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सिनेमा के ‘सम्मान’ में बड़ी नाइंसाफी है ?

ऐसा कम ही हुआ है कि पॉपुलर सिनेमा की फिल्मों को राष्ट्रीय अवॉर्ड मिले हों

Vivek Anand

63वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का एलान हो गया. ऐसा कम ही दफा हुआ है कि पॉपुलर सिनेमा की फिल्में राष्ट्रीय अवॉर्ड झटकने में कामयाब हुई हों. इस बार रमेश सिप्पी के नेतृत्व वाली ज्यूरी थी. सो पहले से ही अंदेशा था कि पॉपुलर सिनेमा के लिहाज से अच्छा होगा.


पीकू, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स और बाजीराव मस्तानी जैसी लोकप्रिय फिल्मों ने 10 प्रमुख अवॉर्ड हथिया लिए. जब भी हिंदी सिनेमा खासकर बॉलीवुड स्टाइल वाली कमर्शियल फिल्मों को सम्मान मिलता है. फिल्म जगत में अवॉर्ड को लेकर कई सवाल तैरने लगते हैं.

पुरस्कारों की दौड़ में इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना मुश्किल है. कि क्यों सैफ अली खान ‘हमतुम’ जैसी फिल्म के लिए चहलकदमी करते हुए अवॉर्ड ले जाते हैं. और शाहरुख खान ‘स्वदेश’ जैसी फिल्म में तारीफ बटोरने के बावजूद अवॉर्ड से खाली रह जाते हैं.

इस बार भी अवॉर्ड मिलते ही बहस शुरू हो गई है. दरअसल सिनेमा में जितना मुश्किल है राष्ट्रीय अवॉर्ड पाना, उतना ही आसान है उसकी काबिलियत को लेकर सवाल खड़े कर देना. फिल्मों के राष्ट्रीय सम्मान के मसले में बड़े पेंच हैं.

इन पुरस्कारों को स्थानीय भाषा में बनने वाली अच्छी फिल्मों के लिए एक प्लेटफॉर्म माना जाता है. जिसके जरिए इन फिल्मों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलती है. अवॉर्ड मिलने से ऐसी फिल्मों को व्यायसायिक फायदा मिलता है.

इन फिल्मों का दर्शक वर्ग भी बढ़ता है. अगर हिंदी सिनेमा के पॉपुलर फिल्मों को अवॉर्ड मिल जाए. तो लोगों को लगता है कि ये स्थानीय भाषा में बनने वाली छोटी फिल्मों के साथ अन्याय है.

लोकप्रियता या व्यायसायिक कामयाबी

इस लिहाज से एक पहलू ये भी है. कि क्या लोकप्रियता और व्यायसायिक कामयाबी नेशनल अवॉर्ड पाने की राह में रोड़ा है ? अगर कंगना रानउत को फिल्म तनु बेड्स मनु रिटर्न्स के डबल रोल के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड मिलता है, अगर जूही चतुर्वेदी और हिंमाशु शर्मा को संयुक्त रूप से पीकू और तनु वेड्स मनु रिटर्न्स लिखने के लिए अवॉर्ड मिलता है, तो इसके पीछे उनकी काबलियत है.

ये कहना सही नहीं होगा, कि फिल्मों के व्यावसायिक होने से उनके कलाकारों के परफॉर्मेंस और फिल्म के शिल्प पर कोई असर पड़ता है. जाहिर है ज्यूरी के चेयरपर्सन की बात का वजन होता है. लेकिन अंत में ज्यूरी के फैसले सर्वसम्मति से ही लिए जाते हैं.

ये जरूर है कि हर ज्यूरी का अपना मत होता है. वो आदर्श भले ही न हो लेकिन आखिर में फैसला बहुमत के आधार पर ही होता है. इस बार के विजेताओं को ही देख लीजिए. खासकर टेक्निकल कैटेगरी में अवॉर्ड देने के पीछे सॉलिड वजह थी.

तनु वेड्स मनु और पीकू की कहानी फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है. शर्मा और चतुर्वेदी को अवॉर्ड बेवजह नहीं मिला है. इसी तरह से बजरंगी भाईजान देशभर में पॉपुलर रही. इसलिए उसे मनोरंजनप्रधान बेस्ट पॉपुलर फिल्म का अवॉर्ड मिलना, हैरानी नहीं पैदा करता.

फिल्म ज्यूरी वाले कोई आसमान से उतरकर नहीं आते. उन पर भी पॉपुलर फिल्मों से पैदा हुए माहौल का असर होता है. बाजीराव मस्तानी फिल्म को ही ले लें. फिल्म हर लिहाज से भव्य है. सेट डिजाइन से लेकर प्रोडक्शन क्वालिटी और गीत संगीत सबने मिलकर भव्यता का माहौल तैयार किया है.

इसलिए हैरानी नहीं होती अगर फिल्म को बेस्ट सिनेमैटोग्राफी (सुदीप चैटर्जी), कोरियोग्राफी (रेमो डीसूजा) और प्रोडक्शन डिजाइन (सलोनी धातर्क, श्रीराम आयंगर, सुजीत सावंत) का अवॉर्ड मिलता है.

रेमो डिसूजा को ‘पिंगा’ और ‘दीवानी मस्तानी’ गाने के लिए बेस्ट कोरियोग्राफी का अवॉर्ड मिला. हालांकि दोनों ही गानों में डिसूजा सोच के स्तर पर कुछ असाधारण करते नहीं दिखते. पिंगा गाने में पेशवा बाजीराव (रणवीर सिंह) की दोनों पत्नियां काशीबाई ( प्रियंका चोपड़ा) और मस्तानी (दीपिका पादुकोण) डांस में एकदूसरे से होड़ लेती दिखती हैं.

ये ठीक वैसा ही है, जैसा संजय लीला भंसाली की फिल्म देवदास के गाने ‘डोला रे डोला’ पर चंद्रमुखी ( माधुरी दीक्षित ) और पारो (ऐश्वर्या राय) के बीच का डांस मुकाबला. डायरेक्टर बाला थाराई थाप्पतई ने गाने और म्यूजिक के भीतर कैरेक्टर को घुलते मिलते और बदलते दिखाया है.

फिल्म का भव्य सेट लोक गायकों की दुर्दशा दिखा जाती है. इसके लिए नदासवरम एक्सपर्ट सन्नासी (एम शशिकुमार) और उनके पिता सामीपुलवन (जी एम कुमार) की जिंदगी और उनके काल का सहारा लिया गया है. बैकग्राउंड स्कोर बेहतरीन है. ये अफसोसनाक है कि कोरियाग्राफी प्रभाव नहीं छोड़ पाई.

बाजीराव मस्तानी के प्रोडक्शन डिजाइन को भी अलग तरीके से देखा गया. सेट की भव्यता आंखें चुंधिया देने वाली जरूर थी. लेकिन कई बार यही भव्य सेट कथानक से भारीभरकम दिखते हैं.

संजय लीला भंसाली को बेस्ट डायरेक्ट का अवॉर्ड दिया गया. लेकिन ज्यूरी के फैसले पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं. ये बात सच है कि पूरी फिल्म में संजय लीला भंसाली की छाप दिखती है. और अगर उन्हें फिल्म से निकाल दिया जाए तो बाजीराव मस्तानी धराशायी हो जाएगी.

लेकिन भंसाली के आगे मलयालम फिल्म पाथेमारी और तमिल फीचर विसारनाई के डायरेक्टर को बेस्ट डायरेक्टर का खिताब न मिलना, ज्यूरी के फैसले को हिलाने वाला है.

गौर से देखें तो नामंकन को जिस संदर्भ में ज्यूरी देखती है, उसका एक सूक्ष्म संदेश बाहर आता है. 63वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के विजेताओं को ही देख लें. ऐसा किसी को लग सकता है कि ये सिर्फ मुख्यधारा की सिनेमा का सम्मान है. लेकिन ऐसा भी नहीं है.

मुख्यधारा की सिनेमा और स्थानीय भाषाओं में बननी वाली सिनेमा का फर्क महीन हुआ है. मराठी और तमिल जैसी भाषाओं के युवा फिल्मकारों ने एक अलग रेखा खींच दी है. जो हिंदी सिनेमा से कमतर नहीं दिखती.

मसान ( बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर ), दम लगाके हैशा ( बेस्ट हिंदी फिल्म, बेस्ट गीतकार ), रिंगन (बेस्ट मराठी फिल्म ) और विसारनाई (बेस्ट तमिल फिल्म, बेस्ट एडिटिंग, बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर) जैसी फिल्में वैसे ही हंगामा खड़ी करती हैं, जैसी बड़ी मशक्कत से बनी फिल्म बाहुबली.

इन चार में से पहली तीन फिल्मों के डायरेक्टर पहली बार डायरेक्शन में हाथ आजमाने वाले लोग हैं. सिनेमा में नया गढ़ने वालों की फौज मैदान में है. इस वक्त कुल 72 फिल्मकार ऐसे हैं, जो फिल्म निर्माण में कुछ नया रच रहे हैं. सिनेमा अपने सबसे अच्छे दौर में आगे बढ़ रहा है.