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सुब्रमण्यम स्वामी ने किया सेंसर का समर्थन: ये रही सेंसर को हमारी संस्कारी एडवाइस

पहलाज निहलानी के सपोर्ट में बोले सुब्रमण्यम स्वामी

Akash Jaiswal

सेंटल ब्यूरो ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (CBFC) में पहलाज निहलानी अपने कार्यकाल में फिल्म सेंसरशिप का काम बड़े ही बखूबी ढंग से करते आए हैं. सेंसरशिप से हमारा मतलब है कि सीधे-साधे भारतीय दर्शकों की नैतिकता की रक्षा करना. एक तरफ जहां बॉलीवुड एक्टर्स और डायरेक्टर्स ने एकजुट होकर सेंसरशिप के खिलाफ आवाज उठाई वहीं निहलानी के सपोर्ट में भी एक आवाज आई. वो अवाज़ है सांसद और अर्थशात्री सुब्रमण्यम स्वामी की. स्वामी ने ट्वीट करके निहलानी को अपना काम करते रहने की सलाह दी.

दरअसल, ‘अपने काम करते रहो’ इससे सुब्रामण्यम स्वामी का मतलब है सेंसरशिप. सेंसरशिप ऐसी फिल्मों की जो आखं बंद करके सेक्स को लेकर पश्चिमी सभ्यता की चपेट में है. या फिर ऐसी फिल्में जो ‘स्टाकिंग’ को सही ठहराती है. पर हमें लगता है कि ये जानकारी काफी कम है. इसलिए हम पहलाज निहलानी को सेंसरशिप के लिए ये कुछ सिफारिशें देना चाहेंगे. आइए हमारी इस लिस्ट पर डालते हैं एक नजर.

किसी भी भारतीय फिल्म से सेक्स के बारे में सभी संदर्भ जो कि पश्चिमी सभ्यता से प्रेरित है उसे हटा दिया जाए.

चेतावनी: यदि सेक्स विवाहित लोगों के बीच उत्पन्न होता है और अगर वो प्लाट के लिए जरुरी है तो उसे ध्यान से दो फूलों के द्वारा दर्शाया जा सकता है. जैसे, डूबता हुआ सूरज के साथ रंगबिरंगी तितलियों की दृश्यता की अनुमति दी जा सकती है.

किसी भी इस तरह के दृश्यों को हटा दें, जो ड्रग्स का उपयोग, ड्रिंकिंग और धूम्रपान का चित्रण करता है.

चेतावनी: अगर इस फिल्म का कोई भी किरदार इन सभी दोषों में लिप्त है उसके चरित्र को एक बुरा अंत में दिखाया जाना चाहिए. इसके विपरीत उसी फिल्म में एक ऐसे चरित्र को शामिल करना चाहिए जो इन सभी दोषों से बचा है और अंत में जीतता है. इसमें कोई संदेह नहीं है क्योंकि वह कभी भी धूम्रपान नहीं करता है, पीता है या ड्रग्स का इस्तेमाल करता है.

एक ऐसा संस्कारी मापदंड बनाना चाहिए जो सेंसरशिप को पारदर्शी बनाने में कारगार साबित हो. सीबीएफसी के सदस्यों को 20 प्रश्नों की एक सूचि दी जाएगी (उदाहरण उसमें ऐसे प्रश्न शामिल होंगे: क्या फिल्म में आपत्तिजनक शब्द है, यह महिलाओं को एक स्वतंत्र सेक्सुअल बीइंग के रूप में किस तरह दिखाती है, क्या यह एक ऐसे चरित्र को शामिल करता है जो पीता है या धूम्रपान करता है लेकिन उसका बुरा अंत नहीं होता, क्या यह उन पात्रों को दिखाती है जो विवाहित नहीं हैं पर सेक्स करते हैं, क्या यह सीसजेंडर, हेटेरोसेक्सुअल व्यक्तियों के संदर्भ में कुछ भी दर्शाता है – बस हां/ ना के उत्तर के साथ जिसमें किसी भी विचार विमर्श की आवश्यकता नहीं है) जिसके आधार पर वे मूल्यांकन कर सकते हैं कि फिल्म संसारी पैमाने पर खड़ी है. यदि कोई फिल्म 4 या उससे कम का स्कोर पाती है तो उसे प्रमाणित नहीं किया जाएगा. 5 या 6 स्कोर करने वाले लोग अपनी फिल्म के लिए आवश्यक कटौती और सुधार कर सकते हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि रीवाइजिंग समिति इसे 7 की रेटिंग देकर पास कर सकती है. सांस्कृतिक पैमाने पर 7 अंक पाने वाली फिल्मों को निश्चित रूप से पारित कर दिया जाएगा.

किसी भी फिल्म को संस्कारी रेटिंग देने के संबंध में किसी भी असहमति के मामले में, बाबूजी किरदार के दिग्गज अभिनेता आलोक नाथ से मुलाकात की जाएगी और उनका फैसला अंतिम और बाध्यकारी होगा.

किसी भी ऐसी फिल्मों में जहां भारतीय संस्कारों को पश्चिमी देशों के संस्कारों से बड़ा दिखाया गया हो उन फिल्मों को 9 + 1 का पोजिटिव रेटिंग प्रदान कर दी जाएगी. भारतीय फिल्म निर्माताओं को प्रलोभन देकर ऐसी फिल्में बनाने के लिए प्रोसाहित किया जाएगा. उन्हें थिएटरों में मुख्य स्क्रीन्स और जीएसटी में छुट जैसी उपहार दिए जाएंगे. इसके अलावा वो किसी भी वर्ष में राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए दावेदार भी होंगे.

भारतीय सिनेमा में पश्चिमी सभ्यता की कोई अनुमति नहीं दी जाएगी. केवल शुध्द देसी ‘अश्लील’ चीजें ही पारित की जाएगी. उदाहरण के लिए: ऐसे संकेत जैसे मालगाड़ी को धक्के की जरुरत है ये सब पूरी तरह से भारतीय संस्कृति के है और इसलिए इसे पारित किया जाएगा. हालांकि, 'इंटरकोर्स' और 'वर्जिन' जैसे बोल्ड और कठोर शब्दों का उपयोग को संसारी पैमाने पर सख्ती से 2 के मूल्यांकन पर रखा जाएगा.

इसी तरह, पीछा करना. अगर हीरो हीरोइन का उसकी सहमति से पीछा करता है (सहमति नायिका द्वारा पुलिस शिकायत दर्ज न कराए जानेसे से किया जाएगा) पर उसमें जनजागृती का एक संदेश है जैसे की स्वच्छ भारत का महत्व और टॉयलेट का निर्माण, उसमें कोई कटौती का आदेश नहीं दिया जाएगा. लेकिन अगर पीछा करना बेकार ही दिखाया गया है और इससे एक क्लीन और हराभरा भारत नहीं बनता है तो फिल्म निर्माता को अपेक्षित रूप से कटौती करनी होगी.

अगर कोई भी ऐसी फिल्म नहीं है जिसमें किसी अन्य पात्र का फोन नंबर (भले ही बनाया हुआ है) का उल्लेख करने वाला चरित्र होगा, उसे कटौती के बिना पारित किया जाएगा और अगर पात्र हैं तो उसे फोन नंबर से बदलकर आधार नंबर पर चर्चा करते हुए उस दृश्य को पारित किया जा सकता है.

पश्चिमी फिल्मों के लिए: किसी भी ओनस्किन किस को लंबे समय तक रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए जबतक के वो जरुरी ना हो. जिस पल किरदारों के होंठ स्पर्श करे वहां से केवल 10 सेकंड की किसिंग सीन को पारित करने की अनुमति दी जानी चाहिए. प्राचीन शोध में यह बात सामने आई है कि पश्चिमी सभ्यता से 30 सेकंड का एक्सपोजर होता है तो हमारे मन पर असर करता है और इससे बुरा प्रभाव पड़ता है.

इसके अलावा, नियमित रूप से ऐसे सम्मेलनों को आयोजित करना चाहिए जिसमें ये चर्चा हो सके कि भारतीय फिल्मों को भारतीय जनता के बीच नैतिकता, संस्कृति और उचित व्यवहार को कैसे बढ़ावा दिया जाए. यह केवल नकारात्मक प्रभावों पर अंकुश लगाने के लिए पर्याप्त नहीं है. हमें अपने सिनेमा के माध्यम से पोजिटिव रोल मॉडल्स को प्रमोट करना चाहिए. एक निष्पक्ष दृष्टिकोण के उद्देश्य के लिए, श्याम बेनेगल को इन सम्मेलनों से दूर रखा जाना चाहिए.

भविष्य के समय में ध्यान रखने के लिए कुछ और बातें: वर्तमान रेटिंग प्रणाली को खत्म करने के बारे में विचार किया जा सकता है. अपनी उम्र के आधार पर दर्शकों को बांटना हमारी संस्कृति के खिलाफ है. नाना-नानी, पोता-पोती हर किसी को भारत में बनाई गई हर फिल्म को एक साथ देखने की आजादी होना चाहिए. इसके अलावा 1952 का सिनेमैटोग्राफर अधिनियम शायद हमारे लिए सबसे उपयुक्त नहीं है. यदि 1940 के दशक का कोई सेंसरशिप कानून है तो उसे पुनर्जीवित किया जाना चाहिए.

पहलज निहलानी, ऐसी ही काम करते रहो!

हमारी फिल्मों में, चुंबन और अपशब्द ठीक नहीं,

तब तक स्निप और सेंसर करें जब तक पश्चिमी सभ्यता का नामोनिशान नहीं मिट जाता,

भारतीय संस्कार सर्वोत्तम है!