हिंदुस्तान में रोमांटिक कॉमेडी का ज्यादा चलन नहीं है और इसको अगर एक रोड जर्नी से जोड़ दें तो इक्का-दुक्का ही फिल्में आपको याद आएंगी इस लिहाज से करीब करीब सिंगल के निर्माण एक तरह से रिस्क था लेकिन फिल्म देखने के बाद पता चलता है की इस जॉनर को बॉलीवुड को थोड़ा बहुत और खंगालना चाहिए.
करीब करीब सिंगल एक हल्की फुल्की फिल्म है और इस बात का पूरा यकीन है कि फिल्म के बाद भी आपके चेहरे पर एक मुस्कान बनी रहेगी और पूरी जर्नी में आप किरदारों के साथ एक तरह का रिश्ता बनते हुए आप महसूस करेंगे.
करीब करीब सिंगल की कहानी दो सिंगल किरदारों के बारे में है जो एक डेटिंग साइट पर एक दूसरे से मिलते हैं खास बात यह है कि यह डेटिंग साइट सिर्फ 35 साल से ऊपर के लोगों के लिए है. योगी (इरफान खान) और जया (पार्वती) भले ही साइट पर एक दूसरे से मिलते हों जो शायद कहानी को आगे बढाने का एक टूल हो लेकिन बाद में उनके सफर के बारे में ऐसी कोई भी बात नहीं है की जिसके बारे में आप कह सकते हैं कि अरे हमें तो ये पहले से ही पता था.
स्टोरी
फिल्म की कहानी योगी और जया के बारे में है जो डेटिंग साइट पर मिलते हैं और मिलने के पहले वो कई टूटे रिश्तों से दो चार हो चुके हैं. जब मुंबई की कॉफी शॉप में वो लाते पीने के लिए मिलते हैं तब उन्हें खुद भी नहीं पता है कि उनकी जिंदगी जल्द ही बदलने वाली है. एक के बाद एक चीजें होती हैं और उसके बाद वो दोनों एक दूसरे के साथ सफर पर निकलते हैं. सफर की गली हरिद्वार, राजस्थान और गैंगटोक की गलियों से हो कर निकलती है और उसी दौरान उनको अपनी अपनी जिंदगी और अतीत के रिश्तों की असली समझ मिलती है. इसी सफर में वो एक दूसरे के करीब भी आते हैं.
एक्टिंग
इस फिल्म का सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक खुद इरफ़ान और फिल्म की नायिका पार्वती हैं. पार्वती इसके पहले साउथ की कई फिल्मों में काम कर चुकी हैं और मलयालम फिल्मों में खासकर अपने अभिनय का लोहा मनवा चुकी हैं. उनका स्क्रीन कॉन्फिडेंस बेहद ही लुभाने वाला है. कहीं से नज़र नहीं आता है कि करीब करीब सिंगल उनकी पहली हिंदी फिल्म है. उनका अभिनय बेहद ही सधा और दिल को लुभाने वाला है.
इरफ़ान ने जीता दिल
इरफ़ान के बारे में जितना कहें शायद वो कम ही होगा. उनको खूबी यही है कि एक कमजोर फिल्म में भी वो अपने अभिनय से उसमें जान डालते हैं. मैं यहां पर बिलकुल भी नहीं कह रहा हूं कि यह एक कमजोर फिल्म है. फिल्म में उनका अभिनय बेजोड़ है और एक रियल रोमांस किस तरह का हो सकता है इसको पर्दे पर जान डालने के लिए इरफ़ान और पार्वती को पूरे नंबर मिलने चाहिए. इरफ़ान के अभिनय में एक एक किस्म की कशिश है जो पलों में आपका ध्यान आकर्षित कर लेती है.
तनुजा चंद्रा ने फिर जमाई धाक
तनुजा चंद्र ने फिल्म का निर्देशन किया है और यहां पर उनके बारे में कुछ बातें बतानी ज़रुरी है. किसी ज़माने में उनको फिल्मों में ड्रामा और हिंसा उसके अटूट हिस्सा हुआ करते थे लेकिन इस फिल्म से उन्होंने 180 डिग्री का टर्न लिया है. यह भी ग़ौरतलब है कि उनकी पिछली फिल्म और इस फिल्म में यह सबसे बड़ा गैप है जो लगभग आठ साल का है. इस बीच वो दो फिल्मों को बनाने के काफी करीब आ गई थीं लेकिन आखिर वक़्त पर वो दोनों फिल्में बन नहीं पाईं. अब आप खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं कि किसी निर्देशक के साथ ऐसा कुछ हो जाए तो उसकी मनोदशा क्या होगी.
कहानी से नहीं किया खिलवाड़
लेकिन करीब करीब सिंगल देखकर यही लगता है कि तनुजा ने हिम्मत नहीं छोड़ी और अपना सब कुछ इस फिल्म पर लगा दिया था. तनुजा की ये फिल्म, बॉलीवुड के कई मापदंडों को धता बताने के अलावा एक नए रास्ते का भी सुझाव देती है. मुमकिन है कि इस फिल्म के क्लाइमेक्स से बहुत लोग शायद इत्तेफ़ाक़ ना रखें लेकिन इसको देखने के बाद यही लगता है कि तनुजा ने अपनी मां कामना चंद्र की कहानी के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ नहीं किया है. शायद इस फिल्म की पेस को देख कर आपको इस बात का एहसास हो कि अरे कुछ भी आगे नहीं बढ़ रहा है लेकिन हक़ीकत यही है की सब कुछ आगे बढ़ रहा है.
वरडिक्ट
हरिद्वार, राजस्थान और गैंगटोक का सफर बेहद ही लुभाने वाला है. मुमकिन है कि यह फिल्म आपको खुद के अंदर झांकने पर मजबूर कर दे. लेकिन बात वहीं पर टिक जाती है कि जिस फिल्म को देखने के लिए आप अपनी जेब ढीली करेंगे क्या वो एक मनोरंजक फिल्म है या नहीं तो इसका उत्तर यही है की आप जाइए और बेशक इस फिल्म को देखिए. यह फिल्म पूरी तरह से इरफ़ान और पार्वती के मजबूत कंधों पर चलती है जिनका एक भी कदम गलत नहीं दिखाई देता है. महेश भट्ट के शब्दों में कहें तो करीब करीब सिंगल एक हाई कांसेप्ट फिल्म है जो आपको मनोरंजन के अलावा विवेचना करने पर भी विवश करेगी.