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Review टॉयलेट-एक प्रेम कथा : अक्षय की तारीफ करें और सरकारी प्रॉपेगेंडा को 'फ्लश'

फिल्म के डायरेक्टर मोदी के भक्त नजर आते हैं, अगर वो थोड़ा ज्ञान कम देते तो फिल्म और भी अच्छी बन सकती थी

Abhishek Srivastava

फिल्म के एक सीन में जब फिल्म की नायिका भूमि, अक्षय को बोलती हैं कि ज्यादा शाहरुख खान बनने की कोशिश मत करो तो यह डायलॉग कई मायनों में सच्चाई भी बयान करता है. भले ही फिल्म में भूमि का ये डायलॉग फिल्मी हो लेकिन हकीकत यही है कि एक समय था जब अक्षय कुमार शाहरुख खान बनने की कोशिश करते थे लेकिन आज अगर वो शाहरुख ना ही बनें तो ज्यादा बेहतर है क्योंकि सिर्फ अभिनय और फिल्म सेलेक्शन की बात करें तो अक्षय, शाहरुख खान से कोसों आगे निकल चुके हैं.

बुजुर्गों ने कहा है कि जो होता है वो अच्छा ही होता है. ये अच्छा ही था कि शाहरुख खान की फिल्म जब हैरी मेट सेजल, टायलेट - एक प्रेम कथा के साथ रिलीज नहीं हुई. वजह बड़ी ही साफ है, जो किरकिरी शाहरुख के साथ दिलवाले के वक्त हुई थी वो दोबारा होती इस फिल्म के साथ. ये पक्की बात है कि टायलेट का बटन हैरी और सेजल की कहानी को फ्लश कर देता.


छोटे शहर की स्टोरी

आइए अब फिल्म की बात कर लेते हैं. अक्षय की ये नई फिल्म मनोरंजन और मैसेज का एक संगम है जो कुछ जगहों पर काम करती है और कुछ जगहों पर बिल्कुल भी नही. इस फिल्म की डोर से आप बंधे रहेंगे सिर्फ अक्षय की वजह से. इस फिल्म में एक चीज बेहद परेशान करती है और वो है इस फिल्म का लेंथ जो दो लगभग 2 घंटे और 40 मिनट के आसपास है.

कहानी मथुरा के मंदगांव में रहने वाले अक्षय कुमार के परिवार की है जो अपने छोटे भाई और पिता के साथ रहते हैं. पिता रुढ़िवादी परंपराओं पर चलने वाले एक पंडित हैं और जीवन यापन के लिये एक साइकिल की दुकान चलाते हैं. वही मथुरा शहर में भूमि यानी जया रहती है जो आज के जमाने की मॉडर्न सोच रखने वाली लड़की है. दोनों का एक दूसरे से मिलना होता है, मोहब्बत होती है और कुछ बाधाओं के बाद उनकी शादी हो जाती है.

लेकिन असल परेशानी शादी के बाद शुरु होती है जब अक्षय यानी केशव के घर से शौचालय नदारद होता है. कुछ समय तक केशव जुगाड़ के माध्यम से अपना काम तो चला लेता है लेकिन जब सच्चाई का सामना होता है जब मुसीबतें पहाड़ बन कर उसके सामने खड़ी हो जाती हैं. मामला दोनों के तलाक तक पहुंच जाता है. बाद में सभी मुद्दों को सरकार के हस्तक्षेप के बाद निपटाया जाता है.

अक्षय का रोल सलेक्शन 'शानदार'

अक्षय कुमार को उनके रोल सेलेक्शन के लिये दाद देनी पड़ेगी. बल्कि जॉलीएलएलबी 2 के बाद हम इस बात को कह सकते हैं कि ग्रामीण और शहरी परिवेश का अनोखा मिश्रण आज की तारीख में कोई बखूबी फिल्मी पर्दे पर उतार सकता है तो वो अक्षय कुमार ही हैं. उनके अभिनय पर कोई दाग नहीं है. भूमि पेडनेकर के बारे में अब ये कहना पड़ेगा कि शुक्र है कि फिल्म जगत को एक अच्छी अभिनेत्री मिल गई है.

बॉलीवुड को मिली एक 'अच्छी एक्ट्रेस'

सत्तर के दशक की फिल्मों में जरीना वहाब ने जो कब्जा किया था वो आज के दौर की फिल्मों में भूमि ने कर लिया है. उनका अभिनय शानदार है और बेहद ही सहज है. अक्षय की भाई की भूमिका में दिव्येंदु हैं और उन्होंने अक्षय के छोटे भाई की भूमिका को प्यार से अंजाम दिया है. दिक्कत होती है सुधीर पांडे के चेहरे पर गुस्से के हाव भाव को देखकर. अरे भई गुस्सा करना ही है तो कई तरीकों से उसकी अभिव्यक्ति हो सकती है. अनुपम खेर का रोल छोटा है लेकिन असरदार है.

डायरेक्टर के काम की 'तारीफ'

इस फिल्म के निर्देशक हैं श्री नारायण सिंह. ये बात भी सच है कि वो सरकार के भक्त भी नजर आते हैं क्योंकि उनकी फिल्म का सबजेक्ट ही ऐसा है. लेकिन उनकी तारीफ इसलिए करनी पड़ेगी कि छोटे शहर का खाका खींचने में वो पूरी तरह सफल रहे हैं. जब अक्षय की टी-शर्ट पर नाईकी के बदले नायक या फिर ली वाइस के बदले इविल्स लिखा हुआ होता है तो आप समझ जाते हैं कि एक छोटे शहर की परिकल्पना उन्होंने बेहद ही सटीक तरीके से की है.

लेकिन ऐसा भी नहीं की ये फिल्म सौ प्रतिशत मनोरंजन देती है. कुछ जगहों पर बोर भी करती है जब सरकार के शौचालय बनवाने के योगदान को लेकर बात उठती है. तब यही ख्याल हमारे मन में आता है कि जीहां शुक्रिया हमें पता है. फिल्म के स्क्रीनप्ले में उतार चढ़ाव नाम की चीज नहीं है. एक ही पेस पर फिल्म चलती रहती है. आपको पता है कि आगे क्या होने वाला है. ये फिल्म वाकई में एक प्रेम कहानी है जहां पर शौचालय उस कहानी को आगे बढ़ाता है.

ऐसी फिल्मों में हमेशा इस बात का डर बना रहता है कि कहीं वो प्रीची ना बन जाये. और फिल्म के दूसरे हाफ में ये डर सच साबित हो जाता है. जब भूमि अपने मायके के बाहर औरतों को शौचालय के नाम पर भाषण देती हैं या फिर अक्षय जब सरपंच को संस्कृत का पाठ पढ़ाते हैं तो यही कहने का मन करता है कि क्या इसके बिना फिल्म नहीं बन सकती थी.

फिल्म के आखिर में जब मुख्यमंत्री अपने अधिकारियों के दफ्तरों में शौचलय पर ताला लगवाने का हुक्म देते हैं तब लगता है कि इस गिमिक को फिल्म को आगे बढ़ाने के लिए जबरदस्ती ये सब डाला गया है. फिल्म की कहानी में उतनी उछलकूद नहीं है क्योंकि आखिर में हश्र क्या होगा ये सबको पता रहता है. आप इस फिल्म को एक बार आजमा सकते हैं लेकिन संदेश और मनोरंजन से ज्यादा सबसे बड़ी वजह होगी अक्षय को देखने की, जिन्होंने इस बार भी कुछ नया करने की कोशिश की है.

मोदी से अभिभूत लगे डायरेक्टर

ये फिल्म पीएम नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान को एक कमाल का ट्रिब्यूट है. इस तरह के गुणगान गाना इसके रिजल्ट आने के पीहले इसी बात का सबूत है कि फिल्म के निर्देशक मोदी से अभिभूत हैं. अगर इस फिल्म को प्रॉपेगेंडा फिल्म कहा जाये तो वो गलत नहीं होगा. और वो इसलिये भी साबित हो जाता है क्योंकि फिल्म के क्लाइमैक्स में सरकारी अधिकारियों पर भी कुछ समय दिया गया है. इस फिल्म को आप देख सकते हैं लेकिन ज्यादा उम्मीद लगाना गलत होगा. जाइए और मोमेंट्स को एंजॉय कीजिए बाकी सभी चीजें आप दरकिनार कर सकते हैं.