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Review लखनऊ सेंट्रल : मुस्कुराइए कि आप 'लखनऊ सेंट्रल' में हैं....

लखनऊ सेंट्रल को जेल पर बनी अब तक की सबसे अच्छी फिल्म कहा जा सकता है

Abhishek Srivastava

लखनऊ सेंट्रल में एक सीन है जब बैंड के पांचो सदस्य जेल से बस भागने ही वाले हैं यानी कि जेल की जिंदगी और आज़ादी में महज एक दीवार का फ़ासला है.

फरहान अख्तर के बैंड के सभी सदस्य उनसे गुज़ारिश करते हैं कि वो अकेले ही भाग जाएं. जब फरहान उनकी ये बात सुनते हैं तो बेहद ही आश्चर्य करते हैं और उनसे भी साथ चलने के लिए मिन्नतें करते हैं तब उनकी टीम के बाकी सदस्य उनसे कहते हैं कि हमने बाहर की जिंदगी देख ली है और अब वो बाकी की जिंदगी जेल में ही बिताएंगे.


ये सीन बेहद ही कमाल का है लेकिन लखनऊ सेंट्रल में इस तरह के सीन बेहद कम है. अगर और होते तो इस फिल्म का ओहदा कुछ और होता लेकिन बात अटकती है कि ये फिल्म आपको देखनी चाहिए या नहीं तो इसका जवाब यही होगा की आप इसको आजमा सकते हैं.

फिल्म की कहानी किशन गिरहोत्रा (फरहान अख्तर) के बारे में है जो मुरादाबाद का रहने वाले हैं और एक गायक हैं और जिसका सपना है खुद का बैंड बनाना. एक हादसे में एक आईएएस अफ़सर का मर्डर हो जाता है और गलती से इल्जाम आ जाता है किशन के सर पर. उनको उम्र क़ैद की सजा हो जाती है. जब प्रदेश के मुख्यमंत्री, आईजी को आदेश देते हैं प्रदेश के विभिन्न जेलों के म्यूजिक बैंड के बीच एक स्पर्धा के आयोजन करने की तो फरहान को लगता है कि ये एक सुनहरा मौका होगा अपना हुनर दिखाने का और जेल से फ़रार होने के लिए.

इस जेल में एक म्यूजिक बैंड प्रतियोगिता आयोजित की जाती हैं जहां डायना पेंटी एक एनजीओ वर्कर का किरदार निभाएंगी. फिल्म की स्टोरी प्लाट के मुताबिक उन्हें जेल में एक म्यूजिक बैंड बनाने का काम सौंपा गया है.

गायत्री कश्यप (डायना पेंटी) जेल से जुड़े एक एनजीओ में काम करती हैं और उनकी मदद से फरहान का तबादला मुरादाबाद जेल से लखनऊ की जेल में हो जाता है. वहीं पर उनकी दोस्ती होती है विक्टर (दीपक डोबरियाल), पुरुषोत्तम मदन पंडित (राजेश शर्मा), दिक्कत अंसारी (इनामुल हक) और पाली (गिप्पी ग्रेवाल) से, जो सभी उस जेल में बंद हैं और बाद में फरहान के बैंड के सदस्य बन जाते हैं. कुछ कारणों से उनके रिहसर्ल का एक वीडियो वायरल हो जाता और उसके बाद इनके हुनर के चर्चे हर जगह होने लगते हैं. जिस दिन स्पर्धा होने वाली है उसी दिन ये फ़रार होने के अपने प्लान को अंजाम देते हैं लेकिन कुछ चीजें बीच में आ जाती हैं.

फरहान है सेंट्रल कैरेक्टर

अभिनय की बात करें तो ये पूरी फिल्म फरहान के इर्द गिर्द घूमती है. उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर के एक युवा की भूमिका पर तो वो खरे उतरते हैं लेकिन मुंबई की चाल ढाल उनको कभी-कभी दगा जरुर दे देती है. उनका काम बेहतर है लेकिन अपने मैनरिज्म पर थोड़ा काम और करते तो वो किशन को कहीं और ले जा सकते थे.

फरहान अपने काम प्रति डेडिकेटेड रहे हैं. फिल्म के सेट पर भी वो अपने शॉट और सीन्स को बेहतरीन ढंग से करने के लिए डायरेक्टर से बातचीत करते हुए दिखाई दे रहे हैं.

सभी की एक्टिंग ने मोह लिया

एक एनजीओ वर्कर के रोल में डायना पेंटी सटीक हैं, सच कहें तो उनके हाव भाव बेहद सहज हैं लेकिन ग्लैमर का तड़का उनके किरदार में नहीं होना चाहिए था. इसके अलावा फिल्म में फरहान के बैंड के बाकी सदस्य के रुप में राजेश शर्मा, गिप्पी ग्रेवाल, इनामुल हक और दीपक डोबरियाल हैं. इन सभी से अच्छे काम की उम्मीद थी और उन्होने फिल्म में वही किया है. रोनित राय की भौहें जब तनी होती हैं तब उनकी अदाकारी दिखाई देती है और ये फिल्म आपको निराश नहीं करेगी. क्रूर जेलर के रोल में वो जंचे हैं.

लेखन में होना चाहिए था सुधार

अब फिल्म में परेशानी क्या है इसके बारे में भी बात कर लेते हैं. फिल्म में परेशानी इसी बात की है कि फरहान को हीरो बना दिया गया है. जब बात जेल की होती है तो सभी कैदी बराबर होते हैं. लेकिन यहां उनके साथ चार और किरदार भी हैं जो बेहद मंझे हुए कलाकार हैं लेकिन उनको फरहान के मुकाबले पीछे ही रखा गया है. कहने का मतलब ये है कि बाकी किसी को भी उभरने का मौका नहीं दिया गया है. मैसेज ये जाता है कि ये फिल्म फरहान के टैलेंट को शो केस करने के लिए बनाई गई है. इस बात को भी देख कर थोड़ी तकलीफ़ होती है कि अदालत सबूतों के बिना और महज एक का गवाही पर फरहान को जेल भेज देती है.

दिल से ऊपर दिमाग का हो इस्तेमाल

ये भी थोड़ा अटपटा लगता है कि जब पहली बार फरहान जेल जाते है और वहां उनकी मुलाकात जेल के बाहुबली से होती है फिल्म खत्म होते होते उसके किरदार को तहस नहस कर दिया गया है. ये सभी परेशानियां फिल्म की लिखावट को लेकर है. अगर आप हॉलीवुड की बात करें तो जेल से फ़रार होने के मुद्दे पर कई फ़िल्में बन चुकी हैं जिनमें से कई यादगार फ़िल्में हैं मसलन पैपीलोन, द शाशांक रिडेमप्शन. लेकिन हिंदी फिल्मों से तकलीफ़ इस बात को लेकर है कि जब जेल से आखिरी मौके पर फ़रार होने की बारी आती है तो नैतिक शिक्षा की बात बीच में क्यों आ जाती है. क्या दिल के बदले कभी दिमाग की नहीं सुनी जा सकती है.

रंजीत तिवारी के साथ फरहान अख्तर

तारीफ करनी पड़ेगी फिल्म के निर्देशक रंजीत तिवारी जिनकी बतौर निर्देशक ये पहली फिल्म है. इसके पहले वो निखिल अडवाणी को असिस्ट कर चुके हैं. कहीं से भी ये नजर नहीं आता है कि किसी फिल्म का निर्देशन उन्होंने पहली बार किया है. उत्तर प्रदेश का खाका जिस तरह से उन्होंने फिल्म में खींचा है (जो की फिल्म में कम दिखाया गया है) उसको देखकर लगता है कि हुनर है उनके अंदर. इस फिल्म के सभी गाने बेहतर हैं खासकर रंगदारी और मीर ए कारवां. आप इस फिल्म को देखिए आपको मनोरंजन मिलेगा और 147 मिनट जाया नहीं होंगे.