हिंदी ताजगी का अहसास कराती हैं. पिछले 15-20 सालों में अधिकतर हिंदी फिल्में बड़े शहरों या विदेशों को ध्यान में रखकर बनाई गईं. इससे फिल्मों में एक ठहराव सा आ गया. लुक और ट्रीटमेंट स्टाइल को लेकर ये फिल्में एक जैसी थी. दूसरी तरफ, तनु वेड्स मनु रिटर्नस और टॉयलेट एक प्रेम कथा ट्रीटमेंट, लोकेशन, स्टाइल और भाषा के को लेकर नयापन का अहसास कराती हैं.‘’


अगर आपको इसके अधिक प्रमाण चाहिए तो आपको इस साल की शुरुआत में बॉक्स ऑफिस पर सफलता हासिल करने वाली फिल्मों को देखना चाहिए. वरुण धवन की बद्रीनाथ की दुल्हनिया इंदौर में फिल्माई गई. आमिर खान की दंगल हरियाणा के एक छोटे शहर को केंद्र मे रखकर बनाई गई. इन्होंने हर तरह के दर्शकों को अपना मुरीद बनाया.

फिल्म ट्रेंड और बिजनेस एनालिस्ट गिरीश जोहर का मानना है कि अब देसी फिल्मों का जमाना है. बाहुबली को छोड़ दें तो दंगल, सुल्तान, बदरीनाथ की दुल्हनिया और अब टीईपीके- इन सब फिल्मों की कहानियां भारत के केंद्र में बसती हैं. दर्शकों को ये कहानियां खुद से जुड़ी लगती हैं. वो इसे पसंद करता है. इसलिए ये सब फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल हुईं."

दूसरी श्रेणी के शहर बॉलीवुड कहानियों के लिए के लिए मजबूत आधार बन गए हैं. जयपुर, इंदौर, कानपुर, वाराणसी और अब बरेली फिल्मों की पृष्ठभूमि बनते जा रहे हैं. अधिकतर मामलों में ये खुद का चरित्र बनते जा रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्ज ने कहा कि छोटे शहरों के चरित्रों की महत्वाकांक्षाएं अब मेट्रो से मिलती हैं. इसके अलावा, मेट्रो के करेक्टर के विपरीत रिश्तों और प्यार में वो खुदगर्ज नहीं हैं.

एक इनसाइडर का कहना है " भारत के छोटे शहर आत्मविश्वास से लबरेज हैं. वो अपने माइंडसेट और च्वाइस के लिए मेट्रो शहरों पर निर्भर नहीं हैं. वो चाहते हैं दर्शक उनकी तरफ आकर्षित हों और आंकड़ा भी उनके पक्ष में है. जयपुर में प्रचार के स्पष्ट नतीजे मिलते हैं जबकि मुंबई और बेंगलुरु में इसे लेकर रुचि खत्म हो गई है."

वरिष्ठ पत्रकार भारती प्रधान ने एक साथी समीक्षक दीपा गहलोत का हवाला दिया. दीपा के शब्दों में "भारत के छोटे शहर नए स्विटजरलैंड हैं. यही आज की वास्तविक परिस्थितियों की ओर इशारा करते हैं, जहां छोटे शहर सफलता की बड़ी गारंटी हैं.

लेकिन क्या वो सोचती हैं कि छोटे शहरो में सिनेमा का व्यापार वहां से बॉक्स ऑफिस के लिए नंबर जुटा पाता है. भारती इससे सहमत नहीं है और कहती हैं, "छोटे शहरों की कहानियां हमारे देश के अभिजात वर्ग के लिए नई हैं, जबकि बी और सी श्रेणी के शहर वहां से निकलने वाली कहानियों से खुद की पहचान करता है. वहां की बोली, माहौल, रंग शहरी अभिजात वर्ग के लिए आकर्षक है. छोटे शहरों की कहानियों को सफल बनाने के लिए हमारे पास हीरो और हीरोइन नहीं है लेकिन सीमा पहलवान और पंकज त्रिपाठी जैसे मजबूत सहायक कलाकार हैं. राजकुमार राव जैसा अभिनेता बरेली की बर्फी की सफलता का राज हैं.

पिछले साल उत्तर प्रदेश ने 20 से अधिक फिल्मों को सब्सिडी दी थी. इसका स्पष्ट संकेत है कि फिल्म निर्माता राज्यों के छोटे शहरों में शूटिंग कर रहे हैं. शाहरुख खान अभिनीत आनंद एल राय की फिल्म मेरठ में शूट हुई. विनोद बच्चन की फिल्म शादी में जरूर आना और संजय दत्त की कमबेक फिल्म भूमि की शूटिंग आगरा में हुई. फिल्म बंधु के गौरव द्विवेदी को नहीं लगता कि छोटे शहरों की कहानियां बॉलीवुड के लिए नई हैं. उन्होंने कहा, " अगर आप पीछे जाएं तो राजकपूर की तीसरी कसम, दिलीप कुमार की गंगा जमुना और अमिताभ बच्चन की गंगा की सौगंध फिल्मों की कहानियां छोटे शहरों से थी. आज हम छोटे शहरों की कहानियों को बड़े पर्दे पर देख रहे हैं तो मुझे लगता है कि बासु चटर्जी, गुलजार और हृषिकेश मुखर्जी का समय नए कथाकारों के रूप में वापस लौट आया है."

द्विवेदी कहते हैं, "कई फिल्मकार हैं – विशाल भारद्वाज, अभिषेक चौबे, नीतेश तिवारी, अनुभव सिन्हा और सुधीर मिश्रा – जो अपनी फिल्मों से छोटे शहरों की कहानियां दुनिया को बता रहे हैं. और जो छोटे शहरों से बड़े शहरों मे आ रहे हैं वो इन कहानियों से खुद को जोड़ रहे हैं. इसलिए बॉक्स ऑफिस पर आंकड़े भी बढ़ रहे हैं. मेरे लिए गौरव की बात है कि उत्तर प्रदेश इसमें सबसे आगे है."

जिस प्रड्यूसर ने छोटे शहरों में फिल्माई गई फिल्मों के फॉर्मूले को क्रैक किया है उनका नाम है आनंद एल राय. आनंद के मुताबिक शुरुआती असफलतों के बाद मैंने महसूस किया कि जब तक मैं दुनिया को अपना कुछ नहीं दूंगा, इसमें जान नहीं आएगी. मेरे लिए छोटे शहर मेरा मध्यवर्ग हैं. जहां से मैं आया हूं वो मध्यवर्ग है जो शायद दिल्ली मे नहीं दिखता बल्कि लखनऊ, मेरठ और कानपुर जैसे छोटे शहरों में दिखता है. मेरे लिए वास्तविक होना अहम हो गया और ये तनु वेड्स मनु से हुआ. मैं मनु और तनु से खुद को जोड़ पाता हूं.

छोटे शहरों से अधिक यह मध्यम वर्ग के मूल्य हैं जो छोटे शहरों में साँस लेते हैं. दिल्ली का मतलब कारोबार है,  जैसा कि लखनऊ या मेरठ के सरकारी कर्मचारियों में दिखता है. मैं कह सकता हूं कि मैं अपने मध्यम वर्ग के मूल्यों पर कामयाब हूं. अगर मुझे अतीत से जुड़ना है तो मुझे अपनी कहानी में छोटे शहर को रखना होगा.

छोटे शहरों के फिल्मों की फेवरेट हीरोइन बन चुकी भूमि पेडनेकर का कहना है कि युवाओं में इन दिनों राष्ट्रवाद के प्रति प्रेम बढ़ा है और वो अपने देश को प्यार करते हैं. अब विदेश जाकर लोग काम करना नहीं चाहते क्योंकि यहीं पर उन्हें अवसर मिल रहे हैं. उनको अपने देश में ही अच्छी स्टोरीज मिल जाती हैं अगर उन्हें पेरिस और स्विटजरलैंड देखना भी है तो वो इंटरनेट पर जाकर भी उसे देख सकते हैं. वो दिल से जुड़ी कहानियां देखना चाहते हैं. मुझे नहीं पता कि 90 की छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियां खुले में शौच को कैसे फेस करती थीं मैं मुंबई की लड़की हूं और मुझे ये जानने में काफी दिलचस्पी है. भारत की 70 प्रतिशत छोटे शहरों में रहने वाली आबादी अब सिनेमा में ऐसी कहानियां देखना चाहती है जिससे वो खुद रिलेट कर सकें.

छोटे शहरों की स्क्रिप्ट्स पर फिल्में कर रहे आयुष्मान खुराना खुद को लकी मानते हैं कि उन्हें इस तरह की स्टोरीज करने को मिल रही हैं. ये एक तरह से प्रेरणादायी कहानियां हैं. लोगों में अब विदेशों की कहानियां देखने का शौक कम हो चुका है. रियलिज्म आज का नया ट्रेंड है. मेट्रो में भी ज्यादातर छोटे शहरों से ही लोग आए हैं और वो अपने शहरों की कहानियों को देखने के लिए मल्टिप्लेक्सेस का रुख करते हैं. इसलिए जरूरी है कि उनको वो ही दिखाया जाए जिसमें उनका इंट्रेस्ट हो.